आदिवासियों की दमदार आवाज गाइदिन्ल्यू के फैन हो गए थे नेहरू, कारनामे ऐसे कि जज भी था हैरान-परेशान! 

बागी जोहार की कथाएं!आदिवासियों की दमदार आवाज गाइदिन्ल्यू के फैन हो गए थे नेहरू, कारनामे ऐसे कि जज भी था हैरान-परेशान! 

अर्जुन महर

अर्जुन महर न केवल आदिवासियों के मुद्दों पर लिख रहे हैं, बल्कि पिछले लंबे समय से आदिवासी आंदोलनों के अलावा तमाम सामाजिक आंदोलनों से भी जुड़े हुए हैं। 

इतिहास से जुड़े दस्तावेजों में इतिहासकारों की नजर आदिवासी समुदाय के वीरों और वीरांगनाओं पर क्यों नहीं पड़ी, ये एक लंबी बहस का मुद्दा हो सकता है। स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र होते ही कई नाम हमारे ज़हन में कौंध जाते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं था। फिर भी वे हमारे लिए गुमनाम चेहरे बने हुए हैं। इसी कड़ी में एक नाम है रानी गाइदिन्ल्यू का।

“आवाज़-ए-आदिवासी” नाम सें शुरू हो रही इस सीरीज़ में आज हम रानी गाइदिन्ल्यू (रानी गिडालू) की ही बात करने जा रहे हैं। इसे गाइदिन्ल्यू की लोकप्रियता ही कहेंगे कि उन्हें लोग 'देवी का अवतार' मानने लगे। उन्हें 'देवी चेराचमदिन्ल्यू (Goddess Cherachamdinliu)', 'उत्तर-पूर्व की लक्ष्मीबाई', 'पहाड़ों की बेटी', 'अपने लोगों की रानी' और 'नागालैंड की लक्ष्मीबाई' तक कहा जाने लगा। असल में रानी गाइदिन्ल्यू ने कारनामे ही ऐसे किए थे! जी कारनामे..क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ये करना सामान्य नहीं था।

गाइदिन्ल्यू ने किशारोवस्था में ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विरोध का बिगुल फूंक दिया था। गाइदिन्ल्यू ने आवाज़ उठाकर ना केवल अंग्रेजों से संघर्ष किया, बल्कि ताउम्र अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों को उनका हक़ दिलाने की लड़ाई भी लड़ती रहीं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मणिपुर, नागालैंड और असम के इलाक़ों में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व किया था।

यह भी पढ़ें: रूसी सिनेमा का नया अवतार

रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के तामेंगलोंग (Tamenglong) जिले के तौसेम उपखंड के नुंगकाओ (लोंगकाओ) गांव में हुआ था। वो मणिपुर के ज़ेलियांगरोंग कबीले Zeliangrong Tribe) के तीन कबीलों में से एक रोंगमेई (Rongmei) कबीले से थी। रानी गाइदिन्ल्यू अपने चचेरे भाई हैपोउ जदोनांग (Haipou Jadonang) से काफ़ी प्रभावित थीं। हैपोउ जदोनांग नागा आदिवासी समुदाय के आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थे। हैपोउ जदोनांग ने 'हेराका' (Heraka Movement or Zeliangrong Movement) नामक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की थी। हेराका का मतलब होता है 'शुद्ध'। 

जदोनांग ने नागा आदिवासी समुदाय को एकजुट करने और अपने रीति-रिवाजों एवं आदिवासी धार्मिक मान्यताओं को ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव से बचाने के लिए इस आंदोलन की शुरुआत की थी, लेकिन सामाजिक और धार्मिक सुधार के उद्देश्य से शुरु हुआ यह आंदोलन बाद में एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया।

यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में इसलिए तब्दील हुआ, क्योंकि नागा आदिवासी समुदाय पर लगातार अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। एक पूरा समुसाद शोषण की चपेट में था। नागा इलाकों में ब्रिटिश हुकूमत का हस्तक्षेप भी लगातार बढ़ रहा था। इसी वजह से एक धार्मिक आंदोलन हेराका का लक्ष्य नागा आदिवासी समुदाय का फिर से उत्थान करने का बन गया। हेराका मूवमेंट का मकसद था मणिपुर एवं नागा आबादी वाली क्षेत्रों से ब्रिटिश शासन का अंत कर स्वशासित नागा राज को पुनर्स्थापित करना। अपने भाई हैपोउ जदोनांग के विचारों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर गाइदिन्ल्यू भी महज 13 सााल की उम्र में आंदोलन का हिस्सा बन गई। वो गुष्ठियों में जाती.. अपने भाई को अपने लोगों के लिए दहाड़ते हुए देखती और फिर वो दौर भी आया जब पूरे हेराका आंदोलन की बागडोर ही  जदोनांग की शहादत के बाद गाइदिन्ल्यू के हाथों में आ गई।

क्या था मसला
असल में भारत के कई अन्य इलाकों की ही तरह नागा आदिवासी समुदाय के इलाक़ों में भी जब कोई अंग्रेज अफसर दौरे पर आता, तब गांव के लोगों को अफसर और एसके पूरे अमले के लिए खाना बनाना पड़ता। शोषण सिर्फ यहीं तक नहीं हो रहा था बल्कि अफसरों को मुफ्त में आदिवासी अपने कंधे पर उठाकर जगह-जगह ढोने के लिए मजबूर थे। 

हैपोउ जदोनांग और रानी गाइदिन्ल्यू ने अंग्रेज अधिकारियों द्वारा जबरन हाउस टैक्स लेने और पोर्टर का काम करवाने के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर दी। दोनो के सामूहिक नेतृत्व में आदिवासियों ने इस काम का मिलकर विरोध किया किया और कहा कि वो न तो टैक्स देंगे और न ही पोर्टर का काम करेंगे। हैपोउ जदोनांग के नेतृत्व में आंदोलन आग की तरह आस-पास के क्षेत्रों में भी फैलने लगा। इस आंदोलन को ब्रिटिश अधिकारियों ने चुनौती के तौर पर देखा। भाई-बहनों की इस जोड़ी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। आदिवासियों को भरोसा होने लगा कि उनका नेतृत्व करने वाले हाथों को थामने का वक्त आ गया है। 

फिर लौटा मुखबिर!
इधर आंदोलन बड़ा रूप ले रहा था और उधर जनवरी 1931 में अंग्रेज अधिकारियों को रिपोर्ट मिली कि हैपोउ जदोनांग ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने की योजना बना रहा है। मुखबिर ने यह भी बताया था कि वो स्थानीय लोगों से करों का भुगतान नहीं करने की अपील भी कर रहा है। इस खबर के साथ एक और खबर आई थी और वो यह कि हैपोउ और उसके साथी नागा गांवों में गुप्त बैठकें कर असलाह-बारूद जमा कर रहे हैं। ये खबर ब्रिटिश अधिकारियों के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त थी। बंदूकों के जुटान का सीधा मतलब था सशस्त्र क्रांति की तैयारी, जिसमें आर-पार कितनी लाशें गिरती इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

फरवरी 1931 तक इलाके के सभी ब्रिटिश अफसर इस बात पर सहमत हो गए कि जदोनांग के आंदोलन को स्थायी रूप से दबाना होगा। हैपोउ जदोनांग अपने आंदोलन का और विस्तार कर पाता उससे पहले ही ब्रिटिशर्स ने सरकार विरोधी गतिविधियों का हवाला देकर पहले फ़रवरी 1931 में गिरफ़्तार  किया और फिर गिरफ्तारी के एक महीने बाद 19 मार्च को इम्फाल ले आए।

यहीं 13 जून 1931 को अंग्रेज अफसरों ने एक मुकदमे में हैपोउ जदोनांग को हत्याओं का दोषी घोषित करते हुए फांसी की सजा सुनाई। उस रोज के बाद नागा गांवों में सन्नाटा पसर गया। 29 अगस्त 1931 को जब इम्फाल में हैपोउ को फांसी दी गई, तब कई नागा घरों में चूल्हा नहीं जला।

(हैपोउ जदोनांग;  10 जून 1905 को जन्म और  29 अगस्त 1931 को शहादत)

हैपोउ जदोनांग की शहादत के बाद आदिवासी समुदाय के लोग फिर से हेराका के भविष्य को लेकर जुटे और उन्होंने नेतृत्व के लिए गाइदिन्ल्यू को चुना। एक ऐसी योद्धा जो आगे कई मुकाम हासिल करने जा रही थी। एक ऐसी लड़ाका, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ युद्ध को नई धार देने जा रही थी। जदोनांग की आध्यात्मिक एवं राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में गाइदिन्ल्यू की स्वीकृति के बाद हेराका मूवमेंट फिर से तेज हो गया। शोषण के खिलाफ जो पहली आवाज हैपोउ ने लगाई थी, वो अपना असर दिखाने लगी।

महज 16 साल की उम्र में गाइदिन्ल्यू के हाथों में आंदोलन की कमान आ गई थी। कई चुनौतियां थी, लेकिन नागा आदिवासियों ने गोलबंदी कर ली थी। उन्होंने मिलकर गाइदिन्ल्यू के हाथ इस लड़ाई में और मजबूत कर दिए। वो अब ब्रिटिशर्स के खिलाफ गुरिल्ला वॉर में सीधे उतर आए। वो आते... हिसाब चुकता करते और गायब हो जाते।

बेहद कम उम्र में ही आंदोलन की बागडोर संभालने वाली गाइदिन्ल्यू ने शुरू से ही बेहद आक्रामक रुख अपनाया। उम्र और युवा जोश से आंदोलन को नई ताकत मिली। गाइदिन्ल्यू ने नागा समुदाय के कबीलों में एकता स्थापित कर अंग्रेजों के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कदम उठाए। परिणामस्वरूप कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल हो गए।

गाइदिन्ल्यू अपने आदिवासी समुदाय के धार्मिक रीति-रिवाजों में विश्वास रखती थी, इसलिए आदिवासी क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा कराए जा रहे धर्म परिवर्तन का भी उन्होंने जमकर विरोध किया। गाइदिन्ल्यू हर हाल में अपनी संस्कृति, भाषा, अपनी मिट्टी की रक्षा करना चाहती थी, इसलिए उसने अपने लोगों से कहा- “अपनी संस्कृति, भाषा और मिट्टी को खोने का मतलब होगा, अपनी मूल पहचान को खो देना। हम स्वतंत्र हैं, गोरे हम पर राज नहीं कर सकते।” गाइदिन्ल्यू के तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर आदिवासी समुदाय के लोगों ने उन्हें “देवी का अवतार” और “देवी चेराचमदिन्ल्यू” कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया। एक अतिरिक्त श्रद्धा और सम्मान गाइदिन्ल्यू के साथ जुड़ गया। लोगों के बीच गाइदिन्ल्यू की बातें जादू की तरह काम करने लगी।

गाइदिन्ल्यू ने अपने आंदोलन को भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ दिया। गाइदिन्ल्यू गांधी के विचार से प्रभावित थी, लिहाजा उन्होंने मणिपुर के अलग-अलग इलाकों में गांधीजी के संदेशों को प्रसारित करना शुरू कर दिया। एक तरह से गाइदिन्ल्यू मणिपुर और नागालैंड के कई इलाकों को को शेष भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ रही थी। उन्होंने अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों से अंग्रेजों को कर (Tax) नहीं देने की अपनी अपील जारी रखी। गाइदिन्ल्यू से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोग आंदोलन से जुड़ने लगे और लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत को किसी भी तरह का कर देने से मना कर दिया। 

..और फिर वो सीधे युद्ध में कूद पड़ी
गाइदिन्ल्यू ने 17 वर्ष की उम्र में ही ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकते हुए गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। उसने जो अपने भाई सी सीखा था, उससे बेहतर नेतृत्व किया। गाइदिन्ल्यू ने अपने लड़ाकों के साथ सबसे पहले ब्रिटिश फ़ौज के ख़िलाफ़ एक बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया। गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों की तरफ़ से हुई कार्रवाई के बाद ब्रिटिश फ़ौज ने कई बार उन्हें पकड़ने के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजीं, लेकिन अंग्रेजों को हमेशा निराशा ही हाथ लगी। गुरिल्ला युद्ध में दक्ष गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाके आसानी से बच निकलते थे। 

गाइदिन्ल्यू द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने कई गांवों के लोगों को परेशान किया, लेकिन वे आदिवासियों के हौसलों को ध्वस्त नहीं कर पाए। फिर ब्रिटिश अधिकारियों की तरफ़ से घोषणा की गयी कि जो भी शख़्स या गांव गाइदिन्ल्यू को पकड़वाने में मदद करेगा, उन्हें 500 रुपए नकद दिए जाएंगे और उनसे 10 वर्षों तक कोई टैक्स नहीं वसूला जाएगा। ये एक बड़ा आॅफर था, जो इतिहास में गाइदिन्ल्यू के कद और उनके संघर्ष को दिखाता है। हालांकि, इस घोषणा का अंग्रेजों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ।

गाइदिन्ल्यू वाकई देवी बन चुकी थी। आदिवाासियों की आवाज बुलंद करने वाली देवी, जिससे गद्दारी करने की कोई हिम्मत ही नहीं जुटा सका। ऐसा करने का मतलब होता, सामाजिक तौर पर समुदाय से पीढ़ियों का निष्कासन। 

फौज के छुड़ाए छक्के
फिर असम के गवर्नर ने नागा हिल्स के डिप्टी कमिश्नर जेपी मिल्स (JP Mills) के नेतृत्व में असम राइफल्स की तीसरी और चौथी बटालियन को गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों को पकड़ने के लिए भेजा। गाइदिन्ल्यू एवं उनके लड़ाकों का असम राइफल्स के सैनिकों के साथ 16 फरवरी 1932 को उत्तरी कछार हिल्स (North Cachar Hills) में और 18 मार्च 1932 को हंगरम (Hangrum) गांव में सशस्त्र संघर्ष हुआ। इन दोनों जगह पर असम राइफल्स के सैनिकों को मुंह की खानी पड़ी और वो गाइदिन्ल्यू एवं उनके लड़ाकों को पकड़ने में असफल रहें। एक बार फिर से गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों ने सरकार को करारी शिकस्त दी थी। गांवों में इस जीत का जश्न मना, उन्होंने फौज का परास्त किया था वो भी दो बार!

..और फिर मिला धोखा
अक्टूबर 1932 में गाइदिन्ल्यू अपने लड़ाकों के साथ पोलोमी (Pulomi) गांव में पहुंची। यहां उन्होंने एक लकड़ी के किले का निर्माण शुरू किया। किला निर्माणाधीन था, लेकिन अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई। यह क़िला बनकर तैयार होता, इससे पहले ही 17 अक्टूबर, 1932 को कैप्टन मैकडॉनल्ड (Captain MacDonald) के नेतृत्व में असम राइफल्स की एक टुकड़ी ने पोलोमी गांव पर आक्रमण कर दिया। गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाके इस आक्रमण के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे, इसलिए उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

10 महीने चला मुकदमा, कार्रवाई से जज भी हुआ हैरान
कैप्टन मैकडॉनल्ड ने 17 अक्टूबर 1932 को गाइदिन्ल्यू और उनके लड़ाकों को केनोमा (Kenoma) गांव के पास बिना किसी प्रतिरोध के गिरफ्तार कर लिया। गाइदिन्ल्यू को इम्फाल ले जाया गया, जहां उन पर 10 महीने तक मुकदमा चला। 10 महीने के मुकदमे के बाद रानी गाइदिन्ल्यू को हत्या, हत्या की साज़िश और हत्या के लिए उकसाने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। कहते हैं, सजा सुनाने वाला जज भी उस जांबाज लड़की की शौर्य गाथा का प्रशंसक हो गया था। आखिर उस बच्ची ने ब्रिटिशर्स को जो धूल चटाई थी। प्रशासन ने गाइदिन्ल्यू के ज्यादातर सहयोगियों को या तो मार दिया या जेल में डाल दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि रानी गाइदिन्ल्यू ने जो गुरिल्ला युद्ध शुरू किया था, वो लगभग थम सा गया।

जवाहरलाल नेहरू पहुंचे गाइदिन्ल्यू से मिलने शिलांग जेल
जवाहरलाल नेहरू को गाइदिन्ल्यू के संघर्ष के बारे में पता चला, तो वह उनसे बेहद प्रभावित हुए। 1937 में जवाहरलाल नेहरू ने शिलांग जेल में गाइदिन्ल्यू से मुलाकात की। नेहरू ने गाइदिन्ल्यू को “पहाड़ों की बेटी” कहकर सम्बोधित किया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में उनकी भूमिका को स्वीकार करते हुए उनके अदम्य साहस के लिए उन्होंने गाइदिन्ल्यू को दी “रानी (Queen)” एवं “अपने लोगों की रानी” की उपाधि। इस दौरान नेहरू ने गाइदिन्ल्यू को जल्द जेल से रिहा करवाने का वादा भी किया, लेकिन इसे पूरा होने में लंबा वक्त गुजर गया। आदिवासियों की सच्ची 'रानी' गाइदिन्ल्यू अब कैद थी, जिससे आंदोलन धीरे-धीरे बिखर गया।

नेहरू ने खूब मारे हाथ-पांव
1938 के ऐतिहासिक हरिपुरा अधिवेशन में भी गाइदिन्ल्यू की रिहाई का प्रस्ताव पारित किया गया। नेहरू ने रानी गैडिनल्यू की रिहाई के लिए ब्रिटिश सांसद नैंसी एस्टोर (Nancy Astor) को पत्र भी लिखा, लेकिन भारत के राज्य सचिव (Secretary of State for India) ने उनके अनुरोध को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अगर गाइदिन्ल्यू को रिहा किया गया, तो आंदोलन फिर से भड़क सकता है। भारत की आज़ादी तक जवाहरलाल नेहरू ने रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वो सभी प्रयास विफल रहे।

देश की आजादी और रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई
जब 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, तब नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिन्ल्यू को तुरंत जेल से रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई से पहले उन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों (शिलांग, गुवाहाटी, आइजॉल और तूरा) में काटे थे। रिहाई के बाद वो अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों के उत्थान के लिए कार्य करने लगी। 1953 में रानी गाइदिन्ल्यू तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु से इम्फाल में मिलीं और रिहाई के लिए आभार प्रकट किया। बाद में रानी गाइदिन्ल्यू अपने ज़ेलियांगरोंग समुदाय के विकास और कल्याण से सम्बंधित बातचीत करने के लिए नेहरु से दिल्ली में भी मिलीं।

गाइदिन्ल्यू ने नागा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) का विरोध किया, क्योंकि ये काउंसिल नागाओं के लिए अलग देश की मांग कर रही थी। काउंसिल नागालैंड को भारत से अलग करना चाहती थी, जबकि रानी गाइदिन्ल्यू ने ज़ेलियांगरोंग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग ज़ेलियांगरोंग क्षेत्र की मांग की। एनएनसी से जुड़े लोगों ने गाइदिन्ल्यू का इस बात के लिए भी विरोध किया, कि वो अपने नागा आदिवासी समुदाय से जुड़े रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही थीं।

आज़ादी के बाद नागा कबीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण हालात इतने बिगड़े कि गाइदिन्ल्यू को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत होना पड़ा। 1965 में गाइदिन्ल्यू के समर्थकों ने 9 नागा लीडर्स की हत्या कर दी। इसके बाद भारत सरकार के साथ हुए एक समझौते के बाद गाइदिन्ल्यू 6 साल बाद 1966 में मुख्यधारा में लौट आई। 21 फ़रवरी 1966 को गाइदिन्ल्यू दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिलीं और उन्होंने एक पृथक ज़ेलियांगरोंग प्रशासनिक इकाई की मांग की। आजादी के बाद भी गाइदिन्ल्यू का सामाजिक संघर्ष चलता रहा। वो ताउम्र अपने लोगों के लिए लड़ी।

...और फिर चली गई आदिवासियों की 'रानी'
गाइदिन्ल्यू ने ताउम्र अपने आदिवासी समुदाय एवं क्षेत्र के लोगों को हक दिलवाने के लिए संघर्ष किया। गाइदिन्ल्यू ने ना सिर्फ़ ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष किया, बल्कि आज़ादी के बाद अपने ही समुदाय के अलगाववादियों का भी सामना किया। वर्ष 1991 में वे अपने जन्म-स्थान लोंग्काओ लौट गयीं, जहां पर 78 वर्ष की आयु में 17 फरवरी 1993 को आदिवासियों की यह मुखर आवाज हमेशा के लिए शांत हो गई। अपनी जमीन पर गाइदिन्ल्यू निश्चेत पड़ी हुई थी और उसके आस-पास इकट्ठा भीड़ टूटी हुई थी।

रानी गाइदिन्ल्यू के आंदोलन का मक़सद ज़ेलियांगरोंग लोगों के लिए काम करना था। गाइदिन्ल्यू का मकसद था अपने लोगों को एकजुट कर एक छतरी के नीचे लाना, जो आज़ादी से पूर्व नागालैंड, मणिपुर और असम तक में बिखरे हुए थे। उन्होंने इस सिलसिले में देश के प्रधानमंत्रियों पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक को ज्ञापन सौंपा था, लेकिन उनकी वो राजनीतिक मांग जिसके लिए उन्होंने संघर्ष किया, वो कभी पूरी नहीं हुई। हां, भारत सरकार ने गाइदिन्ल्यू को अलग-अलग वक्त पर राजकीय सम्मानों से जरूर नवाजा और इसमें सबसे महत्वपूर्ण है वर्ष 1982 में  राष्ट्रपति की ओर से 'पद्मभूषण' की मानद उपाधि।

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols