तूफान: एक औसत फिल्म जिसमें 'लव-जिहाद' और 'बॉक्सिंग' दोनों जबरन ठूंस दिए गए हैं!

तूफान: एक औसत फिल्म जिसमें 'लव-जिहाद' और 'बॉक्सिंग' दोनों जबरन ठूंस दिए गए हैं!

फिल्मी पांडा

फिल्मी पांडा कोई शख्स नहीं, बल्कि लेखक का किरदार भर है, जो अक्सर उम्दा सिनेमा को ग्रहण करने के बाद जिंदा हो उठता है। नतीजतन कुछ किस्से या समीक्षा की शक्ल में चीजें हासिल होती हैं।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फरहान अख्तर की जोड़ी ने जब 'भाग मिल्खा भाग' के बाद 'तूफान' की घोषणा की, तब सिनेप्रेमियों को एक उम्दा फिल्म की आस जगी थी, लेकिन अफसोस मेहरा ने अपना पिछला रिकॉर्ड बरकरार रखते हुये एक बार फिर से औसत दर्जे की फिल्म ही पेश की है। ऐसा लग रहा है कि 'भाग मिल्खा भाग' के बाद डिरेल हुई राकेल ओमप्रकाश मेहरा की रेल को अभी पटरी पर लौटने के लिये लंबा इंतजार करना होगा। मेहरा और फरहान ने 'तूफान' में वो सबकुछ करने की कोशिश की, जो पारंपरिक हिंदी फिल्मों में होता है, बावजूद इसके वो एक सशक्त कहानी को नहीं बुन पाए और एक काल्पनिक बॉक्सर की ही तरह पूरी फिल्म की पटकथा किसी भी मोड पर भरोसा नहीं जगा पाई।

'तूफान' न तो दर्शकों में बॉक्सिंग का रोमांच जगा सकी, ना ही 'लव जिहाद' के मुद्दे पर ही ठोस ढंग से बात रख पाती है। ऐसा लगता है कि इस लोकप्रिय जोड़ी ने 'तूफान' को जबरन बुनकर दर्शकों को परोस दिया। फिल्म शुरुआत से ही लय खोने लगती है और एक बिंदू पर पहुंचकर भयंकर नीरस होने लगती है। एक तरह से कहें तो यह फिल्म 90 के दशक की उन बोरिंग मसाला फिल्मों जैसी है, जिसमें एक खडूस बाप है, उसकी बेटी है और दूसरे धर्म से ताल्लुक रखने वाला एक प्रेमी है। ​फिल्म का क्लाइमेक्स न केवल प्रिडिक्टेबल है, बल्कि 'तूफान' जैसी कहानी को बीसियों दफा हिंदी सिनेमा नये रैपर के साथ पेश कर चुका है। फिल्म के गाने अपना असर नहीं छोड़ पाते और विजय राज, सुप्रिया पाठक, दर्शन कुमार और मोहन अगाशे को जैसे जाया किया गया हो। 

क्या है कहानी
फिल्म की कहानी को अंजुम राजाबली, विजय मौर्य और फरहान अख्तर ने मिलकर लिखा है। फिल्म एक ऐसे शख्स अजीज अली आका अज्जू भाई के इर्द-गिर्द घूमती है, जो गुंडा है। अजीज (फरहान अख्तर) अनाथ है और उसकी परवरिश एक गुंडा जफर (विजय राज) करता है। अजीज इलाके में अज्जू भाई के नाम से मशहूर है, जो जफर का वसूली का धंधा संभालता है। एक रोज अज्जू की मुलाकात अस्पताल में डॉ. अनन्या प्रभु (मृणाल ठाकुर) से होती है, जो उसका इलाज करने से सिर्फ इसलिये मना कर देती है क्योंकि अज्जू गुंडागर्दी करता है। अब अज्जू को चाहिये फुल इज्जत और वो कहां मिलती है! इज्जत का ठिकाना बताता है मर्चेंट भाई और अज्जू पहन लेता है बॉक्सिंग ग्लव्स। अब दिक्कत यह है कि अज्जू को बनना है मुहम्मद अली सरीखा, लेकिन उसके लिये चाहिए कोच.. तो ऐसे होती है नाना प्रभु यानी कि परेश रावल की एंट्री।

नाना को मुस्लिमों से खुंदस है, जैसे इन दिनों भक्तों को होती है। नाना को लगता है कि पूरी कौम ही खराब है। वो शुरुआत में अज्जू को भाव नहीं देता, लेकिन फिर हीरो का डेडीकेशन देखकर राजी हो जाता है। शर्त रखी जाती है कि धंधा छोड़ना होगा... हीरो इसके लिये तैयार है। क्योंकि हीरो को चाहिये फुल इज्जत...!  इधर धीरे-धीरे अज्जू और अनन्या करीब आने लगते हैं। नाना अज्जू को तराशकर बना देता है भयंकर बॉक्सर... हालांकि दर्शकों को वो मजा स्क्रीन पर नहीं मिल पाता और मैच के दौरान के सींस इतने बुरे हैं कि रोंगटे तो छोड़िए बीच फाइट में आपको जम्हाई भी आ जाए तो इसमें मैं चौकूंगा नहीं।

खैर, सब ठीक चल रहा है... अज्जू का जलवा टाइट है और इसी दौरान एक रोज मस्त मूड में नाना पूछ लेता है अज्जू की प्रेमिका का नाम! अब सारी कहानी यहां हो जाती है खराब... पता चलता है कि अज्जू तो नाना की बेटी को ही डेट कर रहा है। नाना, अज्जू को गरियाता है और घर पहुंचकर बेटी के भी चांटा जड़ देता है। वजह वही, बंदा मुस्लिम है और नाना को पूरी कौम से दिक्कत है। नाना का अपना पास्ट है। उसकी पत्नी एक बम धमाके में मारी गई, लिहाजा उसे मुस्लिम सिर्फ टेरेरिस्ट लगते हैं। 

यहां अज्जू, अनन्या से इस बात पर नाराज हो जाता है कि उसने कभी बताया क्यों नहीं कि वो नाना की बेटी है। अनन्या अपना घर छोड़ अज्जू के पास रहने चली आती है। एक डॉक्टर और एक बॉक्सर आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, उन्हें कोई घर देने को राजी नहीं... धर्म का छौंका यहां भी लगा है। इस बीच एक मैच में हारने के लिये अज्जू को 12 लाख ऑफर किये जाते हैं और अज्जू की बॉक्सिंग पर 5 साल का प्रतिबंध लग जाता है। इस बीच अज्जू और अनन्या एक बच्ची के पैरेंट्स बन चुके हैं।

अज्जू नौकरी कर रहा है और उसने तोंद बढ़ा ली है। तोंद, हीरोइज्म के लिये यहां जरूरी एलीमेंट है, जैसे 'सुल्तान' में सलमान की बढ़ गई थी। भद्दी सी तोंद... तभी तो हीरो के कमबैक पर मजा आएगा! हालांकि, यहां हीरो के कमबैक पर भी वो मजा नहीं आता। थोड़ा पीछे चलते हैं। अनन्या, अज्जू का लाइसेंस लेकर फेडरेशन से लौटते हुये एक हादसे का शिकार हो जाती है और अज्जू को वापस रिंग में उतरने की वजह मिल जाती है। फिर वही... हीरो जीतता है, रूठा बाप मान जाता है और अंतिम मुकाबले में जब हीरो हार रहा होता है... हिंदी फिल्मों का एक क्लीशे शॉट यहां जुड़ता है। अरे बाबा! हीरोइन का चेहरा हीरो को दिखता है और वह हारी हुई बाजी को प्रतिद्वंदी पर ताबड़तोड़ वार कर जीत जाता है। खालिश, हिंदी सिनेमा का यही तो आनंद है... अज्जू को चाहिए थी खोई हुई इज्जत, जो निर्णायक पंच के साथ हासिल हो गई। दर्शकों ने ऐसा एज्यूम कर लिया और कहा शुक्रिया कि फिल्म खत्म हुई भाई। ये लिखने में भी मुझे आनंद नहीं आ रहा, लिहाजा कहानी यहीं खत्म।

कैसा है डायरेक्शन 
अव्वल तो फिल्म की कहानी ही उबाऊ है और रही-सही कसर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने निकाल दी। एक औसत कहानी को लेकर पर्दे पर उतरने का जोखिम मेहरा ने क्यों उठाया, यह बात समझ से परे है। फिल्म के कई सींस इतने बुरे ढंग से शूट किये गये हैं कि डायरेक्टर पर संदेह होने लगता है। मसलन एक सीन में अज्जू जब जफर से काम छोड़ने की बात कहता है, तो जफर का रिएक्शन बचकाना लगता है। ये वो सीन है जहां एक ही फ्रेम में फरहान अख्तर और विजय राज जैसे मंझे हुये अभिनेता हैं। सींस पर ठीक से काम नहीं किया गया है और ऐसा लगता है कि फरहान के किरदार के अलावा डायरेक्टर ने बाकी किरदारों को अपने असिस्टेंट के भरोसे छोड़ दिया। या थोड़ा घुमा लीजिए... फरहान ने कहानी में हस्तक्षेप कर सबके रोल सिर्फ नामभर के बना दिये। सिर्फ अज्जू भाई और उसकी बॉक्सिंग...सबसे बुरा लगता है मोहन अगाशे, दर्शन कुमार, विजय राज और सुप्रिया पाठक को देखकर, जिन्हें जाया कर दिया गया। इन सितारों को खानापूर्ति के लिये रखा गया है।

क्या करें!
घर की दीवार पर धागे से बताशे लटकाकर निशाना लगाने का ढोंग कीजिये, जैसे अज्जू आका फरहान ने दर्शकों के साथ किया है। मौज कीजिये... इस बोझिल फिल्म को देखने से बेहत्तर है सोशल मीडिया पर राकेश टिकैत के अंजना ओम कश्यप को दिये गये करारे जवाब देखिए। आनंद आएगा.. 

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