जया पेशे से पत्रकार हैं। जमकर फिल्में देखती हैं और मन करता है तो तसल्ली से लिख मारती हैं। फिल्म देखते हुए उनके भतर कुछ-कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता है, नतीजतन वो अपनी बात तपाक से रख देती हैं! जया फुर्सत पाते ही फिल्मों पर 'हिलांश' के लिए लिख मारेंगी..
हाल ही में उमेजन प्राइम पर 'दि ग्रेट इंडियन किचेन' से गुजरी। केरल के निर्देशक जिओ बेबी की यह फिल्म जब मलयाली भाषा के ओटीटी प्लेटफॉर्म नीरो स्ट्रीम पर रिलीज हुई तो उसे मीडिया में मिल रहे कवरेज को देख कर बड़ी हैरानी हुई कि किसी नये नवेले प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने वाली किसी फिल्म की इतनी चर्चा हो रही है! जैसा कि नाम से ही जाहिर है ये फिल्म एक औरत के रसोईघर और घर के दूसरे कामों के इर्द-गिर्ट सिमटी उसकी जिंदगी की बारीक सिनेमैटोग्रैफिक व्याख्या है.
इसकी पैन इंडियन पॉपुलैरिटी के पीछे ये एक अहम वजह है. फिल्म की अभिनेत्री सुनयना हैं. मलयाली मूल की इस अभिनेत्री का अभिनय देखते हुए फिल्म का एक बड़ा हिस्सा गुजर जाता है और पता भी नहीं चलता कि केरल के किसी कस्बे की पारंपरिक कुलवधू की भूमिका निभा रही ये लड़की खाना पकाना, सफाई करना और घरेलू काम-काज के अलावा भी कभी कोई काम अपनी ससुराल में आने से पहले करती रही है.
बीच-बीच में उसकी डांस क्लास की सहेलियों के आमंत्रण और कुछ और शॉट्स से ये जाहिर होता है कि इससे पहले वो डांस क्लास जाती रही है. धीरे धीरे स्टोरी खुलने के साथ ये भी पता चलता है कि वो इतने घरेलू काम दिन-रात निबटाने के बावजूद घर से बाहर जाकर स्कूल में डांस सिखाने की ख्वाहिश रखती है. घर के पुरुष मालिकों यानी उसके ससुर और पति को उसकी ये हसरत सही नहीं लगती.
फिल्म की सबसे खास बात है उसके घर के सभी सदस्यों का बेहद ठंडेपन के साथ, बिना किसी प्रत्यक्ष मौखिक या शारीरिक हिंसा के घर की नयी बहू को लगातार ‘सेकेंड सेक्स’ के रूप में प्रशिक्षित करते जाना. नयी बहू से घर के पुरुष सदस्यों की एक ही अपेक्षा है कि वह बगैर किसी वास्तविक संवाद या घर के निर्णयों में सक्रिय भागीदारी के घरेलू स्त्री की अपनी पारंपरिक भूमिका निभाती रहे.
इस भूमिका में घरेलू काम के अलावा रात में पति की शारीरिक जरूरत को पूरा करना और स्वामी अयप्पा की भक्ति करते हुए निभाये जाने वाले धार्मिक कर्मकांड या माहवारी के दौरान ससुराल में बने पारंपरिक नियमों का पालन करना भी है. इन सबके बीच उस स्त्री को कैसा महसूस हो रहा है, वह क्या चाहती है, उसकी महत्वाकांक्षायें क्या हैं, जरूरतें क्या हैं, उसको ससुराल में हो रही असुविधा के बीच उसका ख्याल करने वाला, उसे सुनने वाला, उसकी पसंद-नापसंद की परवाह करने वाला ससुराल में कोई नहीं है.
दरअसल ये घरेलू माहौल इतना पैन इंडियन है कि भारत के लगभग अधिकांश परिवारों में कोई भी भारतीय महिला बिना धर्म, जाति, संप्रदाय या भाषा, राज्य और संस्कृति के अंतरों के अपने-अपने परिवारों में रोज़ ही महसूस करते हुए बड़ी होती है. शादी के बाद हर स्त्री को अपने ससुराल में लगभग इतने ही मामूली और निर्दयी ठंडेपन के साथ एडटस्ट करना या समझौते करते हुए अपनी जिंदगी आगे बढ़ाना सीखना पड़ता है. हमारे परिवारों में लगभग हर कहीं बहुओं के रूप में ससुराल आने वाली महिलाओं से यही अपेक्षायें की जाती हैं कि वे इससे पहले की अपनी पूरी जिंदगी, प्राथमिकतायें, पसंद-नापसंद, अपना सेंस ऑफ ह्यूमर, अपनी असहमतियां, अपनी आपत्तियां या सबसे बढ़ कर अपनी महत्वाकांक्षायें ठंडे बस्ते में बंद कर कहीं पीछे छोड़ आयें.
'दि ग्रेट इंडिय़न किचेन' जो कहानी कहती है, वो इतनी सिंपल विजुअल डिटेलिंग के साथ कहती है कि घरों में स्त्री के रूप, सेविका का किरदार और कुर्सी या बिस्तर पर औरत के श्रम का पल-पल उपभोग करते हुए पुरुष के मालिक होने का आभास, एकदम पुख्ता होकर दिल में उतरता है और दर्शक को बिल्कुल असहज कर देता है.
इस डिटेलिंग के बाद भी फिल्म में जड़ता नहीं आती क्योंकि औरत का कैरेक्टर रिबैलियस है, वो घर की चाहरदीवारियों से समझौता करके घर के अंदर सिमटने के बजाय, एकदम मजबूत कदम उठाते हुए ना केवल उस घर को छोड़ती है बल्कि घरेलू औरत की जिंदगी को कचरे से ऊपर ना उठने देने वाले घर के पुरुषों के सबसे हौलनाक सपने को सच कर देती है. स्वामी अयप्पा की आराधना करने वाले पुरुष उस गंदे पानी की बदबू को ग्लास में चाय समझ कर केवल एक बार में ही घर की बहू को उसकी औकात बताने के लिये मालिक बन कर बन कर उस पर झपटते हैं, तो इस फिल्म का सबसे रोमांचक दृश्य (क्लाईमेक्स) आता है और घर के पुरुषों से कोई सहानुभूति नहीं होती, लगता है कि वो यही डिजर्व करते थे.
यहां तक फिल्म बहुत दमदार है, शानदार है, अपनी हर डिटेलिंग के साथ बेहद भव्य भी जो साधारण जिंदगी में मौजूद सादगी और लंपटता दोनों को एक साथ रेखांकित करती है. फिल्म का अंत घर छोड़ कर एक डांस स्कूल में बच्चियों को डांस सिखाने एक दृश्य के साथ होता है. यहीं इस फिल्म का अंत आज की औरत की कांप्लेक्स जिंदगी को पकड़ने के लिहाज से मुझे बेहद कमजोर लगा.
प्यार, बराबरी, सम्मान के लिये शोषण के घरेलू जाल को काटकर निकली औरत जब बाहर की दुनिया में अपने कदम रखती है तो क्या उसके लिये अपने मन की जिंदगी जीना इतना आसान होता है, कि एक नौकरी पाने से वो सब कुछ पीछे छूट जाये. 'दि ग्रेट इंडियन किचेन' यहीं खत्म हो जाती है लेकिन इस कहानी को आज के समय में इस तरह से खत्म करना, एक मजबूत फिल्म को एकदम से ओवर सिंप्लीफाई कर देना है.
दरअसल विचार के तौर पर भी ये फिल्म नयी नहीं है. साल 2017 में आयी, मसान के निर्देशक नीरज घेवान की फिल्म 'जूस'; में शेफाली शाह लगभग यही कहानी उत्तर भारतीय मिडिल क्लास औरत के नज़रिये से कहती है. जहां फिल्म का अंतिम दृश्य शेफाली शाह के पुरुषों के सामने पंखे की हवा लेते हुए जूस के घूंट भरते हुए खत्म हो जाता है.
जूस का अंतिम दृश्य, उत्तर भारत में औरत के सामाजिक विद्रोह की सीमा है क्योंकि घर के बाहर उत्तर भारतीय औरत के लिये सार्वजनिक जीवन यानी पैसे कमाते हुए अपनी पसंद का जीवन जीना इतना आसान नहीं. केरल की कहानी औरतों के मामले में यहीं अलग है, राज्य की अर्थव्यवस्था में औरतों का बड़ा हिस्सा काम करता है इसलिये वहां ये कहानी उस औरत के स्कूल में डांस सिखाते हुए अपने मन की जिंदगी जीने के साथ खत्म होती है.
'दि ग्रेट इंडियन किचेन', 'जूस' और 'थप्पड़' जैसी फिल्में घर की जिस चाहरदीवारी को औरत को लांघने के लिये कह रही हैं या उकसा रही हैं, वो दरअसल यहां खत्म नहीं होतीं. इसके आगे की पीढी या उसी औरत के आगे की जिंदगी घर से बाहर निकलते ही या देश की अर्थव्यवस्था यानी सार्वजनिक जीवन में पेड लेबर बनते ही हमेशा प्यार की गुलाबी या आज़ादी की भव्य तस्वीर में नहीं बदल जाती.
काश कि जिंदगी इतनी आसान होती पर हमारा समाज 90 के दशक में ही औरतों का जीवन, घरेलू काम के मकड़जाल को तोड़ने के लिये सामाजिक उत्पादन यानी अर्थव्यवस्था में औरतों की सक्रिय भूमिका के विचार से सहमत हो चुका था. उन औरतों के लिये या इस बीच बदले उनके आदमियों के लिये इस फिल्म में क्या नया है? यहां गौर करें तो 'बॉम्बे बेगम' और 'इज दि लव एनफ' और 'सर' इस फिल्म से आगे की कड़ियां हैं.
मौजूदा समाज के सामने सवाल ये है कि क्या घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को भी घरेलू काम से आजादी मिली? नौकरानी के सहारे घरेलू काम निबटाने वाली कामकाजी महिलायें जानती हैं कि ये सच नहीं है. बहुत से परिवारों में तो कामकाजी महिलाओं का घर आकर सारा घरेलू काम निबटाना और बिस्तर पर पति की जरूरत पूरी करना आज भी इतना मजबूत शोषण है कि उन्हे बाहर काम करना त्रास ही लगता है.
घर छोड़ कर बाहर कमाना यानी अकेली औरत का जीवन बिताना किसी भी तरह भारतीय समाज में उस महिला को स्वीकार योग्य नहीं बनाता. अब तो हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब औरतें लगातार अर्थव्यवस्था से पीछे धकेली जा रही हैं.
नोट- इस पोस्ट का उद्देश्य 'दि ग्रेट इंडियन किचेन'; जैसी फिल्मों की स्टोरी लाइन को खारिज करना नहीं है। अब भी देश का बड़ा हिस्सा इन्ही कहानियों में सिमटा है, इसलिये इसकी प्रासंगिकता से बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता इसके बावजूद आइडिया के लेवेल पर, कथ्य के स्तर पर, डिजाइन के स्तर पर, कौन सी फिल्म क्या कह रही है और कैसे कह रही है, उसे रेखांकित करना जरूरी है.
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