मेरे पास 'सनफ्लावर' को पसंद करने की अपनी वजहें हैं!

मेरे पास 'सनफ्लावर' को पसंद करने की अपनी वजहें हैं!

पवन कुमार

पवन कुमार विभिन्न दृश्य माध्यमों के लिए वृत्त-चित्र लेखन, विज्ञापन लेखन, कथा, पटकथा, संवाद लेखन; संगीतकारी व गीतकारी के पुराने खिलाड़ी हैं। इसके अलावा वो कविता, कहानी अनेक विधाओं में विपुल लेखन करते हैं। कुल मिलाकर वो 'हिलांश' के मूल मिजाज के करीब के लेखक हैं। फिलवक्त उन्होंने अपना आशियाना मुंबई में बनाया हुआ है और यहीं से वह अपनी रचनात्मक यात्रा को आगे बढ़ा रहे हैं।

पिछले दिनों 'जी 5' पर एक सीरीज रिलीज हुई है। नाम है 'सनफ्लावर'। इस वेबसीरीज़ में जो कहा गया था वह यह था- 'रोज़ सुबह सूरज तेरे पिछवाड़े से नहीं निकलता।' और जो अनकहा था, वह था- 'इंकलाब की सुबह तुमसे पूछ कर नहीं आएगी। तुम पूर्वाग्रह से ग्रसित अपने सड़े गले ज्ञान की बेड़ी से रोशनी को नहीं बांध सकते।'

न्यूज वेबसाइट लल्लनटॉप ने कहा यह वेबसीरीज़ न बुरी है, न अच्छी है। 'रेस टू' और 'दबंग 3' जैसी पोलियोग्रस्त फ़िल्मों को 3.5/5 की रेटिंग वाली बैसाखी देने वाले 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने इस वेबसीरीज़ पर ऐसी मायूसनाक सांसें छोड़ी, जैसी कि किसी की मय्यत पर छोड़ी जाती हैं। 'मिड-डे' ने तो इस वेबसीरीज़ को 'कचरा' तक करार दे दिया। मैंने जब विभिन्न समीक्षात्मक मंचों पर इस वेबसीरीज़ के बाबत लोगों की प्रतिक्रियाएं पढ़ी, तो पाया कि लोगों ने तो इस वेबसीरीज़ को और भी भर-भर कर गालियां दी हैं। रिव्यूवर्स ने सीरीज के अंत को बकवास कहा है, क्योंकि अंत हितोपदेशी (With Moral Value) नहीं है और ना ही निष्कर्षात्मक (conclusive) नहीं है।

इस तरह के तमाम तैफ़ी-तज्ज़िया (Analysis) को किनारे रखकर मैं तो कहूंगा कि 'सन फ्लावर' एक बेहतरीन वेबसीरीज़ है, जिसका रसास्वादन जरूर किया जाना चाहिए, वह भी अहोभाव के साथ।

पीत-पत्रकारिता के इस दौर में इजारेदारों (Capitalists) के महकूक (slave) बन चुके पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के नज़रिये पर निर्भर होना, मैंने कब का छोड़ दिया है। हालांकि, लोगों से मुझे थोड़ी सी आस जिंदा थी, पर वह आस भी लोगों की विवेकहीनता देख अब टूट गयी है। समझ में आ गया है कि चाहे सन्दर्भ सिनेमा का हो या साहित्य का, लोग अब परखने की क्षमता खो चुके हैं। अब लोगों को 'गंदगी' की लत लग गयी है। अच्छे भोजन का स्वाद उन्हें समझ में नहीं आ रहा है। यह लत उन्हें अचानक से नहीं लगी है, बल्कि उनमें यह लत पैदा करने के लिए सचेष्ट, सायास एक पूरी यांत्रिकी झोंकी गयी है। उनको 'गंदगी' की लत लगाने वाले वे लोग हैं, जिन्हें क्रिएटिविटी के नाम पर बस 'कचरा' परोसना आता है। यह ऐसा नहीं करेंगे तब उनके रेचन (dysentery), मेरा मतलब है उनकी रचनाओं को कौन पूछेगा! इन शक्तिशाली शो रनर्स की पैदा की हुई यांत्रिकी ने ही 'भांड' को सुपरस्टार और औसत लेखकों को साहित्य का सिरमौर बना दिया है।

