बाजार में सजी हुई मोहब्बत है नजमा!

Flashbackबाजार में सजी हुई मोहब्बत है नजमा!

निधि सक्सेना

निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है। 

वो बेसब्र है! लेकिन घर से आए बीस ख़त बिन पढ़े, बिन खुले , दरगाह पर चढ़ा आएगी, इतनी हिम्मत मियांं मुझ में तो नहीं। अपना ग़ुस्सा, अपनी मजबूरी, शोख़ हंसी में ढक लेगी लेकिन कितनी भी ज़िद्द कर ले उसकी पेरेशनी उसका इंतज़ार पेशानी पर न सही आंख में दिख ही जाएगा। किसका इंतज़ार किसकी परेशानी? हंसेगे आप जान कर कि वो छः बरस से अपनी शादी के इंतज़ार में एक मर्द पर ऐतबार किए बैठी है, झूठ की ज़िंदगी पर झूठा सच रटती हुई,  लेकिन उसका वो तंज ख़त्म नहीं होता जिसमें वो ग़ुरूर से गला उठा कर बोल सके- 'आपके बाज़ार में कोई सबसे सस्ती चीज़ है, तो वो है औरत।'

कुछ समय से सिनेमा में उन सब महिला किरदारों की झड़ी लगी है, जो मुझे पसंद होने चाहिए थे। जैसी औरत होने की हम सोचते रहे, प्रोफ़ेशनल,अकलमंद, समझदार, सुलझी हुई, हिम्मती, मज़बूत, निडर, फोकस्ड जो अपने हक़ों के बारे में भी सब जानती है, इनमे से होना था मेरा कोई प्रिय महिला किरदार, लेकिन मुझे वो पसंद है, जो शायद हिंदी सिनेमा की सबसे वलनरबल औरत है, 'बाज़ार' (1982) की नजमा।

यह भी पढ़ें: दुनिया के लिए अब सबसे बड़ी टेंशन का नाम है 'क्लाइमेट चेंज', तबाही के लिए रहें तैयार! 

नजमा वो है जिसने घर की इज़्ज़त होने से इंकार कर दिया था! रिवाज की बेड़ियों को तो नजमा की नाराज़ हंसी ने ही तोल दिया, उसे फांसा तो प्यार ने! लेकिन ये चुंगल जिसे वो प्यार कहते हैं, प्यार है भी? नजमा ख़ुद जिसे प्यार कहती है वो उसने किया भी? ये समाज जिस अर्थ नीति की बिसात पर टिका है नजमा उसकी बेगम नहीं, प्यादा है, और यहां गोटियां जमाते हुए उसे लगा था, शह उसने दी है लेकिन उसकी सिर्फ़ मात थी।

वो ख़ुद को घर का क़ीमती गुलदान होने से बचाती रही, जबकि थी तो दरअसल वो बस पायदान, सीढ़ी जिस पर पांव रख कर मर्दों को अपना उल्लू सीधा करना था, जो भाई न कर सके वो प्रेमी ने किया। भाइयों की नवाबी दुनिया से वो भाग आयी तो अख़्तर ने कांटे पर शादी की लई चिपका दी और जो चाहता रहा वो सब करवाता रहा नजमा से।

कभी किसी शब्दकोश में तो वलनरेबल का अर्थ खोजा नहीं, लेकिन औरत या लड़कियों के संदर्भ में जिस तरह सुना उससे जो मर्म पकड़ में आया वो कुछ यूँ था कि वो औरत जिसके चेहरे पर छपा है कि उसे प्रेम चाहिए, इस प्रेम चाहिए का अनुवाद कई तरह से होता है- प्यार की भूखी औरत, जरूरतमंद औरत और कुल मिला कर अती भावुक और कमज़ोर औरत। तो जो भावुक है सो तो कमज़ोर है ही, तो वो औरत जिसका आसानी से सेक्सुअल फ़ायदा उठाया जा सकता हो और इस सुनने सुनाने में ताक़ीद भी मिलती रही कि अव्वल तो वलनरेबल हो ही मत, हो भी जाओ तो अपनी वलनरेबिल्टी कभी कहीं किसी पर ग़लती से भी न ज़ाहिर होने दो, मज़बूत बन कर रहो, लेकिन यूं कोई मज़बूत होता है क्या? होता भी होगा कहीं, किसी ग्रह पर!

यह भी पढ़ें: 'राजाकन्नू' के दु:ख और योगी के 'खुद कष्ट सहने वाले ब्राह्मण'

यहां तो कुछ नहीं ही होते, कुछ को साफ़ साफ़ सीधा-सीधा पता होता है, उन्हें क्या चाहिए और किसी को नहीं भी पता होता। ...लेकिन ...लेकिन बेचैन होने को भी तो हिम्मत चाहिए और उस बेचैनी को चेहरे/माथे पर लिख कर दुनिया से रूबरू होने की मज़बूती। बाज़ार की नजमा बेचैन है, उसमें बेचैन होने जितनी हिम्मत है। मेरे देखे सिनेमा की सबसे वलनरेबल औरत है नजमा। उसकी वलनरेबल होने और दिखने की हिम्मत सब मज़बूत दिख रही औरतों पर भारी पड़ती है, क्योंकि वे मज़बूत दिख रही औरतें किसी और, बाहरी आग्रह से मज़बूत हैं, दरअसल उनके सामने नजमा तो कोई प्यादा दिखती है, जिसे कुछ भी ठीक-ठीक नहीं पता, ग़लतियों का पुतला लेकिन नजमा अपने अंतर से संचालित है।

