नोम चाॅम्स्की/अप्रैल 1967
अंग्रेजी में जियोनवाद और इजराइली समाज पर विस्तृत साहित्य है, लेकिन इनमें कुछ आश्चर्यजनक भेद हैं। ‘हरित रेखा’ (जून 1967 से पहले की सीमाओं के आधार पर) के अन्तर्गत आने वाली आबादी में सातवां हिस्सा अरब लोगों का है। इधर अमरीकी राजनीतिक विशेषज्ञ, लियोनार्ड किन का कहना है, ‘दुखद है कि राजनीतिक विशेषज्ञों ने इजराइल में बसे अरब के लोगों पर बहुत कम ध्यान दिया है।’ इसमें कहने की कोई बात नहीं है कि अमरीकी समाज वैज्ञानिकों और दूसरे टिप्पणीकारों ने अल्पसंख्यक अरबवासियों की स्थिति के विषय में लिखने से किनारा किया है। इसके विपरीत, सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों के लोकतांत्रिक आदर्शों को स्थापित करने की सफलता को जियोनवाद की महान सफलताओं में शुमार किया जाता है।
हावर्ड के समाजशास्त्री नाथन ग्लेजर, जो गैर-इसाई अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों के विशेषज्ञ हैं और इजराइल और जियोनवाद में खास रुचि रखते हैं, वह लिखते हैं- ‘‘जिस समाज की रचना जियोनवाद द्वारा की गयी है, वह एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, जिसमें सभी लोगों को नागरिक अधिकार दिये गये हैं। फिर चाहे वे किसी भी मूल या धर्म के हों।’’ उनके साथी, राजनीतिक विशेषज्ञ माइकल वॉल्जर लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष राज्य के पक्ष में फिलिस्तीनी प्रचार का यह कहकर उपहास करते हैं कि इस प्रकार का राज्य पुराने फिलिस्तीन में ‘तत्त्व रूप में पहले से ही मौजूद है’, जिसका नाम है इजराइल। इस तरह की टिप्पणियां उदारवादी-वामपंथ की इजराइल पर की गयी टिप्पणियों से भिन्न नहीं है। अरब अल्पसंख्यकों के प्रति इजराइल के धर्मनिरपेक्ष और बराबरी के व्यवहार को सराहा गया है। तथ्यों की अवहेलना करके ही इस प्रकार की धारणा को सही माना जा सकता है।
शायद ‘अवहेलना’ शब्द को पूर्णतः सही नहीं कहा जा सकता। जो लोग इजराइल की ‘धर्मनिरपेक्षता’ का गुणगान करते हैं, वे अपने व्यक्तिगत जीवन पर होने वाले धार्मिक नियंत्रण की तीव्रता से परिचित हैं, कभी-कभी वे धार्मिक संस्थाओं के अतिशय प्रभाव की ओर भी संकेत करते हैं, जो बारीकी के साथ आदर्श से प्रस्थान है। यह सभी जानते हैं कि इस ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश में दो अलग धर्मों के लोग एक-दूसरे से शादी नहीं कर सकते। यहूदी समुदाय में रूढ़िवादी धर्मगुरू, नागरिकों की ‘काली किताब’ के जरिये उन लोगों पर अपने विवाह-कानूनों को थोपते हैं, जिन्हें उनकी पुरानी पीढ़ी द्वारा किये गये ‘पापों’ के चलते शादी करने की अनुमति नहीं दी गयी है। यहूदी राज्य में एक यहूदी के रूप में किसी की पहचान होना कोई छोटी बात नहीं है, जहां कोई रह या काम कर सकता है, यहां तक कि इजराइल की बास्केट बाॅल लीग में खेलने का अवसर भी रूढ़िवादी यहूदी धर्मगुरु के निर्णय पर निर्भर करता है। उन्होंने जो मानदण्ड निर्धारित किये हैं उनके अनुसार या तो व्यक्ति ने धर्मान्तरण किया हो, नहीं तो वे उसकी पिछली चार पीढ़ियों का वंश विषयक ब्यौरा मांगते हैं।
यहूदियों पर यही सिद्धान्त यदि कहीं और लागू होते तो हम, न्यूरेम्बर्ग के इन कानूनों की पुर्नस्थापना की निन्दा करने से नहीं हिचकिचते, लेकिन इसके बावजूद कुछ अमरीकी समाज-विज्ञानियों के अनुसार इजराइल एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। दरअसल, इजराइल धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का कोई दावा भी नहीं करता, और न ही यह नागरिकों के समान अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध है। इजराइली राज्य में ‘इजराइली राष्ट्रीयता’ जैसी कोई चीज नहीं है। यह एक ‘यहूदी राष्ट्र’ है, न कि ‘इजराइली राष्ट्र’।