एक दिलचस्प मनोवैज्ञानिक बीमारी है SIS (Sociogenic Illness Syndrome) जो एक नहीं, दो नहीं बल्कि समाज के सैकड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया करती है। इनमें वह लोग हैं जो वैचारिक रूप से भंगुर (Fragile) होते हैं। इस बीमारी का नतीजा यह होता है कि पूरा समाज तसव्वुरी वाक़ये को सच मानने लगता है। लोगों को लगने लगता है कि सलमान सचमुच मुसीबतों से मलखम्ब करने वाला, समस्याओं को पटखनी देने वाला सुल्तान है! उन्हें लगता है शाहरुख सचमुच एक फराखदिल (Large Hearted) रईस है। 'सुपरस्टार' और 'स्टारडम' का कल्चर ऐसी ही नकली 'शख्सियत' पैदा करता है।

एक साउथईस्ट कंट्री में इसी SIS के पैदा किये भ्रम का नतीजा था, कि एक बार वहां के ज़्यादातर मर्द यह यकीन करने लगे थे कि उनका जननांग छोटा होने लगा है। तब डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर ऐसे संशयी लोगों की लम्बी कतारें लगने लगीं थी। अपने हिंदुस्तान में भी 'मंकीमैन' और 'चोटी कटुवा चुड़ैल' भी तो इसी मनोवैज्ञानिक बीमारी की पैदाइश थे!

ऐसे ही लोगों की नज़र में वही सिनेमा अच्छा है, जिसमें उनके जीवन का न हुआ इच्छित, पर्दे पर 'हुआ' में कायान्तरित हो जाए। हिंदुस्तान में तमस तंत्र के हाथों हक़ और हुक़ूक़ गंवाता आदमी तमस तंत्र को भरपूर गलियाना चाहता है, उस पर मारक चोट करना चाहता है, पर वह निशक्त ऐसा कर नहीं पाता। उसके अंदर इकट्ठा हुए इसी 'न हुए' को जब फ़िल्मों का आलम्ब मिलता है, तो आदमी बड़ा सुकून महसूस करता है। दर्शक को मज़ा आता है, जब वह किसी सलमान-शाहरुख के जरिये किसी पीड़ा tormenter को पीट रहा होता है। अंग्रेजी की एक मशहूर कहावत भी है 'Forbidden fruits are always sweeter'।

(भाग- 1) अंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी

हिंदुस्तान के नैतिकता आग्रही माहौल में जहां कई नैतिक बंदिशें हैं, कई वर्जनाएं हैं, आदमी की कौतुहुलता वर्जनाओं के पार की अनदेखी ज़मीन पर जाना चाहती है। पर यह कौतुहुलता यूरोप में नहीं है। इसलिए कहानी में वासना का पुट होना, हिंदुस्तानी सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में हिट होने की अपरिहार्यता बनती जा रही है। इसलिए आप पाएंगे कि OTT पर इंडियन वेबसीरीज़ और फ़िल्मों में यूरोपीय फ़िल्मों और वेबसीरीज़ के मुक़ाबले ज़्यादा लस्ट फैक्टर्स (Lust Factors) है।

आदमी के अंदर का रावण अगर मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा लांघना चाहता है तो उसके अंदर का राम आदर्श को स्थापित करना चाहता है। भारत में इंसानों को बचपन से यान्त्रकी रूप से ख़ूब आदर्श की घुट्टी पिलाई गयी है। चूंकि आदर्श यहां रामायण और गीता के किताबी वजूद तक ही महदूद रहा है, सैद्धांतिक रूप से स्थिर (Theoretically Stagnant) होकर बस जुमलों तक सीमित रहा है, कभी जीवन में अनुवर्तित न हुआ, लोग उस 'न हुए' आदर्श को फ़िल्मों में घटित होते देखना चाहते हैं। इसलिए वो कहानियां, वो सिनेमा ख़ारिज कर दिए जाते हैं, जिनमें आदर्श का स्थापना नहीं है।

इसके बरक्स सभ्यता का अग्रदूत, दुनिया का प्रणेता होने का भ्रम रखता यूरोप बड़ा छटपटाता हुआ ऐसी ज़मीन, ऐसे लोग तलाशता रहा है जहां वह अपनी गुरुता को मूर्तमान कर सके। उपनिवेशवाद (Colonialism) उनकी इसी सोच की परिणति थी। चूंकि 'स्लमडॉग' जैसी फ़िल्में उनके ऐसी अकुलाती सोच को माकूल ज़मीन देती है, वे इस फ़िल्म को इस हद तक पसन्द करते हैं कि इसे ऑस्कर दे डालते हैं। अब बात 'सनफ्लावर' की...!

