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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सिर्फ इस बात से संतुष्ट होकर दिल्ली लौट जाना चाहिए कि 'चलो मौसम तो ठीक मिला!' इसके अलावा लौटते हुए पहाड़ों से सत्ता की उम्मीदें ले जाना, भाजपा के लिए मायूस करने वाला रहेगा। असल में पहाड़ों के भीतर लोग भारतीय जनता पार्टी से खिसियाए हुए बैठे हैं। वो भी, जो कभी उनके अपने होते थे। व्यापारी!
बैक टु बैक नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना की मार झेल चुके व्यापारियों को समझ आने लगा है कि मोदी सरकार आर्थिक नीतियों के मामले में अपने अनाड़ीपन से ही बाहर नहीं निकल पा रही है। पहाड़ों के भीतर छोटे-छोटे बाजारों तक में देहरादून में होने वाली रैली की चर्चाएं तो हैं, लेकिन फिर काम के मामले में उनके पिछले खराब ट्रैक रिकॉर्ड संदेह पैदा कर दे रहे हैं। कारोबार की स्थितियां इतनी खराब हैं कि पहाड़ों से पारंपरिक बड़े व्यापारी लगातार मैदानी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं।
घोषणाओं को भी देखें तो सर्विस सेक्टर में खपे अधिकांश लोगों के लिए ये नई नहीं हैं। जिस एक ऑल वेदर रोड़ का कई-कई टुकड़ों में आज प्रधानमंत्री मोदी लोकार्पण करने जा रहे हैं, वो सड़क हर बरसात में पहाड़ियों की जिंदगी कई-कई दफा लील दे रही है।
ये अजीब है कि एक ही सड़क का कई टुकड़ों में लोकार्पण किया जा रहा है। इसके उलट, ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर कई जगह नए लैंडस्लाइड जोन पैदा हो गए हैं, जो बरसात में नासूर बन रहे हैं। इस सड़क पर अब तक कई लोग बेमौत मारे जा चुके हैं। एक असुरक्षित सड़क, जिसके लिए न केवल गंगा की इकोलॉजी से समझौता किया गया, बल्कि पहाड़ों को भी बेहिसाब बेतरतीब ढंग से काट दिया गया।
पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील हिमालय के हिस्से में मोदी के विकास के 'तथाकथित मॉडल' में भविष्य के गंभीर संकट छिपे हुए हैं। आपदाओं में बढ़ोत्तरी से राज्य की आर्थिकी बुरी तरह चरमरा रही है, ऐसे में सूबे को जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट चाहिए, उसके मुकाबले ये सरकार बूढ़ी और थकी हुई नजर आ रही है। इसी साल की आपदा में कई इलाकों की सड़कें टूट गई, जो कि अब तक नहीं सुधर सकी हैं।
ऑल वेदर रोड़ से इतर राज्य के भीतर सड़कों की हलत बेहद खराब है। अल्मोड़ा से नैनीताल और गरुड़ से कौसानी को जोड़ने वाली सड़कें बदहाल हैं। इन सड़कों पर पर्यटकों की आवक है। गरुड़ बाजार में जब हमने सड़कों की हालत को लेकर स्थानीय निवासी गंगाराम भट्ट से पूछा तो उन्होंने कहा कि उनके इलाके की सारी सड़कों की हालत तकरीबन एक सी है। वो कहते हैं- 'लोग मायूस हैं। एक ही सरकार में तीन मुख्यमंत्रियों को बदल दिया गया है, इसे लोग क्या समझें। पूर्ण बहुमत की सरकार के बावजूद राज्य सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर कुछ नहीं है। अधूरे निर्माण कार्य उपलब्धियों की तरह पेश किए जा रहे हैं। बच्चे बेरोजगार घूम रहे हैं।'
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यही हाल पौड़ी जिले की सड़कों का भी है। चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में तो ऑल वेदर रोड़ ने ही तबाही मचाई हुई है। अव्यवस्थित ढंग से चल रहे निर्माण कार्यों ने पूरे उत्तराखंड को इस वक्त एक उधड़े हुए पहाड़ में तब्दील कर दिया है, जहां कब किसके सिर पर पत्थर आकर गिर पड़े कहा नहीं जा सकता है।
अस्पतालों की खराब हालत, बेरोजगारों की फौज चुनौती
बेरोजगारी और अस्पतालों के हालात ने कोरोनाकाल में सुदूर पहाड़ों के बाशिंदों को भीतर तक हिला दिया है। हालत यह थी कि लोग पॉजिटिव थे और उन तक सामान्य दवाइयां भी नहीं पहुंची। पौड़ी जिले के ही पैडुल गांव में सिर्फ इसलिए कोरोना किट पॉजिटिव रोगियों को नहीं दी गई क्योंकि अस्पताल में वो सारे मरीजों के लिए उपलब्ध नहीं थी। अस्पतालों की बदहाल स्थिति के चलते पहाड़ों में कई लोगों को इस बीच जान गंवानी पड़ी है। सामान्य बीमारियों के लिए भी लोगों को अपनी जेबों से बहुत ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ रहा है, नतीजतन पहाड़ी ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य को लेकर लोग उदासीन हो चले हैं। समय पर इलाज न मिल पाना अब भी पहाड़ों पर बड़ी चुनौती है।