यहां एक नागरिक यहूदी है, ईसाई है या मुसलमान है, उसकी जिन्दगी धार्मिक संस्थानों और नियमों द्वारा संचालित होती है। इस मामले में इजराइल अपने पड़ोसी राज्यों से भिन्न है, जिन्हें कोई सपने में भी ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ कहने की बात नहीं सोच सकता। सीरिया और जाॅर्डन की बात कर रहा हूं, जो कानूनी तौर पर इस्लामी देश हैं। इजराइल के न्यायालयों के आधार पर, इजराइल ‘यहूदी लोगों का सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र’ है, न कि इसके नागरिकों का। यह ऐसा ही है जैसे सर्वोच्च-न्यायालय ने दावा किया था कि अमरीका ‘श्वेत लोगों का संप्रभु राष्ट्र’ या ‘एंग्लो-सेक्शन लोगों’ का संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है। यह तय करने के लिए कि विशेषाधिकार प्राप्त घेरे में किसे शामिल किया जाये, इसके लिए न्यायालय द्वारा गैर-ईसाई या धार्मिक संस्थाओं की नियुक्ति की गयी। जहां तक लोकतांत्रिक अधिकारों की बात है तब भूमि, रोजगार और सार्वजनिक कोष की उपलब्धता पर पाबंदियों से एकदम हटकर, अरबवासी आज भी ब्रिटिश अधिदेश कानूनों द्वारा संचालित किये जाते हैं, जिन्हें इजराइल की पहली नेस्सेट (संसद) ने ‘एक लोकतांत्रिक राज्य के सिद्धांतों के अनुपयुक्त’ बताकर खारिज कर दिया था।
बावजूद इसके अमरीकी उदार-वामपंथियों और टिप्पणीकारों ने इजराइल को ‘समाजवाद की ओर’ अग्रसर ‘एक तूफानी जनवाद’ जैसी ऊंची संज्ञाएं दी और कहा कि ‘यह हमारे समाजवादी जनतंत्र को उग्र सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक आजादी के साथ जोड़ने के माॅडल के समान ही अच्छा है!’ (इर्विन हाऊ)। हालांकि, इसके पड़ोसी देशों को उनके धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव के मूल सिद्धांतों से लगाव और एक खास समूह के वर्चस्व के कारण दोषी ठहराया जाता रहा है।
मूल्यांकन की इन विषमताओं को और अधिक सामान्य सन्दर्भों में रखकर भी देखा जा सकता है। अमरीकी मीडिया लगातार उन नस्लवादी ‘अरब शेखों’ के द्वारा किये गये उपहास से कलंकित हुआ, जो तेल के दाम बढ़ाकर पश्चिमी सभ्यता को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। इनमें नामी गिरामी ‘अरब शेख’ जैसे ईरान के शाह और वेनेजुएला की सरकार शामिल हैं, जबकि सउदी अरब का शेख यमानी, अपने कारणों से अमरीकी रेखा के निकट सेंध लगाता रहा है। हमने ‘अरबवासियों के दिमाग’ के बारे में विद्वानों की चर्चाओं को पढ़ा, ‘शर्म की संस्कृति’ जिसने अरबवासियों को सच्चाई से दूर रखा। अरब की चाल, छल और हिंसा, अरबी भाषा के भ्रष्टाचार के बारे में सूचनाएं दी गयी, जो सच्चाई से कोसों दूर हैं। यह पचा पाना कठिन है कि कू क्लक्स क्लान के साहित्य के बाहर भी इजराइलियों या यहूदियों पर उन्हीं सन्दर्भों में चर्चा की जा सकती है। इसके विपरीत इजराइल के जनवादी मूल्य, खुलेपन, उच्च सांस्कृतिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों के साथ समानता का व्यवहार और समाजवाद की और उन्मुखता के लिए प्रशंसा की जाती है।
1967 में इजराइली सेना की जबरदस्त विजय के समय से ही अमरीका के अन्धराष्ट्रवादी और कट्टर लोगों की ओर से इजराइल के कट्टर लोगों को एक अनोखा समर्थन मिला है। इजराइल के लिये अमरीका में समर्थन विशेष रूप से उदारवादी बुद्धिजीवियों के बीच उल्लेखनीय रूप धारण कर चुका है। इस परिघटना के कारणों पर बहस भी की जा सकती है, जिसके तथ्य एकदम साफ हैं। यहां तक कि इजराइल द्वारा सामाजिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार के प्राथमिक मूल्यों को तोड़ने पर भी कोई सवाल नहीं उठाये जाते, जबकि यदि कोई सर्वसत्तावादी और दमनात्मक कार्रवाई के खिलापफ प्रदर्शन करता है, तो उसे ढूंढ निकाला जाता है।