सनफ्लॉवर क्यों है एक बेहतरीन वेबसीरीज?
सनफ्लॉवर बिल्कुल उन्हीं वजहों से एक बेहतरीन वेबसीरीज़ है, जिन वजहों ने राजकपूर की फ़िल्म 'जागते रहो' को एक कमाल की फ़िल्म होने का दर्जा दिया गया है। मैं मानता हूं, इन दोनों कृतियों में एक निरपेक्ष समानता है। 'जागते रहो' की ही भाव-भूमि पर यह वेबसीरीज़ खड़ी है, पर अपनी मौलिकता, अपनी ताजगी अक्षुण्ण रखते हुए।

'जागते रहो' की तरह इस फ़िल्म में भी राजकपूर है, पर राजकपूर नाम का अदाकार नहीं, बल्कि राजकपूर नाम का क़िरदार जो असल राजकपूर जैसा शाइस्ता मिज़ाज नहीं, बल्कि एक नम्बर का लम्पट है। वही तो है जिसकी 'सनफ्लॉवर' सोसाइटी में हत्या हो जाती है और जिस हत्या के संदेह के घेरे में बार-बार एक ऐसे शख़्स सोनू को रखा जाता है, जो अपने प्रोफेशनल परफॉर्मेंस में हमेंशा टॉप परफ़ॉर्मर रहा है। जो बड़े अदब वाला है, जो शराब नहीं पीता, जो अपने स्वच्छ अंतःकरण (Clean Conscience) के कारण विकट परिस्थितियों में भी नहीं घबराता, बल्कि हर वक़्त अपने लबों पर एक निर्दोष मुस्कान ओढ़े रखता है।

 

सोनू हर चीज़ को सही जगह पर देखना चाहता है, फिर चाहे वह घर के बाहर रखा फूटमैट हो, कचरा पेटी हो या आदमी और आदमियत। पर इस तरह की ख्वाईश, ईमानदार आचरण, सुख-दुख हर स्थिति में होंठ पर निर्दोष मुस्कान को लादे रखना आज के दौर में बीमार मानसिकता का परिचायक है। समाज ने तो ऊपर वर्णित कुछ लक्षणों को बीमारी के रूप में संज्ञानित करते हुए एक वैद्य क्लिनिकल नाम भी दे रखा है - ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (Obsessive Compulsive Disorder)।

(भाग- 4) बर्फ के अंदर 35 मीटर नीचे उतरकर 'मौत की गुफा' से मैं निकाल लाया खाना, भूख से झगड़ने लगे थे दोस्त!

फ़िल्म में सोनू का मुतहम्मिल (Tolerant) और ख़ुशनुमा मिज़ाज देखकर हमारे अंदर का शर्लक होम्स कहता है- 'कोई इंसान इतना अच्छा कैसे हो सकता है, ज़रूर सोनू ही साइको किलर है।' हमारी तरह पुलिस भी इस दुराग्रह से ग्रसित है। पुलिस जब सोनू को हत्यारा मान उसे गिरफ़्तार करने सनफ्लॉवर सोसाइटी आती है, तो सोसाइटी के आदर्शवादियों को सोनू के आदर्श पर जरा भी यकीन नहीं होता। वे झट से मान लेते है कि सोनू वाक़ई दोषी है। सोनू की सज्जनता, उसकी बेगुनाही पर अगर किसी को यकीन है तो वे हैं वे चंद युवा, जिनका आदर्शवादियों की नज़र में आदर्श से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं।

'एक लड़का जो दिन में तीन बार अपनी मां को फोन करता हो, आपने 'क्या खाया', 'कब खाया' की भी ख़बर उस मां को देता हो और तो और शादी से पहले के सेक्स को ग़लत समझता हो, वह भला नार्मल कैसे हो सकता है?'

सोनू की गर्लफ्रैंड अपने बॉस कम मेंटर से ऐसा हीं नज़रिया उधार लेकर सोनू को डंप कर देती है। इत्तेफ़ाक़ से वह लड़का सोनू लड़की की नज़रों से परे वहीं पास की कुर्सी पर बैठा है। वह अपने नकारे जाने के कारण सुन लेता है, फिर भी क्षमाशील वह लड़का अपनी गर्लफ्रेंड और गर्लफ्रेंड को बरगलाने वाले उसके बॉस का अभिवादन करते हुए, मुस्कुराते हुए उनसे अंतिम विदा लेता है। जब वह जा रहा होता है, उसकी मां का कॉल आ जाता है। सोनू अपनी मां का कॉल बड़े प्यार से अटेंड करता है और ऐसा कर वह अंजाने में अपनी गर्लफ्रेंड को एक पसोपेश के साथ छोड़ जाता है कि इस फैशनेबल ज़माने में मां को टूट कर चाहना गुण है या दोष। फ़ैशन है या पिछड़ापन!

आज के ज़माने में सीधापन पिछड़ापन ही तो है। 'जागते रहो' के राजकपूर के साथ भी उसका सीधापन उसका दुश्मन बन गया था। गांव से शहर आया एक सीधा-सादा शख़्स अपनी प्यास की तकमील ढूंढने शहर की एक सोसाइटी के परिसर में क्या गया, चोर समझ लिया गया। उसके देहाती पहनावे और सीधे सरल व्यवहार ने उसे उस तथाकथित प्रगतिशील सोसाइटी में आग्राह्य (Unacceptable) बना दिया, जहां के सौ में से निन्यानवे बाशिंदे ख़ुद किसी न किसी बुरे कर्म में आकण्ठ डूबे हुए थे।

फ़िल्म 'जागते रहो' की सोसाइटी की तरह ही सनफ्लॉवर सोसाइटी में भी अराजक लोग भरे पड़े हैं। सनफ्लॉवर सोसाइटी में भी ऐसी दुराग्रही और पाखंडी कमिटी है जो अपने स्थापित आदर्श के तराजू पर सबको तोलती रहती है, भले आदर्श से उनका ख़ुद का नाता कोसों दूर का हो। कॉर्पोरेट का जो शख़्स अपनी बनावटी ज़ुबान और एलीट मैनर्स के कारण कमिटी के मेंबर्स द्वारा सोसाइटी में रहने के लिये उपयुक्त मान लिया जाता है, वही मिनटों में अपनी अहर्ता (eligibility) खो देता है, जब बात-बात में वह यह ज़ाहिर कर देता है कि उसकी पिछली दो शादियां नाकामयाब हो चुकी हैं।

बैचलर लड़कियां, सिगरेट पीती लड़कियां, लड़कों से बतियाती लड़कियां सोसाइटी वालों को हरगिज़ गंवारा नहीं। आजाद ख्याल लड़कियां असल में उन्हें चुभती हैं। एक पान वाला अपनी तमाम विन्नम्रता के बावजूद सोसाइटी का निवासी बनने के योग्य नहीं, क्योंकि उसकी वेश-भूषा, उसके लबो-लहजे में गंवारूपन है। एक ज़मीर का जगा कमिटी मेंबर कमिटी के इस पक्षपातपूर्ण रवैये पर तंज़ कसता हुआ पानवाले से कहता भी है- 'यह सोसाइटी आपके काबिल नहीं, आप कोई और सभ्य सोसाइटी ढूंढिये।' पर इस सबसे बेरब्त कमिटी खोजी कुत्ते की तरह सोसाइटी में घर लेने के इच्छुक हर आवेदकों के नाम में छिपी जातीयता सूंघती रहती है, ताकि वह इस नतीजे पर पहुंच सके कि आवेदक सोसाइटी में रहने लायक है या नहीं।

इस  वेबसीरीज़ में 'अपनी छवि का गुलाम' (Slave Of Own Image) वाले पहलू को भी बख़ूबी दिखाया गया है। कई बार आप अपने बाबत दूसरों के कथित इमेज के ग़ुलाम हो जाते हैं। भले आप अंदर से कुछ और हों, आपके बीवी-बच्चे अगर आपको आप ही के पोषित नज़रिये से सुपरहीरो की तरह देखने लगते हैं, तो आप उस इमेज को बरकरार रखने के लिए अच्छा-बुरा कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हो जाते हैं, यहां तक कि मर्डर भी।

(भाग- 5) जिंदा रहने के लिये साल 1988 में पैक हुआ खाना 1991 में खाया, हेलिकॉप्टर के इंतजार में काट रहे थे दिन!

इस वेबसीरीज़ में भी यही हुआ है। एक जीनियस शिक्षक जो अपनी बीवी की नज़र में सौ-सौ बच्चों का रिंग मास्टर रहा है, जो अपने पद, अपनी शैक्षणिक काबिलियत की वजह से लम्पट से लम्पट बच्चों द्वारा सम्मान पाता रहा है, जो मुश्किल से मुश्किल सवालों को चट से हल करता रहा है, वही जब अपने पड़ोसी द्वारा अपनी बीवी के सामने ज़लील किया जाने लगता है, तो अपनी इमेज को बरकरार रखने के लिए वह उस पड़ोसी का मर्डर तक कर देता है।

इस वेबसीरीज़ की ख़ासियत यह है कि कहानी के अलावा इसके क़िरदार भी समय-समय पर अपने व्यक्तित्व के माध्यम से बड़े सहज तरीके से जटिल मानवीय प्रवृति का उद्भेदन करते रहते हैं। मसलन केमिस्ट शॉप में कन्डोम खरीदने गए पुलिसवाले की एक टीनएज लड़के से बहस हो जाती है। उस बहस में क्या निकल कर आता है, यही ना कि एक ही जगह पर एक ही मुद्दे को लेकर अलग-अलग पीढ़ियों का अपना अपना माइंडसेट है।

कई लड़कियों से सेक्सुअल फ्लिंग रखने वाला पुलिसवाला काम अतरंगी करने जा रहा है, पर कन्डोम उसे पारम्परिक फ्लेवर का चाहिए... स्ट्रॉबेरी, वनीला नहीं बल्कि आमरस या काला खट्टा फ्लेवर। कन्डोम खरीदने आया टीनएज लड़का उसे टोक भी देता है-'अंकल ये जूस सेंटर नहीं।' यह रोचक ब्रीफ एनकाउंटर टीनएज लड़के के हवाले से बड़ी बेबाकी से हम सबसे कह जाता है-  'Truthfulness Is Better Than Hypocrisy…' यानी कि 'नंगे हो तो नंगे दिखो'।

इस वेबसीरीज़ में क़िरदार द्वारा मानवीय प्रवृति के उद्भेदन का एक और उदाहरण देखिये-एक लड़की बाप को महज इसलिए फकर (Fucker) बोलती है, क्योंकि उसके बाप ने उस बोहेमियन bohemian लड़की की बाइक बेच दी है। उसके मुंह से निकली गाली जिसमें अपराधबोध का लेश मात्र भी नहीं, आपको मिनटों में बता जाती है कि कैसे आज की पीढ़ी में रिश्तों और मूल्यों के प्रति घोर उदासीनता है या उनके रिश्ते अलग ढंग से गढ़े है।, जो कतई पारंपरिक नहीं। उसी पीढ़ी में मानवीय संवेदनशीलता का आप भरपूर दर्शन कर लेते हैं, जब आप उस नयी पीढ़ी को एक ऐसी लड़की का सम्बल भरा कंधा बनते हुए देखते हैं, जो सपनों की सतरंगी तितली के पीछे अपना घर बार छोड़ कर भाग आयी है।

इस वेबसीरीज़ में उभयवाद का बड़ा अच्छा प्रयोग हुआ है। आपको एक ही जगह पुरानी और नई दोनों पीढ़ियों की अच्छी बुरी दोनों बातें दिख जाती हैं। अगर आपको इस वेबसीरीज़ में पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी के सपनों के पांवों में डाली गई बेड़ियां दिखती हैं,  तो आपको यह भी दिख जाता है कि पुरानी पीढ़ी की थोपी कई बंदिशें क्यों जायज़ हैं। ऐसा तब लगता है जब कई बार नई पीढ़ियों के ख़्वाब, ख़्वाब नहीं बल्कि भरमा कर और भटका कर मार देने वाली मृगमरीचिका होते हैं। यह वेबसीरीज़ चुपके से कह जाती है कि पुरानी पीढ़ी के तजुर्बात और नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएं अगर आपस में हाथ मिला लें, तब न सपने टूटेंगे न दिल।