धरातल से दूर योजनाएं
दूसरी बड़ी समस्या बेरोजगारी की मार झेल रहे युवाओं की फौज की है। कोरोनाकाल के दौरान सरकार ने बेरोजगारों को राज्य में रोजगार मुहैया करवाने के लिए विभिन्न योजनाएं तो शुरू की, लेकिन इन योजनाओं का लाभ असल धरातल पर नहीं मिल पा रहा है। घोषणाओं की न तो ठीक से मॉनीटरिंग हो पा रही है, न नियमों को लचीला बनाया जा रहा है।
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इसके उलट सरकार की ओर से वर्कशॉप्स भी नहीं दी जा रही हैं, जिससे युवा स्वरोजगार की बारीकियां सीख सकें। ये एक तरह से खुद ही सबकुछ करने जैसा है, जिसमें आपको अपने लिए बाजार भी खुद तलाशना है। इन योजनाओं का लाभ लेने के लिए बैंकों की शर्तों को पूरा करना भी हरेक के बूते की बात नहीं है।
संविदाकर्मी नाराज, मांगे नहीं मान रही सरकार
सूबेभर में अलग-अलग मोर्चों पर हजारों की संख्या में संविदाकर्मी आए दिन सरकार से नियिमितीकरण की मांग कर रहे हैं। इंजीनियर्स से लेकर पीआरडी के जवान तक सड़कों पर हैं। लंबे समय से सरकारी नियुक्तियों की स्थिति भी खराब चल रही है, जिससे युवा वर्ग भाजपा से नाराज चल रहा है। राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लोग अपनी जायज मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं। ऐसे में मोदी की बातें और ऑल वेदर रोड़ का शिगूफा पहाड़ों के भीतर गांवों में जादू पैदा कर पाएगा, सोचना ही गलत होगा।
2025 में नया उत्तराखंड क्या 'उधड़ा' हुआ होगा!
पिछले दिनों पीएम नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ दौरे के दौरान साल 2025 तक नए उत्तराखंड का सपना बेचा था, लेकिन ये कैसा होगा इसकी कोई रूपरेखा नहीं है। मोदी ने केदारनाथ की ब्रांडिग बड़े पैमाने पर जरूर करवाई है, लेकिन दूसरी ओर उच्च हिमालयी इलाके में बेहिसाब निर्माण को लेकर वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी की हैं। तब मोदी का ये विकास का मॉडल भविष्य के लिए जोखिमभरा नजर आता है। इसके बजाय सूबे में जो नए पर्यटन केंद्रों के विस्तार की बातें कही गई थी, वो अब भी कहीं फाइलों में दबी हुई होंगी।
पूर्व मुख्यमंत्रियों ने साहसिक खेलों की दिशा में जो कदम उठाए थे, वो बंद पड़ गए हैं। 'नमामि गंगे' के फ्लॉप शो के अलावा गंगा और अलकनंदा के तटों पर जगह-जगह बने घाट एक बरसात भी नहीं झेल सके हैं, जो कि सरकार की अपनी ही योजनाओं को लेकर गंभीरता को प्रदर्शित करती हैं।
प्रदेश में भाजपा की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि चुनाव जीतने के लिए प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक को उपलब्धियों के नाम पर यह कहना पड़ रहा है कि पीएम मोदी के नेतृत्व धारा 370 हो या कोरोना संक्रमण की रोकथाम, सभी काम सही तरीके से हुए हैं! अब बताइए जिस धारा 370 के हटने का हाल यह है कि कश्मीर में जनजीवन सामान्य नहीं हो पा रहा है, उससे भला उत्तराखंड को क्या लाभ? या फिर कोरोना संक्रमण के दौरान क्या पूरे देश में बदहाली की स्थिति उत्तराखंड के लोगों ने नहीं झेली या देखी! ये दोनों उपलब्धियां कम और लोगों का गुस्सा बढ़ाने वाली बातें ज्यादा हैं। इसके अलावा ऐसे वक्त में जब दुनियाभर के देश दोबारा से बंद हो रहे हैं, ओमिक्रोन को गंभीरता से लेने के बजाय इस तरह की रैलियां लोगों के जीवन को ही खतरे में ज्यादा डाल रही है।
राज्य के सूरते हाल के आगे तब जनसभा के लिए बसों में भरकर परेड मैदान पहुंचाए गए हजारों लोगों के सामने 18 हजार करोड़ की योजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण करने पर भी क्या हासिल होगा! उत्तराखंड में सत्तारूढ़ भाजपा को चुनावी वैतरणी पार करने के लिए जिस 'मोदी मैजिक' की दरकरार है, उसका जादू तो देशभर में गायब हो रहा है। पिछले पौने दो महीने में प्रधानमंत्री भले ही तीसरी बार उत्तराखंड आ गए हों, लेकिन कोरोनाकाल में गांव लौटे हजारों युवा तो वहीं जम गए हैं! उनके जीवन को गति देने के लिए क्या 'चुनावी जुमलों' से काम चल जाएगा... नहीं! इसीलिए शायद पहाड़ों के भीतर लोग भाजपा के नाम पर बिदक जा रहे हैं।
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