पूर्वी यूरोप के सर्वसत्तावादी शासन से त्रस्त लोगों के पक्ष में एक लेख छाप देने से आसान दुनिया का कोई काम नहीं है। हालांकि यह एकदम अलग मामला है, जब किसी अरब मूल के बुद्धिजीवी को उसके घर से या इलाके से बाहर निकालकर फेंक दिया जाता है, या बिना किसी दोष के उसको महीनों के लिए जेल की असहनीय परिस्थितियों में बन्द कर दिया जाता है। अमरीकी इच्छा, स्वतंत्रता-वादियों के मन में इजराइल के खास महत्त्व को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। यह मामला इजराइली लीग द्वारा मानव और नागरिक अधिकारों के लिए किये गये एक रोचक मुकदमे का है। इस मुकदमे में इजराइल और इसके अधिकार क्षेत्रों में जनता पर हो रहे दमन की जांच और कानूनी कार्रवाई करवाने के प्रयास किये गये थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी नागरिक अधिकारों के संगठन द्वारा किया जाता है।
1972 के आखिर में शासन करने वाली लेबर पार्टी ने इस समूह को अपने अधीन करने की कोशिश की थी। एक गुप्त विज्ञप्ति, जिस पर ‘आन्तरिक-छपने के लिए नहीं’ अंकित था, के द्वारा पार्टी के सभी सदस्यों को लीग की बैठकों में लगातार उपस्थित होने, दफ्तर से बाहर इसके नेताओं को वोट देने और इसके क्रियाकलापों को नियंत्रित करने के आदेश दिये गये थे। लेबर पार्टी ने सदस्यता शुल्क का भुगतान भी किया था। न्यायालय ने अपनी साख के आधार पर बैठक के नतीजे की घोषणा कर दी जिसमें इस ढोंग को 'निरर्थक' कहकर रद्द कर दिया गया। हालांकि उनको आवश्यकता थी कि लीग, इस बात को स्वीकार करे कि लोगों को सदस्य बनाने का काम लेबर पार्टी द्वारा किया गया था।
तथ्यतः कोई भी नागरिक अधिकारों का संगठन इस प्रकार की रणनीति अपनाकर लम्बे समय तक नहीं बना रह सकता है, उसे दुनिया के किसी भी देश में निरस्त कर दिया जायेगा। संयुक्त राज्य में प्रतिक्रिया, सामान्य जनता के रूख का संकेत थी। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर जाने-माने इच्छा स्वतंत्रातावादियों ने सार्वजनिक रूप से लेबर पार्टी के इस कृत्य का बचाव किया। (देखें, बोस्टन ग्लोब को पत्र 29 अप्रैल, 17 मई, 25 मई, 5 जून 1973।) न्यू याॅर्क की 'इंटरनेशनल लीग फाॅर द राइट्स ऑफ मैन' ने शासक पार्टी के कार्योे पर एक भी वक्तव्य दिये बिना ही इजराइल की संबद्धता को खारिज कर दिया।
अगला उदाहरण भी इतना ही खास है। उदारवादी बुद्धिजीवियों के बड़े घेरे में इजराइल को लेकर उन्माद के मद्देनजर, शायद इनमें चौंकने वाली बात नहीं है कि जाने-माने और सम्मानित टिप्पणीकार ‘आधुनिक धर्म-निरपेक्ष राज्य’ की बात करें, खासकर इजराइल द्वारा अपने नागरिकों के समान अधिकारों की चिन्ता और अल्पसंख्यक अरबवासियों के साथ अच्छे व्यवहार को लेकर चिन्ता को देखते हुए। वास्तव में ‘यहूदियों के सम्प्रभु राष्ट्र’ में छोटी-सी उम्मीद यह है कि यहां अरब लोगों को कभी न कभी समान अधिकार प्राप्त होंगे। यहूदियों के लिए इजराइल अपनी असमानता और नागरिक अधिकारों के मामले में पश्चिमी लोकतंत्र के समान है, लेकिन अरब लोगों के लिए इस यहूदी राज्य में कोई स्थान नहीं है, सिवाय इसके कि वे मुख्यतः विदेशी लोग हैं।
ठीक उसी प्रकार जैसे यहूदियों की ‘इस्लामी राष्ट्रों में इससे ज्यादा अहमियत नहीं है’। दरअसल, गैर बराबरी वाला ढांचा इजराइल राज्य के न्याय संस्थानों में निहित है। इजराइली समाज का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जो इन मूलभूत भेदभाव के सिद्धान्तों का विरोध करता है या इस पर कोई प्रश्न उठाता है। ..और न ही विश्व जियोनवादियों के लिए यह कोई समस्या है।
‘इजराइल के समर्थक’ अमरीकी, तथ्यों को सिरे से नकारने की सबसे आसान और प्रचलित तकनीक अपनाते हैं। जियोनवादियों का सपना इजराइल को इंग्लैण्डवासियों के इंग्लैण्ड और फ्रांसिसियों के फ्रांस के समान यहूदी राज्य का निर्माण करना है। साथ ही उनका उद्देश्य इस राज्य को पश्चिमी माॅडल का लोकतंत्र बनाने का भी है। तथ्यतः ये दोनों लक्ष्य एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं। फ्रांस का नागरिक फ्रांसीसी है, लेकिन यहूदी राज्य के मामले में यहां का नागरिक अपनी यहूदी नैतिकता व धार्मिक उत्पत्ति या अपनी इच्छा से गैर-यहूदी भी हो सकता है, क्योंकि वह अपने आप को मात्र एक इजराइली ही बताना पसन्द करेगा।
जब तक इजराइल एक यहूदी राष्ट्र है, तब तक यह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं बन सकता। यदि उन पहलुओं पर ध्यान दिया जाये, जिनमें यह राज्य सांकेतिक या न्यूनतम रूप से यहूदी है, तो लोकतांत्रिक सिद्धान्तों से बना दी गयी दूरी को कम किया जा सकता है। इस सबसे इतर इजराइल अपने मूलभूत गुणों में एक यहूदी राज्य ही है। अगर भूमि के उपयोग और विकास के मामले पर गौर करें, जो इजराइल के अरबों के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है, 1948 में अरबों की बड़ी आबादी किसान थी। हरित पट्टी में आने वाली 90 प्रतिशत जमीन पर राज्य अथवा राष्ट्रीय यहूदी कोष 'ज्यूईश नेशनल फंड- जेएनएफ' का मालिकाना है। इजराइली कानून के अन्तर्गत, जेएनएफ ही भूमि विकास प्राधिकरण को नियंत्रित करता है। जेएनएफ ने अपने सरकारी प्रकाशन में अपने आप को ‘इजराइली जमीन के विकास का एकमात्र उपकरण बताया’ है।
इजराइली कानून के द्वारा मान्यता प्राप्त इसकी अपनी नियमावली में जेएनएफ को उन सभी कामों की मनाही है, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यहूदी धर्म, नस्ल या इनमें जन्म लेने वाले लोगों को फायदा पहुंचाता है। वह जमीन जो जेएनएफ के द्वारा अधिकृत की गयी है, अरब लोगों को उस पर रहने और काम करने की अनुमति नहीं है। ये जमीनें यहूदी लोगों द्वारा स्थायी रूप से कब्जा ली गयी हैं, इजरायली लोगों द्वारा नहीं जिनके पास अपने अस्तित्व का कोई प्रमाण (कानूनी) ही नहीं है। जिस सीमा तक जेएनएफ अपने भेदभावपूर्ण सिद्धान्तों को लागू करता है, उसको सीमाबद्ध करना, बहुत मुश्किल है। निश्चित रूप से उनको गम्भीरता से लिया गया। उदाहरण के लिए, इजरायली प्रेस ने बताया कि दस सूत्रीय भूमि व्यवस्था कार्यक्रम पर भारी जुर्माना लगाया गया, जो अरब लोगों को गैर-कानूनी रूप से जमीन लीज पर देने के लिए लगाया गया। जबकि कृषि मंत्रालय अरब लोगों को जमीन लीज पर देने की इस आफत को खत्म करने के लिए एक उत्साही अभियान ले रही है (हारेत्ज 2, 21 जुलाई 1975, मारिव, 3 जुलाई 1975)।
इसी प्रकार विकास की जिम्मेदारी यहूदी एजेंसी को दी गयी है, जो एक अर्ध-प्रशासनिक इकाई है और यहूदियों के हित में सरकारी विकास बजट के अनुरूप कार्य करती है, हालांकि इस प्रकार के साधनों द्वारा राज्य ने भेदभाव को तकनीकी रूप से लागू किये बिना ही संसाधनों को यहूदी नागरिकों के पक्ष में मोड़ दिया- इसी कारण, जैसा बताया जा चुका है, पक्षपात और अन्य भेदभावपूर्ण कार्रवाइयां यहां की न्याय व्यवस्था में रच बस चुकी हैं।
इस तरह के सिद्धान्त और व्यवहार अरब बस्तियों की लगातार प्रवंचना की व्याख्या करते हैं और ड्रूज मतावलम्बियों की भी, जो इजराइली सेना में काम करते हैं। खास तौर से विद्युतीकरण, जल संसाधन और पब्लिक फंड (जन कोष) वितरण के मामलों में। इन घोर पक्षपाती नीतियों को अर्ध-प्रशासनिक इकाईयों द्वारा लागू किया गया, जो यहूदी नागरिकों के हित साधने के लिए समर्पित थीं और इनके टैक्स फंड का बढ़-चढ़कर भेदभावपूर्ण वितरण किया गया। नेस्सेट के सदस्य सुलामित एलोनी द्वारा यह मामला प्रकाश में लाया गया। (देखें, ऐडिमोथ अहरिनोट, 10 अक्टूबर, 1975)
इजरायली धर्म निरपेक्षता के पक्ष में, सामान्यतः यह कहा जाता है कि अरबवासी सरकारी मामलों एवं इकाईयों और जनरल फेडरेशन ऑफ वर्कर्स (हिस्ताद्रूत) में हिस्सा लेते हैं, जो यहूदियों के लिए लम्बे समय से निषिद्ध था। इसमें अब अरब सदस्यों की सदस्यता स्वीकार की जाती है। यह कम ही देखा जाता है कि मंत्रालय या इकाईयां अरब लोगों के कल्याण के कार्य करती हैं, उनमें अरब अधिकारी ही प्रधान होते हैं और हिस्ताद्रूत के कार्यक्रम पूर्णतः यहूदियों को लाभ पहुंचाने के लिए आयोजित किये जाते हैं। हाल ही के एक अध्ययन में इयान एस लस्टीक ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘हिस्ताद्रूत द्वारा खरीदी गयी हजारों फैक्ट्रियों में से एक भी फैक्ट्री या इकाई अरबों के गांवों में नहीं है।’ और यह कि अभी भी हिस्ताद्रूत की अठ्ठराह सदस्यीय केन्द्रीय इकाई में एक भी अरब सदस्य नहीं है। साथ ही इसके द्वारा संचालित उद्योगों के 600 से भी ज्यादा प्रबन्धकों और निर्देशकों में से एक भी अरब नहीं है। (‘‘इन्स्टीट्यूशनलाईज्ड सेगमेन्टेशन’’ मिडल ईस्ट स्टडीज एशोसिएशन सम्मेलन में प्रस्तुत निबन्ध, नवम्बर 1975’’)
इन मामलों पर बात करते हुए यह विचार किया जाना चाहिए कि अमरीका ने हाल ही में एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें जिओनवाद को नस्लवाद का एक रूप कहा गया है। इस प्रस्ताव की संयुक्त राष्ट्र में वैश्विक स्तर पर भर्त्सना की गयी। जो टीकाकार अरब राज्य के नस्लवाद की बात करते हैं, उनके द्वारा प्रस्ताव को ‘एक झूठ’ का नाम दिया गया। यहूदियों और अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव को यह बताकर नकार दिया गया कि यह दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के ‘नैतिक बल’ का पतन होने का लक्षण है। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव की निन्दा करने के पर्याप्त आधार हैं, लेकिन उनके लिए नहीं जो निन्दा यहां की गयी है। इसी प्रकार किसी को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि जो राज्य इस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं, वह किये जाने वाले नस्लवादी व्यवहार से कम दोषी नहीं है।
इस प्रस्ताव में ‘नस्लवादी भेदभाव’ को ‘नस्ल, रंग, पीढ़ी, राष्ट्रवादी या गैर-यहूदी उत्पत्ति’ पर आधारित भेदभाव के तौर पर समझा जा सकता है, जैसा की अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में समझा जाता है। किसी भी व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिओनवाद ने ऐतिहासिक रूप से कई रूप बदले हैं और शुरुआती दौर में इसने किसी भी प्रकार के संस्थागत भेदभाव की निन्दा की जो अब इजरायली राज्य के द्वारा किया जाता है। इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव की विषय-वस्तु तकनीकी रूप से सही है, और ‘नस्लवाद’ के रूप में भी, जिसे हम ‘अरब राज्यों का नस्लवाद’ कहते है।
अमरीका में इन मामलों से जुड़े हुए निरन्तर झूठ के प्रचार और विकृति को केवल शर्मनाक ही कहा जा सकता है। इन्हें पूरी तरह से असहनीय कार्रवाइयों के बचाव में गढ़ा गया है। यदि अमरीकी यहूदियों को सभी ईसाई शहरों से अथवा उन जमीनों से जो अर्द्ध-सरकारी क्रिश्चियन नेशनल फंड द्वारा प्रशासित हैं या विकास कोष, बिजली, पानी इत्यादि से धार्मिक मूल के कारण बाहर निकाल दिया जाये तो कोई भी इसे नस्लवादी आचरण घोषित करने से नहीं हिचकेगा। यदि अमरीकी सरकार ने या विकास की जिम्मेदार कुछ अर्द्ध-सरकारी इकाईयों ने ‘गैलिली के यहूदीकरण’ के मॉडल की तर्ज पर ‘श्वेतों का न्यू यॉर्क’ बनाने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया था, तो वो कुछ अलग प्रक्रिया नहीं थी, जिसे हाल ही में पुनर्जीवित किया गया। इस वाक्यांश को इजराइली प्रेस और ज्यूईश एजेंसी ने बिना किसी टिप्पणी के इस्तेमाल किया और छापा।
मैं अधिकृत क्षेत्र में लागू की गयी नीतियों के विषय में कुछ नहीं बोलता हूं। उदाहरण के लिए गाजा के पश्चिम में, जहां हजारों अरबवासियों को खदेड़ दिया गया और उनके गांव ध्वस्त कर दिये, इस क्षेत्र की भूमि को यहूदियों के हवाले कर दिया गया, जिसमें सहकारी कृषि और केवल यहूदियों के लिए बनाया गया शहर यामित, मिस्र की ओर बनाया गया जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जानी जाने वाली सीमा है, भी शामिल है।
इन क्षेत्रों में अरबवासियों की राजनीतिक कार्रवाइयों और संगठनों का दमन किया जाता है। लोगों को बिना किसी अपराध के खदेड़ दिया जाता है या जेलों में डाल दिया जाता है और सामूहिक दण्ड दिया जाता है। इजराइल में इन कामों के खिलाफ प्रदर्शन हुए। संयुक्त राष्ट्र में दोबारा ‘इजरायल के समर्थकों’ के द्वारा प्रदर्शन में भागीदारी करने की प्रतिक्रिया एकदम अलग है।
भूतपूर्व फिलिस्तीन में से इजरायल के बराबर में गाजा पट्टी और पश्चिम में फिलिस्तीन, दो राज्य बनाने के लिए अन्तरराष्ट्रीय आम सहमति बन रही है। 26 जनवरी, 1976 को यूएन सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को अमरीका के द्वारा मत दिया गया, जिसको हरित रेखा से बाहर ‘स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य’ की स्थापना के लिए रखा गया, जिसमें इस राज्य को ‘सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और क्षेत्र के सभी राज्यों की राजनीतिक स्वतंत्रता, चिन्हित और सुरक्षित सीमा में शान्ति से रहने की गारंटी होगी’। इसमें इजराइल और फिलिस्तीन दोनों राज्य सम्मिलित हैं।
पैलिस्टीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन (पीएलओ) के अन्दर स्पष्ट रूप से इस समझौते के फायदों को लेकर अच्छी-खासी बहस हुई। सार्वजनिक रूप से बहुत से मत सामने आये। साबरी-जरईश उनमें से एक हैं, जिन्होंने दो राज्य बनाने की वकालत की, दूसरों ने इसे नकार दिया। नवम्बर 1975 में मास्को-पीएलओ का संयुक्त वक्तव्य आया, जिसमें फिलिस्तीनियों के लिए ‘राष्ट्रीय राज्य’ की बात कही गयी जो ‘यूएन के प्रस्ताव के अनुरूप’ थी। इसमें समान रूप से उस क्षेत्र के सभी राज्यों की सुरक्षा एवं अखण्डता की बात कही गयी।
जॉर्डन की प्रेस ने यह टिप्पणी की कि जनवरी 1976 सिक्योरिटी काउंसिल के प्रस्ताव पर फिलिस्तीनी प्रतिक्रिया, ‘एक इजराइली राष्ट्र के अस्तित्व के अधिकार की एक स्पष्ट मान्यता’ के रूप में स्थापित करती है और मास्को विज्ञप्ति के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। इजरायल में इस भूमि व्यवस्था और इस कार्यनीति के लिए स्पष्ट समर्थन है। हालांकि, सरकार ने अपने अड़ियल खेमे और किसी राजनीतिक समझौते के पूर्ण बहिष्कार में से किसी को बदला नहीं है, जो फिलिस्तीनियों को राष्ट्रीय अधिकार एवं स्वतंत्रता देता है, और फिलिस्तीनियों के साथ किसी राजनीतिक समझौते को पूर्णतः बहिष्कृत करता है। अमरीका अब अन्तरराष्ट्रीय सर्वसहमति पर विपक्ष में अलगाव की स्थिति में है, लेकिन ऐसा लगता है कि अमरीकी नीति बदल जायेगी। अमरीकी सरकार की ईरान की वर्तमान नीति के प्रति कोई स्थायी प्रतिबद्धता नहीं है, क्योंकि इसका अपना दोहरा लक्ष्य है। पहला, इसके द्वारा कब्जा किये गये महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर नियत्रंण और दूसरा, फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद का खात्मा।
यह एक खुला सवाल है कि क्या कांग्रेस उस महत्त्वपूर्ण सहायता के जारी रखने को मान्यता देगी, जिसका इस्तेमाल इजराइल सैन्य दंगे की स्थिति पैदा कर अपनी अर्थव्यवस्था को बनाये रखने के लिए करता है। हालांकि, यह मामला इस तथ्य से और अधिक जटिल हो जाता है कि मध्य पूर्व द्वारा हथियारों की होड़ से बढ़ी ‘कीमत’ अमरीकी हथियार उत्पादकों के लिए भारी ‘मुनाफा’ पैदा करती है।
कल्पना करें कि एक समय में राजनीतिक और अन्तरराष्ट्रीय समझौते में मिलने वाली उपलब्धि को एक साथ प्राप्त कर लिया गया। यह असम्भव नहीं है, हालांकि एक वास्तविक परिकलन इसकी प्रायिकता को कम आंक सकता है, बनिस्बत सैन्य झड़पों और कभी-कभार होने वाली विनाशकारी लड़ाइयों के। यदि दो राज्यों के समझौते को बाहृय ताकतों के द्वारा थोपा जाता है, (इन दी हुई परिस्थितियों में किसी नयी मशीनरी को जन्म देना बहुत ही मुश्किल है) तब फिलिस्तीन में दो भूतपूर्व राज्य होंगे, एक इजराइल जो क्षेत्र के अनुसार ताकतवर और आधुनिक औद्योगिक समाज है, दूसरा फिलिस्तीनी राज्य जो वास्तव में निर्भरता पर टिका है और इसमें इजराइल-जॉर्डन सैन्य समझौता सम्मिलित है। यह कल्पना करना कपटपूर्ण होगा कि फिलिस्तीनी राज्य अपनी आतंरिक संरचना और व्यवहार में इजराइल का प्रतिरूप है, यदि ऐसा है, तो दो राज्य होंगे, एक कमजोर दूसरा शक्तिशाली और दोनों राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव के सिद्धान्त की नींव पर खड़े होंगे।
सम्भावनाएं ठीक नहीं हैं, फिर भी कोई आदमी यह कह सकता है कि इस स्थिति में इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं है। यह सम्भव है कि शान्ति की परिस्थितियों में भी दमन और भेदभाव की समस्या का सामना ऐसे दो विरोधी समाजों एवं समूहों को करना होगा, जो समाजवादी सिद्धान्तों और सामाजिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस प्रकार के समूह राष्ट्रीय सीमाओं के समान्तर, विशिष्ट रूप से वर्ग के समान्तर सम्बन्ध बनाना चाहेंगे। वे दमनात्मक संस्थानों से मिलकर संघर्ष करने के तरीके निकालने की कोशिश करेंगे और समाजवादी ढांचे के अन्दर ही ऐसे राजनीतिक मंच बनाने की कोशिश करेंगे, जिसे एक समूह के ऊपर दूसरे के प्रभाव के बिना स्वेच्छा से राष्ट्रीय स्तर के फैसले लेने की छूट मिल सके। इस प्रकार के अवसर में वे ऐतिहासिक पूर्ववर्तियों को देख सकते हैं। उदाहरण स्वरूप जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व से पहले फिलिस्तीन की कम्युनिस्ट पार्टी और जियोनवादी आन्दोलन में था।
एक समय था जब जियोनवादी नेता जियोनवाद को लागू करने के विरुद्ध चुनौती दे सकते थे ‘एक पोल राज्य के रूप में, जिसमें अरब लोग यहूदियों की स्थिति में हों और यहूदी, पोल लोगों की परिस्थितियों में आ जायें, जो शासक वर्ग था।’ यह ‘जियोनवादी आदर्श का विकृत रूप था’ (मपाई पार्टी के बर्ल कत्सनेल्सन 1931 में, जो 1948 से वहाँ शासन में है)। यह ‘सम्पूर्ण विकृति’ जियोनवाद की ऐतिहासिक उपलब्धि है। इसी के साथ-साथ पूर्व-यहूदी राज्य में समाजवादी संस्थाओं का विघटन भी जारी रहा, जो अमरीकी बुद्धिजीवियों द्वारा अनुमानित ‘समाजवाद की ओर उन्मुखता’ से एकदम उलट है।
यदि दर्दनाक राष्ट्रीय झगड़े कम होते हैं, तो भी हम इसे राष्ट्रवादी समाजवाद की पुनर्स्थापना नहीं मान सकते। वास्तव में यह वामपंथ-इजराइली, फिलिस्तीनी और अन्तरराष्ट्रीय- का कार्यभार है कि वह अन्त तक लड़े, चाहे दमन, शोषण, भेदभाव और वर्चस्व की ताकतें कितनी भी मजबूत क्यों न हों।
बहुजातीय समाजों में समस्याएं भयानक रूप से जटिल होती हैं। दुनिया के अधिकतर हिस्सों में, उन्होंने सन्तोषजनक समाधान का विरोध किया है, समाजवादी अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का विकास निकट है। वे राष्ट्रीय झगड़ों और युद्ध की परिस्थितियों में जकड़े हुए हैं। दोनों ओर के अंधभक्त सहजता से अपने शत्रुओं के अपराधों की भर्त्सना करते हैं और एक ऐसी काल्पनिक दुनिया की रचना करते हैं, जिसमें उनके पक्ष के समूह ही उनके शत्रुओं के शिकार होते हैं, जो उन्हें तहस-नहस कर देना चाहते हैं।
इजराइल सुरक्षा सम्बन्धी ऐसी समस्याओं को सुलझाता है, जिनको उपेक्षित नहीं किया जा सकता। मेरा मानना है कि 1967 में सरकारी नीतियों ने अप्रत्याशित रूप से राष्ट्रीय संकट उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। समाज का अवलोकन करने वाले लोग इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि फिलीस्तीनी लोग पहले से ही राष्ट्रीय संकट से गुजर रहे हैं। अपने पुराने घरों में वे लोग शोषित अल्पसंख्यक थे और इसके अलावा वे बिखरे हुए शरणार्थी थे। हर जगह असंख्य अपराध हुए। लगातार जारी विवादों ने युद्धरत पार्टियों का भाग्य शाही ताकतों के हाथों में छोड़ दिया, जो हमेशा की तरह अपने शासक समूहों के स्वार्थों के लिए चिन्तित थे। मध्य-पूर्व में अमरीका दूरस्थ, लेकिन एक शासन करने वाली ताकत के रूप में है। जैसा वह द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में था और जिन नीतियों को वह लागू करता है, वे खतरनाक और महत्त्वपूर्ण होती हैं।
बिना मिथकों केो खंगाले हुए हमें कम से कम उन संगठनों और आम सहमति को पहचानना चाहिए, जो राज्य की इन नीतियों को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। कम से कम उन तरीकों को समझ लेना चाहिए, जिससे अपराधी घोषित किये जाते हैं। कुछ ऐतिहासिक क्षणों में वे महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं। फिलिस्तीनियों और यहूदियों के लिए यह बाजी जीवन रक्षा से कम नहीं है। इन दंगों के कारण वहां रहने वाले दूसरे लोग गम्भीर रूप से प्रभावित हुए हैं। उनका भाग्य, यदि वास्तव में हो तो, वे आगे अपने भाग्य को देख सकते हैं जो कि अधिक अस्थायी है। किसी का व्यवहार और वचनबद्धता कुछ भी क्यों न हो, कुछ आधारभूत तथ्यों को जान लेने से उनका कोई नुकसान नहीं होगा।
साबरी जरईश ने कुछ आधारभूत तथ्यों को प्रस्तुत करने का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जो बहुत कम जाना गया था और बहुधा इन्हें जानबूझकर नजरअन्दाज कर दिया जाता था। उनका कार्य सावधानीपूर्वक, सुगठित और न्यायपूर्ण है। उन्होंने केन्द्रीय और महत्त्वपूर्ण उद्देश्य पर कार्य किया, जिसको सामाजिक वैज्ञानिकों और इजराइल राज्य के सम्बन्ध में वृहत साहित्य लिखने वालों द्वारा नकार दिया गया। उनके अध्ययन का 'इजराइल के अरबवासी' नाम से इस नये और अत्यधिक विस्तृत संस्करण के रूप में (मन्थली रिव्यू प्रेस, 1976) प्रकाशन उन लोगों के लिए, जो कि विश्व के ऐतिहासिक तथ्य से आगे जाना चाहते हैं, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराता है। हालांकि उनका अध्ययन जिस प्रश्न से सम्बन्धित है, उसका सम्पूर्ण विवेचन नहीं है, फिर भी यह इन मुद्दों की चर्चाओं और समझदारी को एक नये स्तर तक पहुंचाता है। यदि दो राष्ट्र समझौते की लाइन के गिर्द जिसकी वकालत जरईश ने की है, राजनीतिक सहमति सी है, तो हम आशा करते हैं कि उनका अध्ययन उस भेदभाव और दमन की ओर ध्यान दिलायेगा जो राष्ट्रीय दंगों और युद्ध की तैयारी की हिंसा में घुल-मिल गये हैं।
(नोम चाॅम्स्की के इस लेख का अनुवाद दिनेश प्रखर ने 'गार्गी प्रकाशन' के लिये किया है। यह 'गार्गी प्रकाशन' की किताब 'इतिहास जैसा घटित हुआ' से साभार लिया गया है। यह किताब 50 वर्षों की अवधि के दौरान प्रकाशित लेखों का सकंलन 'हिस्ट्री एज इट हैपेंड' का हिन्दी अनुवाद है, जो सबसे पहले मन्थली रिव्यू प्रेस न्यू याॅर्क से और भारत में काॅर्नरस्टोन पब्लिकेशंस, खडगपुर से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी।)
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