(भाग- 2) : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’

एक्टिंग का क्या हाल है!
कथानक से इतर अगर एक्टिंग की चर्चा की जाए तब इस वेबसीरीज़ में लगभग सभी अदाकारों ने अपने चरित्र के साथ भरपूर न्याय किया है। खासकर सुनील ग्रोवर, गिरीश कुलकर्णी, रणवीर शोरे, आशीष विद्यार्थी और मुकुल चड्डा (प्रोफेशर आहूजा) जैसे मंझे हुये कलाकार आपको मायूस नहीं करते हैं।

टैक्सी वाले द्वारा सोनू का पीछा किया जाना, पैंट चोर को अंगुली से मारने जैसे इक्का-दुक्का दृश्यों को अगर नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, तब पटकथा में कसाव और जज़्ब दोनों है। हां, अस्पताल का दृश्य कहानी की रवानगी में हल्का सा रोड़ा ज़रूर लगा गया है।

अच्छे सिनेमा के पैदावार के लिए, ज़रूरी है खरपतवार का हटना। जब-जब सिनेमा के क्षितिज पर सितारों की चमक फीकी हुई है, कुछ जुगनू नज़र आये हैं... अपने पंखों पर अभिनव सोच की रोशनी लपेटे हुए। जब-जब सुपर स्टारडम का कल्चर कमज़ोर पड़ा है, अच्छी फ़िल्में पनपी हैं।

याद कीजिये अमिताभ, जितेंद्र, धर्मेंद्र की आभा चक्र जब मंद हुई थी, कैसे आयी थी इरफान, अमरीश पुरी, मोहन अगाशे, ओम पुरी, रघुवीर यादव, पवन मल्होत्रा, नसीर जैसे प्रतिभा संपन्न अदाकारों की खेप। कैसे बनी थी 'मेसी साहब', 'सलाम बॉम्बे', 'मंडी', 'निशांत', 'सूरज का सातवां घोड़ा' जैसी लकदक से दूर, फ़ॉर्मूलेटिक ढर्रे से इतर बेहतरीन फ़िल्में। लाल गालों वाले, शारीरिक सौष्ठव वाले सुंदर, सुभग सितारे सिनेमा के सच्चे ख़ादिम नहीं हैं। सिनेमा के सच्चे ख़ादिम हैं औसत दिखने वाले वो एक्टर्स जिन्होंने अभिनय के हुनर को सालों की मेहनत और लगन देकर साधा है।

नसीरुद्दीन, ओम पुरी, नवाज़ुद्दीन जैसे अभिनेता सिक्स पैक और बाइसेप्स दिखा कर लोगों की वाह-वाही नहीं बटोर सकते। लोगों को उलझाने के लिये इनके पास रूप का मकड़जाल नहीं। ऐसे एक्टर्स के पास भुनाने को अगर कुछ है, तो वह है सिर्फ और सिर्फ उनकी अभिनय प्रतिभा। 'सनफ्लावर' ने अपनी बात कह दी और तकरीबन मेरी बात भी पूरी ही हुई। जाते-जाते इसी बेहतरीन वेबसीरीज़ से एक संवाद उधार लेकर समाज का ठेकेदार(इसमें साहित्य,सिनेमा के ठेकेदार को भी जोड़ लीजिए)बनने वालों से कहना चाहूँगा- 'रोज़ सुबह सूरज तेरे पिछवाड़े से नहीं निकलता'

सनफ्लॉवर को देखने के बाद भी अगर बेदार होने में कुछ कसर रह जाए तो फ़िल्म 'जागते रहो' देख लीजिए और फिर जाग जाइये या जागते रहिए। ग़ौरतलब है कि 'जागते रहो' में सोसायटी का गार्ड टेर लगाता हुआ कह रहा है, 'चोर घुस चुका है, जागते रहो' पर वेबसीरीज और गहरे जाकर बेदारी का टेर लगाती कह रही है- 'कहीं तुम्हारे मन के पावन अधिवास में बेज़मीरी का चोर सेंध न मार दे, जागते रहो।'

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