इधर ड्राइवर खाई के ऊपर कच्ची सड़क पर शूमाकर बना हुआ था, उधर जगमोहन को एवलांच निगल गया!

लाइफ ऑन व्हील्सइधर ड्राइवर खाई के ऊपर कच्ची सड़क पर शूमाकर बना हुआ था, उधर जगमोहन को एवलांच निगल गया!

गौरव नौड़ियाल

गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।  

(भाग-5) मोरी घाटी से सांकरी की ओर बढ़ते हुये नदी अब काफी पीछे छूट चुकी थी और एक नई दुनिया का द्वार खुल रहा था। पहाड़ों का द्वार। सांकरी से पहले हमें वन विभाग से परमिशन लेनी थी। यहां से गुजरने वाले हर यात्री को पहाड़ों पर चढ़ने से पहले वन विभाग से एक तय राशि चुकाकर अनुमति लेनी होती है, ताकि मुश्किल वक्त में आपको रेस्क्यू किया जा सके। मुझे ये खानापूर्ति ही ज्यादा लगता है, दूसरा ये दंभ भी था कि पहाड़ हमारे और टैक्स भी हमीं चुकाएं! पता नहीं यह ख्याल क्यो आया, लिहाजा मैंने वन विभाग में तैनात एक कर्मचारी को अपने स्थानीय होने का हवाला देकर मना लिया। बिना शुल्क हम आगे बढ़ गए। स्थानीय निवासी होने का इतना लाभ ले लिया जाना चाहिये... और हमने ये लाभ ले लिया।

हम सांकरी पहुंच चुके थे और यहां से आगे अब हमें अपनी कार छोड़नी थे। सेब के बगीचों और खूबसूरत होटलों के बीच हम सांकरी में दाखिल हुए। सांकरी एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा है जहां से हर की दून, बाली ग्लेशियर, रुपिन पास और केदारकांठा के लिए रास्ता निकलता है। साल भर यहां ट्रेकर्स की आवक बनी रहती है, जिनमें बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक हैं। सांकरी में व्यापारी अब चालाक हो गया है। वो जानता है आप यहां पैसा खर्च करने के लिए ही पहुंचे हैं, इसलिए वो आपको दाम भी उसी हिसाब से बताएंगे। आप यहां पहाड़ के बाकी कस्बों की तरह व्यापारियों से उदारता की उम्मीद नहीं कर सकते... वो वक्त के साथ चालाक व्यापारी में तब्दील हो गये हैं। आप अगर दाम तय करने में चूक गये तब वो आपको इतने ज्यादा दाम भी बता सकते हैं, जो गैरजरूरी हो। 

(भाग-1) तुम इक गोरखधंधा हो...

पहाड़ियों पर बर्फ चमक रही थी और घाटियों में अंधेरा पैर पसारने लगा था। हमारे सामने अब होटल और गाइड ढूंढने की चुनौती थी, जो दोनों हमें बजट में करने थे। हमने तलाश शुरू की तो प्रति व्यक्ति हर की दून पहुंचाने का नौ हजार रुपया मांगा गया जो हमें नागवार गुजरा। चढ़ना हमें है और कीमत भी भारी चुकाई जाए... ये पैसा खर्च करने वाले पर्यटकों के लिए छोड़ देना चाहिए। ये हम सबका ख्याल था, कुक्कू को छोड़कर। वो दरअसल इतना कहां सोच पाती है, उसे तो अभी सीखना है।

हमने तय किया कि हम अपनी कार यहीं खड़ी कर अब तालुका निकलेंगे और वहीं अपने पुराने गाइड जगमोहन को ढूंढेंगे। जगमोहन हमारे ही कुछ साथियों को इससे पहले हर की दून और बाली ट्रैक करवा चुका था। जगमोहन स्थानीय बाशिंदा था और ट्रैकिंग के नाम पर दुकाने सजाये बैठी निजी कंपनियों से बेहतर था। इसलिए भी कि इससे कम से कम हम किसी स्थानीय शख्श के रोजगार को बढ़ा रहे थे न कि किसी निजी कंपनी के मुनाफे को, जिसमें ढकोसला ज्यादा है। साकंरी में ही हमें अपनी कार खड़ी करनी पड़ी। 'हर की दून' के लिये हमें तालुका पहुंचना था। पहले सांकरी से आगे कोई सड़क मार्ग नहीं था। बाद में वन विभाग ने अपनी गश्त के लिये तालुका तक सड़क मार्ग बनवाया और फिर धीरे-धीरे लोग भी इस रास्ते का उपयोग करने लगे।

सांकरी से आगे तालुका तक सड़क कच्ची है और यहां स्थानीय ड्राइवरों के भरोसे ही जाया जा सकता है। सांकरी में हमने होटल के टैरिफ पता किये और फिर तय किया कि सांकरी में रुकने के बजाय हमें रात के वक्त तालुका पहुंच जाना चाहिये। इस बीच जगमोहन की तलाश भी हम करते रहे और हमें दो-तीन जगमोहन के इलाके में होने के बारे में पता चला। बातचीत में पता चला कि इनमें से कोई भी गाइड का काम नहीं करता है। 

(भाग-2) 'मछलियों की तलाश में भटकते हुए जब राज कपूर का काफिला सुनसान पहाड़ी गांव में पहुंचा'

हम अब तालुका की ओर जाने वाले आखिरी कैंपर में सवार हो चुके थे। अंधेरा हो चुका था। कैंपर में सामान लदा हुआ था जो किसी दुकानदार का था, जिस वजह से हमें आखिरी कैंपर मिल गया। उस 5 सीटर कैंपर में तकरीबन 22 लोग सवार थे। शीतल और कुक्कू के लिए हमने ड्राइवर से बात कर किसी तरह से कैंपर के भीतर दो सीटों का जुगाड़ कर लिया और खुद हम तीनों छत पर सवार हो गए। हमें कोई अंदाजा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है।

कैंपर कुछ ही मीटर आगे बढ़ा था कि हमारे होश फाख्ता हो गए! ये घने देवदार और बांझ के जंगलों के बीच एक कच्ची पगडंडी थी, जो वन विभाग की बीट रोड थी। इस सड़क पर गाड़ियों को परमिशन नहीं थी, जिसका मतलब ये होता कि हादसे की सारी जिम्मेदारी हमारी खुद की थी।

ड्राइवर गाड़ी दौड़ा रहा था और नीचे दिखती गहरी खाई हमारा प्राण सुखा रही थी। हमने कस कर पूरी ताकत से कैंपर के डंडों को पकड़ लिया। झूलती लहराती गाड़ी को ड्राइवर बिना परवाह दौड़ा रहा था। हमने छत पर ही बैठे एक शख्स से पूछा ‘यहां कभी कोई गाड़ी गिरी है?’... उसका जवाब था ‘हां ये तो होता ही रहता है, दो दिन पहले ही एक कैंपर गिरा है!’ हम सब चुप बैठ गए। मैंने कई जगह आंखें बंद कर ली और बाकियों के चेहरों की रंगत अंधेरा होने के चलते नहीं देख पाया। बाद में बातचीत में पता चला कि सबके हलक सूखे हुए थे। वो सड़क नहीं बल्कि पहाड़ पर ही सड़क का अहसास करवाती पगडंडी भर थी, जिसमें जगह-जगह नुकीले पत्थर निकले हुए थे। हमारा सारा जोश डर में बदल गया था और हम बस किसी तरह से तालुका पहुंचने का इंतजार कर रहे थे। आधे रास्ते में एक कैंपर में लोग लकडियां भर रहे थे, जिसके चलते हमें इंतजार करना पड़ा।

(भाग-3) 'वो सिर्फ एक लाश नहीं थी, विदाई में उमड़े एक पूरे समाज के बनने की कहानी थी'

ये पगडंडी इतनी पतली थी कि दो गाड़ियां निकलना मौत को चुनौती देना था। ...और ऐसा ही हुआ भी। जब दूसरे कैंपर में सारी लकड़ियां भर ली गई तब पास लेना मुश्किल हो गया। एक फीट भी जगह सड़क पर खाली नहीं थी हमारा ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाता चला गया। हमने आखिरी पल का हिसाब लगाया और आंखें मूंद ली...लेकिन उसने गाड़ी को सड़क के मुहाने पर आगे धकेलते हुये गाड़ी को सुरक्षित निकाल लिया था। मौत की महीन डोर अब पीछे छूट चुकी थी और हम तालुका में थे। इस बीच न जाने कितने किस्म के ख्याल छूकर गुजर गये। मैं हिसाब लगा रहा था कि अगर कैंपर खाई में गिरा तो किस ओर कूदकर कम चोटें आएंगी या फिर ऐसा भी तो हो सकता है कि कैंपर किसी पेड़ की आड़ में अटक जाये या फिर कूदने का मौका ही न मिले... कई किस्म के ख्याल तैर रहे थे।

तालुका में उतरकर हमने अपनी धड़कती हुई सांसों पर काबू पाया और सामान उतारकर जगमोहन की तलाश शुरू कर दी। बातों-बातों में हमें बेहद दुखद खबर मिली। जगमोहन की मौत चार महीने पहले ही एवलांच में दबकर हो गई थी। एवलांच बर्फीले पहाड़ों पर मौत लेकर आते हैं। आपने कई किस्से सुने होंगे बर्फीले तूफान के, लेकिन ये तो मानों हमारे करीब से गुजरा था। हम कई देर तक जगमोहन की छवि अपने मन में गढ़ते रहे। वो एक शानदार ट्रैकर था और ये किस्सा हमें बताया उसी के गांव के एक दूसरे स्थानीय शख्श लायबर ने। लायबर ने हमें 'हर की दून' पहुंचाने का प्रस्ताव रखा... हम चिंतित थे। हमारे साथ एक बच्ची भी थी और पहाड़ों पर बर्फवारी हो चुकी थी। सुरक्षित सफर सबसे पहली प्राथमिकता थी और फिर हमने लायबर पर भरोसा जताते हुए अगली सुबह का वक्त मुकर्रर किया। लायबर पहाड़ी पर कहीं अपने घर की ओर लौट गया।

(भाग-4) 'वो सीटी बजाते हुए चलते हैं और हजारों भेड़ें उनका अनुसरण करती हैं'

लायबर ने ही हमें एक होम स्टे दिलवाया जो तालुका के ही एक व्यापारी हरिराम का घर था। एक ही कमरे में हम पांचों को जगह दी गई। एक बेड जो शीतल और कुक्कू को मिला और देवदार के तख्त का फर्श हमें। यह एक एक गर्म और सुंदर कमरा था, जिसकी दीवारें फर्श और छत लकड़ी के थे... मेरे सपनों के घर जैसा घर। पूरे कमरे में देवदार की लकड़ी की खुशबू भरी हुई थी। बाहर बहुत ज्यादा ठंड बढ़ गई थी। मैंने मोबाइल पर तापमान चेक किया तो ये तब 2 डिग्री बता रहा था। बाहर नदी का धीमा शोर भर था। साफ आसमान में तारे जगमगा रहे थे और अगली सुबह के इंतजार में रात और अधिक स्याह हो रही थी..

जारी है...

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