...और फिर एक दिन उस लड़की ने हथोड़े से खुद का डॉगटूथ तोड़ वो हासिल कर लिया, जिसे हम आजादी कहते हैं!

Dogtooth...और फिर एक दिन उस लड़की ने हथोड़े से खुद का डॉगटूथ तोड़ वो हासिल कर लिया, जिसे हम आजादी कहते हैं!

पवन कुमार

पवन कुमार विभिन्न दृश्य माध्यमों के लिए वृत्त-चित्र लेखन, विज्ञापन लेखन, कथा, पटकथा, संवाद लेखन; संगीतकारी व गीतकारी के पुराने खिलाड़ी हैं। इसके अलावा वो कविता, कहानी अनेक विधाओं में विपुल लेखन करते हैं। कुल मिलाकर वो 'हिलांश' के मूल मिजाज के करीब के लेखक हैं। फिलवक्त उन्होंने अपना आशियाना मुंबई में बनाया हुआ है और यहीं से वह अपनी रचनात्मक यात्रा को आगे बढ़ा रहे हैं।

एक दृश्य है जिसमें बाप जवानी की देहरी पर खड़े अपने बेटे के हार्मोनल उबाल को शांत करने के लिए उसे एक लड़की मुहैया करवाता है। जवान लड़के की वासना का नियमित निवाला बन चुकी वो लड़की जब किसी वजह से उस लड़के के पास नहीं आ पाती, तो लड़के की मां उसकी दैहिक भूख को शांत करने के लिए सजा संवार कर उसकी बड़ी बहन को, यानी कि अपनी बेटी को अपने बेटे के बेडरूम में भेजती है।

अगर मैं आपसे पूछूं कि यह मैं किस चीज़ के बाबत बात कर रहा हूं तो आप में से ज़्यादातर कहेंगे कि मैं मर्यादा को तार-तार करती किसी बड़ी ही घटिया पोर्न मूवी के बारे में बात कर रहा हूं। मैं अगर आपको कहूं कि नहीं मैं किसी पोर्न मूवी की नहीं, बल्कि एक बड़ी ही क्लासिक, बेहद ही कलात्मक फ़िल्म की बात कर रहा हूं, जिसे सबों को निर्विकार भाव से देखना चाहिए तो आप शर्तिया मुझे  विकृतिवाद (pervertism) की पैरोकारी करने वाला एक विक्षिप्त इंसान समझेंगे। समझना भी चाहिए अगर कोई ऊपर वर्णित दृश्यों को जायज़ ठहराए तब, पर मैं अब भी अपनी बात पर अड़ा हूं और पूरे होशोहवास, पूरे शददोमद से कह रहा हूं कि अगर आप कुछ अलहदा, कुछ अनोखा देखने के तालिब हैं तो यह फ़िल्म ज़रूर देखिये…। देखिये क्योंकि यह फ़िल्म पिस्सू की तरह आपके मन से चिपक जाएगी...आपको कई-कई दिनों तक आंदोलित करती रहेगी।

कोई शक़ नहीं कि इस फ़िल्म में जमकर नंगापन है, भर-भर कर अंतरंग दृश्य हैं, वो भी अमान्य, अस्वीकृत, अप्राकृतिक पर फिर भी यह फ़िल्म अश्लील नहीं है। यह फ़िल्म अपने तमाम नंगेपन के बावजूद आपके जेनिटल को नहीं बल्कि आपकी रूह को संवेदनशील sensitize करती है। इस फ़िल्म में मौजूद नंगापन शिशु को दूध पिलाते वक़्त अनावृत हुए मां के स्तन सा नंगापन लिये हुए है। उन फैली जंघाओं के नंगापन सा है, जिससे सद्य-प्रसूत बच्चा बाहर निकलता है।

मेरी उपरोक्त दलील भी शायद आपको स्वीकार्य नहीं होगी। भाई बहन के बीच हमबिस्तरी को दर्शाती फ़िल्म, आपको यह सरासर अगम्यागमन (Incest) को बढ़ावा देता एक अनैतिक मामला लगेगा पर मेरा मानना है कि यह Incest नहीं, Accidental Incest का निर्दोष मामला है, बल्कि यह मां-बाप द्वारा आरोपित Incest का मामला है….कैसे, इसे समझाने के लिए कहानी के उधेड़न से पहले मुझे उस मनोवैज्ञानिक यांत्रिकी को समझाने की इजाज़त दीजिये, जिसके गर्भ में ऐसी कहानियों के बीज पल रहे होते हैं।

आपने गौर किया होगा, पेड़ की शाख से चिपका प्यूपा तितली की पौढ़ अवस्था पाते ही अनायास उड़ने लगता है। सवाल यह है कि उसे किस ने उड़ना सिखाया? किसी ने नहीं बल्कि पूर्वजों से हस्तांतरित यह हुनर उसके अवचेतन में छिपा था। अवचेतन को जन्म-मरण की भित्तियों के पार जाकर आपके पूर्वजों से तौर-तरीके उधार लेना आता है। इसी अवचेतन द्वारा गृहीत सीख है कि कछुए का बच्चा समंदर के समीपवर्ती धरातल पर पैदा होते ही दिशा ज्ञान न होने के बावजूद समंदर की ओर चल पड़ता है। अस्तित्व की अपरिहार्यता थी कि आदिम युग में छोटे से कबीलाई झुंड में रहने वाले हमारे पूर्वजों ने खूब सेक्स किया, किसी के साथ भी सेक्स किया। तब किया जब इंसानों के बीच कोई नैतिक दीवार नहीं थी, रिश्ते की कोई सदद नहीं थी। तब सिर्फ़ स्त्री-पुरुष हुआ करते थे, भाई बहन नहीं। फिर मानवीय प्रकृति को महसूस हुआ कि पर्याप्त जनसंख्या हो चुकी है। अब कबीले के पार जाकर भी आदम जात की आपूर्ति की जा सकती है और तब प्रकृति ने लोगों पर परिवार, कुटुम्ब, गोत्र, प्रवर के बाहर जाकर सेक्स करने की अनिवार्यता लाद दी, जिसने इस नियम की अवमानना की उसकी संतति में जेनेटिक दोष दृष्टिगोचर होने लगे।

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कबीलाई परिदृश्य में बहुत पहले जो हुआ करता था उसके हवाले से मैं यह कहना चाहता हूं कि पूर्वजों की यह अगम्य, अगम्या के साथ सेक्स करने की प्रवृति आपकी अवचेतना में अब भी छुप कर बैठी है। यह प्रवृत्ति उन भाई बहनों में भी थी, जो उनके निर्दोषपन के गलियारे से रेंगती हुई बाहर निकली, अनैतिक अभिसार के मुहाने पर पहुंचकर ठिठकी, शायद रुक भी जाती पर तभी उस प्रवृति को उन्हीं के मां-बाप ने धक्का देकर चलायमान कर दिया।

मां-बाप अमूमन अपने बच्चों की इस प्रच्छन्न प्रवृत्ति को बहला फुसलाकर किसी और सृजनात्मक कामों में उलझा देते हैं, पर इस मां-बाप ने इससे ठीक उलट किया। इस मां-बाप के लिए उनका अपने बच्चों पर आधिपत्य बनाए रखना शायद उनको काम-विकृति से बचाए रखने से भी ज़्यादा ज़रूरी था।

एक मुगलिया सुल्तान ने भी यही किया था। वह शानदार मुगलिया खून में मिलावट नहीं चाहता था, इसलिए उसने अपनी शहज़ादियों की शादी पर पाबंदी लगा दी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि महल की चारदीवारी के अंदर क़रीबी रिश्तों में ही ख़ूब व्यभिचार पनपा। याद रखिये सेक्सुअल फीलिंग पीठ पर लदा वो बेताल है, जिससे आप फ़रागत पा ही नहीं सकते, हां आप इसे निकृष्ट से उत्कृष्ट, उत्कृष्ट से उत्कृष्टतम ज़रूर बना सकते हैं। विधिक दैहिक सगागम कर या दैहिक समागम की जगह वैचारिक समागम कर।

वैचारिक समागम उत्कृष्टतम समागम है। इसमें तन, तन से नहीं मन, मन से मैथुन करता है। दैहिक समागम की परिसीमा यह है कि इससे भंगुर देह पैदा होगा जो साठ, सत्तर साल बाद मृत्तिका बनकर खाक़ में मिल जाएगा पर वैचारिक समागम से उत्पन्न विलक्षणकारी तत्त्व शाश्वत बना रहेगा। राम मर गए, पर रामायण आज भी ज़िंदा है। विवेकानन्द मर गए पर उनके दर्शन आज भी ज़िंदा हैं।

दैहिक समागम में कामविकृति का ख़तरा है। निर्दोष बच्चे या बच्चे जैसे निर्दोष युवा इसके मकड़जाल में फंस कर वह कर सकते हैं, जो शायद समाज द्वारा स्थापित मर्यादा की धज्जियां उड़ा दे। ये गुरुकुल, यारी-दोस्ती, घूमना-फिरना, खेल-कूद, कॉपी-क़िताब बच्चों को इस मकड़जाल से दूर रखने की दिलचस्प बंदोबस्ती हैं। यही उत्कृष्ट समागम (वैचारिक समागम) की राह प्रशस्त करने वाले गेटवे हैं, जिधर से गुजर कर इंसान मुनि, मनस्वी, विचारक, वैज्ञानिक जैसी समष्टिगत अवस्था को प्राप्त करता है। फ़िल्म डॉगटूथ में दो बहनें और एक भाई इसी बंदोबस्ती से महरूम हैं। वे सिमटे हुए हैं एक ही घर में… क्यों सिमटे हैं एक घर में? क्योंकि, उनके मां-बाप ने उन्हें वहां महदूद कर रखा है।

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फ़िल्म में दिखाया तो नहीं गया है पर शायद सोशल विथडरॉल, समाज से कटने की शुरुआत सर्वप्रथम इन किशोरों के मां-बाप ने ही की होगी और शायद तब की होगी जब समाज ने इन्हें इम्पोर्टेंस नहीं दी होगी। क्या पता यह दम्पति या शायद सिर्फ़ पति अपने आधिपत्य, अपने वर्चस्व के लिए ज़मीन तलाश रहा हो और समाज ने उसे वह ज़मीन न दी हो...और तब समाज से कटकर इस ज़हनी तौर पर बीमार शख़्स ने अपने घर में ही अपनी सल्तनत बना ली हो! क्या पता अपनी तीन संतानों में वह अपनी संताने नहीं बल्कि अपना महकूक देखता हो!

अतीत का सच जो भी हो पर मौजूदा सच यह है कि इस मानसिक रूप से बीमार दम्पत्ति ने न केवल अपनी तीनों किशोर संतानों की सरगर्मियों का दायरा बांध दिया है, बल्कि उनकी बौद्धिक हदबंदी भी कर दी है। वे किशोर दुनिया से कट गए हैं, जहांदारी से अंजान हैं। उन्हें अपने-अपने भाई बहन के शरीर के अंगों का प्रयोजन भी नहीं पता। मां-बाप द्वारा निर्मित जिस छोटी सी दुनिया के वे जीव हैं, वहां उन्हें बताया गया है या यूं कहिये बरगलाया गया है कि योनि रोशनी पैदा करने वाला एक यंत्र है। उन्हें बताया गया है कि घर की चारदीवारी के बाहर आदमखोर जीव रहते हैं। बाहर सिर्फ़ कार में जाया जा सकता है, वह भी तभी जब जबड़े से डॉगटूथ (रदनक दंत) टूटकर निकल गया हो।

यह डॉगटूथ वाली अहर्ता सिर्फ़ इन तीन भाई-बहनों के पिता को प्राप्त है, इसलिए सिर्फ़ वही बाहर जाया करते हैं। घर में महदूद ये तीनों भाई बहन घर की हद को बस पत्थर फेंक कर लांघा करते हैं। उनके फेंके पत्थर से उनका मन लिपटा है, उनकी जिज्ञासा लिपटी है.. जो घर की परिसीमा लांघ कर बाहरी दुनिया देखना चाहती है। यही जिज्ञासा जब कभी सर के ऊपर कोई हवाईजहाज उड़ता देखती है, तो कामना करती रहती है कि हवाई जहाज उनके लॉन में गिरे। एरोप्लेन मेटाफर है, एक ऐसी आज़ादी का जिन्हें इन किशोरों ने कभी नहीं भोगा। इसलिए वे चाहते हैं कि एरोप्लेन क्रैश होकर उनके लॉन में गिरे और जब-तब उनके लॉन में एरोप्लेन गिरता भी रहता है। गुजरते हवाई जहाज की आवाज़ के साथ साम्य स्थापित कर छोटे खिलौने रूपी हवाई जहाज फेंकने वाली यह औरत है, इन तीन भाई बहनों की मां जो अपने इस खेल से तीनों भाई बहन की जिज्ञासा को छदमी आलम्ब देती रहती है।

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यह औरत और उसका पति इसी तरह से अपने बच्चों की दैहिक ज़रूरत को भी छदमी आलम्ब देते रहते हैं। इस आलम्ब की पहली बंदोबस्ती है किराए पर बाहर से लाई एक लड़की, पर वही लड़की जब इन तीन जीवों के सामने बाहरी दुनिया का उद्भेदन कर उनके तजस्सूस (Curiosity) को बढ़ाने लगती है, तो उसे बुलाने के सिलसिले को रोक दिया जाता है और किशोर की अकुलाती वासना को परोस दिया जाता है उसी की बड़ी बहन का जिस्म। औरत और उसका पति जानते हैं कि भूख, मनोरंजन, सेक्स ये चंद ज़रूरतें हैं, जो उनके बच्चों को सरकशी के लिए उकसाकर उनसे घर की हदें टपवा सकती हैं और इसलिए वे अपने बच्चों को किसी भी तरह निरन्तर ये चीज़ें परोसते रहते हैं।

अपने बच्चों को हदों में बांधने के लिये ये उनको डराने वाला पैंतरा भी खेलते हैं। उनके द्वारा बताए गए बाहरी दुनिया के आदमखोर जीव ऐसा ही एक पैंतरा है। इस दम्पति ने अपने बच्चों को डराने के लिए एक झूठी कहानी भी रच रखी है। बक़ौल उनके, उनका एक बेटा अपनी दुस्साहस की कीमत अपनी जान देकर अदा कर चुका है। घर की सीमा के पार के भयानक जीव बिल्ली ने उसे मार डाला है। उन किशोरों को भी वो मार डालेगी अगर जो कभी वे घर की हद के बाहर गए।

उनके झूठ में उनके बच्चों की दुनिया सिकुड़ती चली जाती है, पर उसी झूठ में इस दम्पति की मर्ज़ी को पांव पसारने की पर्याप्त जगह मिल जाती है। यही झूठी कहानी उनके सेक्स के नतीजे के तौर पर होने वाले भावी बच्चे और उनके द्वारा गुपचुप बाहर ट्रेन किये जा रहे कुत्ते को भी प्रश्रय देती है, जिसमें यह दम्पति अपने बच्चों को कहता है कि उनकी मां को एक कुत्ता और एक आदमी का बच्चा पैदा होने वाला है।

इस संकुचित संसार में इन किशोरों के अस्तित्व को इतना घोंटा जा रहा है कि वे भूल गए हैं कि वे आदम जात हैं। वे खाना, पीना, सेक्स, मनोरंजन सब रिचुअल की तरह करते हैं। वे कुत्तों जैसा भूंकते हैं, लकीर से बाहर पांव भी नहीं रखते, पर उन भाई बहनों में से एक है जो अपनी जीभ से बाहरी दुनिया से आई एक आज़ाद लड़की का मन चाट चुका है। वह मन बाहरी लड़की की योनि से चस्पा था। उस मन को चाटने के एवज़ में घर में महदूद इस लड़की को मिला था, बाहरी दुनिया का हल्का सा आस्वादन। वह आस्वादन कोढ़ की तरह फ़ैल कर लड़की के पूरे वजूद को अपनी चपेट में ले चुका है। लड़की अब बाहर जाना चाहती है। बाहर जाने की शर्त है डॉगटूथ (रदनक दंत) का टूटना और इसलिए लड़की हथोड़े से अपना डॉगटूथ तोड़ डालती है और कार की डिक्की में छिप कर बाहर निकल जाती है।

पत्थर में बोए बीज की तरह का आदम जात

बाहर जो निकली है वह है फोर्बिडन फ्रूट को चखने को लालायित आदमी की नैसर्गिक प्रवृति। आदिम युग से आदमी अपनी इसी प्रवृति के बदौलत आदमी के तौर पर दर्ज होता रहा है। घर की हदों के अंदर दो भाई-बहनों के रूप में जो पीछे रह गया है वह भी आदम जात ही है, पर पत्थर में बोए बीज की तरह का आदम जात जिससे कुछ प्रस्फुटित नहीं होगा। न जीवन, न जीवेषणा। फ़िल्म के अंत में हम लकीर पर खड़े कुत्ते बनकर भौंकते दो किशोरों को देखते रहते हैं। हम कार की डिक्की को अपलक देखते रहते हैं, जिसे खोल कर कभी भी बाहर निकल सकती है सरकशी तेवर वाली लड़की और भाग सकती है अपने मन की सप्तवर्णी तितली के पीछे।

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क्लाइमेक्स के ये दोनों दृश्य सीने को बुरी तरह धसका रहे हैं। सीना एक नामालूम दर्द से लरज़ रहा है। नंगेपन को देखने के बावजूद शरीर के किसी भी तंतु में वासना की कोई नीली कौंध नहीं। अगर होती तो भी नई और गहरी सोच को उद्वेलित करती ऐसी फ़िल्म देखने से मैं चूकता नहीं। आप क्या करते? शायद ये पूछना ज़्यादा मुनासिब होगा कि आप क्या करेंगे? अपनी शुचिता को ख़तरे में डाल कर क्या आप यह फ़िल्म देखेंगे?

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