उसके आंसू, उसकी नसमझियां, ग्लानिया, इच्छाएँ, जिदें, उम्मीदें, इंकार, ग़ुस्सा सब बहुत आम हैं, किसी एकदम हिंदुस्तानी घरेलू औरत जैसे। वो इतनी असल औरत है कि उसे सिनेमा के पर्दे पर देखते लगता रहा मेरे राज खुल रहे हैं, मेरा खोल उतर रहा है, मेरी ग़लतियां और गलानियां पूरी दुनिया जान जाएगी।

नजमा कोई जादू भरी लड़की नहीं है, उसके पिए आसुओं के नमक ने उसे अंदर-अंदर तक गला दिया और वो गल कर मरने की बजाए उड़न छू हो जाना चाहती थी लेकिन हुई नहीं। नजमा सलीम से प्रेम करती है, लेकिन फ़रार अख़्तर के संग होती है। हालांकि वो कभी कहीं कहती नहीं कि वो सलीम से प्रेम करती है, लेकिन वो सामने होते हैं तो नज़र आता है। शायद वो भी जो उन्हें नज़र न आता हो। जिस औरत को देख कर लगता है उसे प्रेम चाहिए वो आख़िर प्रेम को धत्ता बताकर प्रेम से दूर जा कहां पाती है! नजमा वहीं जाती है जहां जाना हम सब औरतों को कुछ सदियों से सिखाया जाता रहा है- शादी की सुरक्षा के पास, शादी जिसमें आर्थिक सुरक्षा निहित है।

सलीम नजमा को हर उस सुरक्षा का वादा नहीं दे सकता। वो उसे इस घर से आज़ाद करवा देने के हालात में नहीं है और नजमा को अपने घर से आज़ाद होने का शादी के सिवा कोई दूजा रास्ता पता भी नहीं है।

नजमा लौकिक, दैहिक, स्थूल कटघरे तो फांद गयी, लेकिन जिसने अपनी जज़्बाती जद्दोजहद में ख़ुद को होम कर दिया। ये उन औरतो में से है जो आर्थिक रूप में स्वनिर्भर हो कर भी भावनात्मक स्वनिरभरता नहीं पा पाईं। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण अस्तित्व भावुकता में होम कर दिया और ये भावुकता भी आज़ाद नहीं है, इस पर भी सदियों की नैतिकता के कुछ बोझ से मुक्त होती है तो आर्थिक ग़ुलामी में फंस जाती है, इस के चलते ही नजमा सलीम नहीं अख्तर को प्रेमी चुनती है।

यह भी पढ़ें: कैसे बना बिरसा मुंडा भगवान!

कभी सिनेमा में अपनी पसंदीदा औरतों को खोजती हूं, तो बाज़ार की नजमा में उलझ जाती हूं। नजमा को देख मैं न पांव बढ़ा कर आगे निकल पाती हूं, न उसका हाथ थाम कर चल पाती हूं। नजमा मुझे हिंदी सिनेमा कि सबसे मुश्किल औरत जान पड़ती है। वो एक साथ बाग़ी और आज्ञाकारी दोनो है। कमज़ोर नहीं दिखती, फिर भी अजब सी मजबूरी में क़ैद। कमज़ोर और मज़बूत साथ-साथ। अब इसे प्यार करूं न करूं, ये वो है जिसने मुझे औरत पर आधारित सब परिभाषाओं को फिर से समझने और गढ़ने की इच्छा दी।

मैं परेशान रही! सवाल पूछती रही! ये नजमा जो कर रही है, आख़िर क्यों कर रही है? एक घर से भाग कर दूसरे घर में फंस गयी। पितृसत्ता से भाग कर शौहर सत्ता? ये क्या ढूंढ रही है? क्यों नहीं नजमा सलीम का प्यार स्वीकार कर लेती? क्यों अख़्तर के संग फंसी हुई है? क्यों अब अकेली ही रह कर नौकरी नहीं कर लेती कोई! क्यों नहीं बाद ही अख़्तर के घर से सलीम के संग भाग जाती! ऐसे ढेर सारे क्यों हैं, नजमा के साथ।

नजमा को देख कर लगता है जैसे लड़कियों का कोई घर ही नहीं होता। जहां से वो मुक्त हो जाना चाहती हैं। आख़िर उस ही ढांचे में आज़ादी ढूंढती फंस जाती हैं। नजमा को घर की इज़्ज़त का वास्ता देके बेचा जाता, वो अपने घर वालों को तो आंख दिखा कर फ़रार हो गयी लेकिन एक प्यार सी दिखने वाली चीज़ में क़ैद हो गयी, जिसमें भी दरसल तो सौदा ही है। एक छत कुछ कपड़ों लत्तों और रोटी का, किसी आने वाली ज़िंदगी के ख़्वाब का वादा। वो भावी ज़िंदगी वो न अपने घर में ख़ुद बन रही थी, न यहां वो ख़ुद चुन रही है।

ज़िंदगी की इच्छाओं का जो नक़्शा उसके पास है वो भी तो उसका अपना नहीं। मैं उन हालातों में नहीं फंसी, फिर भी नजमा इतनी अपनी लगती है, जितनी खुद की उलझने और मुश्किलें। कहानी की बस सेटिंग बदली है, वो मुझे वो सब सवाल देती है जो ख़ुद से पूछने हैं मुझे। उसके चेहरे में मुझे अपना और अपनी मां का चेहरा दिखायी देता है, अपनी दोस्तों और पड़ोसिनों का चेहरा दिखाई देता है।

अंत में नजमा का बयान। वो गुनाह क़बूलना, वो सख़्त चेहरा! नजमा ने सोचा होगा कि उसकी सी क़िस्मत किसी लड़की की न हो, लेकिन जब तक ये 'बाज़ार' है, तब तक नजमा यूं ही हारती रहेगी। बाज़ार बार-बार जीतेगा और नजमा ख़ुद इस कारोबार में जाने कब हाथ काले कर बैठेगी।

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols