हिमालय को रौंदती सरकारें और भविष्य के खतरे!

हिमालय को रौंदती सरकारें और भविष्य के खतरे!

NEWSMAN DESK

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दुनिया की महफिलों में भारत भले ही पर्यावरण और नदियों के संरक्षण को लेकर दम भरता फिरता है, लेकिन असल में इसकी सरकारें अपनी ही सरहद के भीतर तकरीबन गुमनाम से पड़े हुए इलाकों में बड़े पैमाने पर पर्यावरण की धज्जियां उड़ा रही हैं। उत्तराखंड के भीतर उच्च हिमालयी इलाकों में बार-बार आने वाली तबाहियों से भी भारत की सरकारें चेत नहीं रही हैं, उल्टा द्रुतगति से हिमालय को उजाड़ रही है।

राज्य के सरहदी इलाकों तक पहुंच रही सड़क और रेल के प्रोजेक्ट्स के चलते बड़े पैमाने पर पहाड़ों को काटा जा रहा है, जो कि इस संवेदनशील इलाके की इकोलॉजी के लिए तो खतरनाक साबित हो रहा है। यह जो तस्वीरें हैं, वो नीति-मलारी सीमा हेतु बन रहे राजमार्ग की हैं, जहां सड़क निर्माण का सारा मलबा धौली गंगा नदी में उड़ेल दिया गया है। 

यह अकेले विवादास्पद आॅल वेदर रोड का ही मसला नहीं है, जिसे मानकों के विपरीत जाकर उधेड़ दिया गया है, बल्कि छोटे-छोटे दुर्गम इलाकों की बसावटों की ओर जाने वाली सड़कें भी तबाही लेकर चल रही हैं। सड़क निर्माण के दौरान इस अतिसंवेदनशील हिस्से में जिस ढंग से नियमों की अनदेखी की जा रही है, वह भविष्य के लिए खतरनाक खतरों को धरती की कोख में पालने जैसा है। 

धौली गंगा की इन तस्वीरों की ओर दुनिया का ध्यान राज्य कमेटी भाकपा माले के सदस्य और जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती ने खींचा। अतुल सती का कहना है - 'नीति घाटी में फरवरी महीने की आपदा के बाद बहुत लगातार की बरसात ने खूब नुकसान किया है। इसमें भी अक्टूबर में 17 से 19 तक हुई लगातार बारिश ने सबसे ज्यादा नुकसान घाटी को पहुंचाया है। इन तीन दिनों में उत्तराखंड के कई इलाके तबाही की चपेट में आ गए थे। गढ़वाल से कुमाउं तक सड़कों का जाल ध्वस्त हो गया था और लोगों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा था। इसी बारिश के चलते नीति की ओर जाने वाली सड़क जगह-जगह धंस गई है। पहाड़ियां जगह-जगह लटक रही हैं, जो कि कभी भी नीचे गिर सकती हैं। इसे लेकर इलाके के ग्रामीण चिंतित हैं। पिछले कुछ दशकों में भीषण आपदाएं झेल चुके इस इलाके के लोग, प्रकृति के साथ हो रही इस छेड़छाड़ के नतीजे करीब से देख चुके हैं।' 

अपनी हालिया तस्वीरों को लेकर अतुल कहते हैं- 'नीति के पास धौली नदी में एक जगह छोटी सी लगभग 20 मीटर की एक झील बन गई है। बहुत ही सुंदर नीलवर्णी। देखते ही मोह लेती है। प्रकृति की शान्त घाटी में सुन्दर शांत झील। फिर ध्यान जाता है कि झील बनी क्यों है? तब दिखाई देता है धौली नदी में जगह-जगह डंप हो रहा सड़क निर्माण का मलबा, जिससे नदी का पानी रुक गया है।' इस नदी में जिस जगह झील बनी है, उसके आगे बड़े-बड़े बोल्डरों के साथ मलबे के ढेर नदी में समा रहे हैं। अभी पानी के निकलने के लिए थोड़ी जगह है, तो बहाव बना हुआ है। जैसे-जैसे मलबा खिसक कर नदी की राह रोकेगा, यह झील बड़ी होती जाएगी। एक संभावना यह भी है कि इस जगह पर यदि यह झील किसी तरह बहुत बड़ी न भी हो, तब भी आगे किसी गहरे संकरे गार्ज में यह झील निसंदेह बड़ा आकार ले लेगी और उसके बाद जिस रोज ये टूटेगी, तबाकही बनकर निचले इलाकों से गुजरेगी। अतुल कहते हैं कि इस घाटी में पूर्व में ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं।

क्या है नियम
नियमों के मुताबिक निर्माणदायी कंपनी किसी भी नदी में सीधे मलबा डंप नहीं कर सकती है। सड़क निर्माण के दौरान जगह-जगह डंपिंग जोन बनाए जाते हैं, लेकिन खर्च बचाने के लिए ठेकेदार डंपिंग जोन के बजाय साइट के पास ही मलबा नदी में खिसका देता है। इसके चलते नदी में झाील बन जाती है और जब यह टूटती हैं तो पानी का फ्लो कई गुना बढ़ जाता है, जो कि निचले इलाके की बसावटों के लिए तो खतरनाक होता ही है, सड़कों और पुलों को भी तबाह कर देता है। नदी की अविरलता को रोकना मानको की अनदेखी है।

परियोजनाओं का मलबा लाएगा आफत
पूर्व की आपदाओं ने यह बताया है कि कैसे नदी के किनारे डंप मलबा आपदा की विभीषिका को कई गुना बढ़ा देता है। 2013 की आपदा के बाद गठित रवि चोपड़ा कमेटी की रिपोर्ट में साफ तौर पर इस बात का जिक्र है कि परियोजनाओं के मलबे ने आपदा  के मैग्नीट्यूड को बढ़ाने में मदद की है। ऐसे में धौलीगंगा नदी में बन रही यह झील कल किसी इलाके में तबाही बरपाती है तो, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

दुर्गम ​है इलाका
नीति सुदूर उत्तर में दुर्गम इलाका है। इन दिनों घाटी में बर्फवारी के बाद ठंड कई गुना बढ़ी हुई है। नीति की ओर जाने वाली सड़क पाले (ब्लैक आइस) से सनी हुई है। इस रास्ते पर गाड़ी ले जाना सम्भव नहीं है। यहां अब फौज के सधे हुए चालक ही गाड़ियां लेकर जाएंगे। हिमालय का यह इलाका बेहद संवदेनशील है। इस इलाके में यदि सड़क निर्माण और पर्यावरण का संतुलन नहीं रखा गया, तब भविष्य में प्रकृति इस इलाके में कैसे कहर ढाती है, यह सोचना ही चिंता में डालता है।

घाटी में बने नए लैंडस्लाइड जोन
नीति घाटी की ओर जाने वाली इस सड़क को काटने से इस पूरे मार्ग में जगह-जगह भूस्खलन के नए-नए क्षेत्र विकसित हो गए हैं। कई जगहों पर पहाड़ियों से पत्थर गिर रहे हैं, तो कई जगहों पर गिरने का भय बना हुआ है। इसके चलते कई लोग दुर्घटनाओं का शिकार भी पिछले दिनों हुए हैं। मलारी से आगे पूरा रास्ता चीड़ व देवदार के कटे हुए बेशकीमती वृक्षों से पटा हुआ है, जो जंगलों की तबाही का अलग मंजर पेश कर रहा है। यह क्षेत्र अपनी  जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह इलाका नन्दादेवी पार्क का संरक्षित क्षेत्र है, जो कि विश्व धरोहर के तौर पर संरक्षित किये जाने हेतु संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा मान्यता प्राप्त है।

अतुल बताते हैं कि नीति की ओर जाने वाली सड़क पिछले 8 महीनों में लगभग 2 महीनों से अधिक वक्त तक बन्द रही है। यहां सुविधाओं के नाम पर पहले से मौजूद सड़क को ज्यादा चौड़ाई के चक्कर में जोखिमभरा बना दिया गया है। यह ठीक वैसे ही है जैसे आॅल वेदर रोड पर जगह-जगह नए लैंडस्लाइड जोन बने हैं। 

चीन तक पहुंचने के लिए अपना नाश मारना कैसी रणनीति!
नीति घाटी में जाने वाली सड़क असल में भारत को चीन की सरहद से भी जोड़ती है। चीन ने जहां अपनी सीमाओं तक सालों पहले ही शानदार सड़कों का जाल बिछा दिया था, वहीं भारत ने इस ओर अब ध्यान दिया है। भारत के साथ दिक्कत यह है कि वह इन उच्च हिमालयी इलाकों में निर्माण तो कर रहा है, लेकिन निर्माणदायी कंपनियों का तरीका दूसरी मुश्किलों को पैदा कर रहा है। इससे न केवल भारत के खजाने पर असर पड़ेगा , बल्कि सरहद की ओर जाने वालेी यह सड़क हमेशा जोखिमभरी भी बनी रहेगी। एक्सपट की मानें तब सिर्फ सड़क का सीमा तक पहुंचना ही मकसद नहीं होना चाहिए, बल्कि भारत को स्थाई और टिकाऊ निर्माण को इस संवदेनशील इलाके में प्राथमिकता देनी चाहिए। 

अतुल कहते हैं- 'मलारी से आगे गमशाली की ओर जाते हुए सड़क के नजदीक ही नदी के बाईं ओर बड़ा सा क्रशर लगा हुआ है। ये अकेला क्रशर इस पूरे क्षेत्र की शांति को तबाह करने के लिए काफी है। नीति के करीब ही नहीं बल्कि जोशीमठ से इस ओर बढ़ने पर बम्पा-गमशाली से ही मलबे के नीचे ढेर के ढेर दिखते हैं। नदी का पूरा किनारा मलबे और बोल्डरों से भरा हुआ है। नीति की तरफ बढ़ते हुए नदी ज्यों-ज्यों संकरी हो रही है, मलबे के ढेर के तले नदी के दबने की आशंका और बढ़ती जा रही है। तभी आपको वह झील दिखती है। जिसकी तरफ सीमा सडक संगठन का ही एक सिपाही यह जानते आपको भेजता है कि अरे आप टूरिस्ट हैं, आपने वह झील नहीं देखी तो क्या देखा! जाइये देख आइए! हम पाले से ढकी कांच की सड़क को पार कर वहां पहुंचे। पहले सचमुच उसे देख अच्छा ही लगता है, लेकिन जब नजर मलबे और उस झील का बहाव रोके डंप पर जाती है, तब बड़ी आपदा की तैयारी करने जैसा लगने लगा है।'

बहरहाल, दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर एनजीटी की निगाहें शायद ही यहां तक पहुंच सकें। मानकों की अनदेखी व अनियमितता की ये कहानी कोई नई भी नहीं हैं, बल्कि उत्तराखंड की हर नदी के पास से गुजरती सड़क ऐसी ही कहानियां लेकर बहती चली जाती हैं और एक दिन गुस्से में सबकुछ साथ बहा ले जाती हैं। 

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