इंडिया के भीतर कुचले हुऐ 'भारत' की कहानी है 'द व्हाइट टाइगर'

Reviewइंडिया के भीतर कुचले हुऐ 'भारत' की कहानी है 'द व्हाइट टाइगर'

फिल्मी पांडा

फिल्मी पांडा कोई शख्स नहीं, बल्कि लेखक का किरदार भर है, जो अक्सर उम्दा सिनेमा को ग्रहण करने के बाद जिंदा हो उठता है। नतीजतन कुछ किस्से या समीक्षा की शक्ल में चीजें हासिल होती हैं।

हिन्दुस्तान में जितनी फिल्में सालभर में बनती हैं, उसकी एक तिहाई भी स्तरीय बनने लगें तो, सिनेमा का कायापलट हो जाए। खैर, इस वक्त मैं ‘द व्हाइट टाइगर’ के प्रभाव से नहीं निकला हूं। नेटफ्ल्क्सि पर हाल ही में रिलीज हुई इस फिल्म को देखने की कई वजहें हैं। हालांकि, किताब के जादू से गुजरे हुए लोगों के लिए फिल्म थोड़ी फीकी जरूर हो सकती है, लेकिन इसे देखे बिना आप राय भी नहीं बना पाएंगे।

साल 2008 में जब अरविंद अडिगा का नाॅवेल छपकर आया था, तब इसने साहित्य की दुनिया में खासी हलचल मचाई थी। इसी साल अरविंद को अपने नाॅवेल ‘द व्हाइट टाइगर’ के लिए बुकर जैसा प्रतिष्ठित सम्मान भी मिला। साहित्य से जुड़े हुए लोगों को बुकर की अहमियत का अंदाजा ठीक से होगा, बाकी पाठक ये मान लें कि बुकर मिलना हर लेखक के सपनों की टाॅप लिस्ट में होता है। खैर, अब अरविंद के इसी नाॅवेल पर ‘द व्हाइट टाइगर’ फिल्म बनी है। नेटफिल्क्स पर रिलीज हुई इस फिल्म का निर्देशन अमेरिकन इरानियन फिल्ममेकर रमीम बहरानी ने किया है। फिल्म का स्क्रीनप्ले भी रमीम ने ही लिखा है। ऐसे में देखें तो रमीम के पास दो महत्वपूर्ण डिपार्टमेंट थे, जिनमें उनकी भूमिका सधी हुई नजर आती है। 125 मिनट की इस फिल्म के कुछ हिस्से थोड़े स्लो जरूर लगते हैं, लेकिन इंडिया के भीतर जो पिछड़ा हुआ भारत है, उसे स्क्रीन पर लाने में फिल्म कहीं भी नहीं चूकती है।

रमीम और फिल्म के 63 साल के इरानियन सिनेमेटोग्राफर पाउलो कारनेरा ने जो दृष्य रचे हैं, वो बांधते हैं। फिल्म की लोकेशंस दर्शकों को वास्तविकता के करीब ले जाती है। फिल्म देखते हुए इसके मेकर्स की मेहनत दिखती है। किरदारों की भाषा, आर्ट और स्क्रीनप्ले उम्दा है, जो इसे एक अच्छी फिल्म में तब्दील करता है। फिल्म लावा मीडिया प्रोडक्शन के बैनर तले बनी है, जिसकी एक को प्रोड्यूसर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा भी हैं।


कथा-सार
फिल्म की कहानी एक गरीब कोयला खदान मजदूर के परिवार और उसके बेटे के अमीर बनने की कहानी कहती है। फिल्म के नायक बलराम (आदर्श गौरव) का जन्म झारखंड के लक्ष्मणपुर में एक कोयला खदान मजदूर के घर में हुआ है। बलराम पढ़ने-लिखने में तेज है, लेकिन उसकी अपनी नियति भी है। फिल्म की शुरुआत एक हाई स्पीड शॉट से होती है। पिंकी (प्रियंका चोपड़ा) दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में से एक लुटियन दिल्ली की अकबर रोड पर तेज रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रही है। उसके बगल में उसका पति अशोक (राजकुमार राव) बैठा हुआ है, जबकि पिछली सीट पर राजाओं की वेषभूषा में बैठा बलराम, पिंकी से आहिस्ता गाड़ी चलाने को कह रहा है। पिंकी और अशोक हाल ही में अमेरिका से लौटे हैं और हिन्दुस्तान में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं। इसी दौरान अचानक एक हादसा होता है और कहानी यहां से फ्लैशबैक में चली जाती है।


फिल्म का दूसरा दृष्य ग्रामीण भारत के एक ऐसे स्कूल में ले जाता है, जो भारत की शिक्षा व्यवस्था का प्रतीक है। यहां नायक पढ़ता है। स्कूल में निरीक्षण चल रहा है और एक अधिकारी बच्चों से सवाल-जवाब कर रहा है। अधिकारी बच्चों की स्थिति को देखकर झन्नाया हुआ है। अधिकारी स्कूल के टीचर को जिस वक्त गाली दे रहा होता है, ठीक उसी समय बलराम खड़ा होता है और ब्लैकबोर्ड पर इंग्लिश में लिखे वाक्य को तेजी से पढ़ जाता है। इससे अधिकारी बेहद खुश होता है और बलराम से सवाल-जवाब करता है। बलराम के जवाबों से प्रभावित होकर अधिकारी उसे कहता है कि वो ‘व्हाइट टाइगर’ है, जो सदियों में एक पैदा होता है। अधिकारी उसे दिल्ली में पढ़वाने का वादा करता है, लेकिन वादे पूरे हो जाएं तब कहानी कैसी बनेगी। बलराम के पिता की मौज टीबी से हो जाती है, जिसके बाद उसकी दादी (कमलेष गिल) उसका स्कूल छुड़वाकर उसके भाई के साथ उसे पास के ही एक ढाबे में काम करने भेज देती है। बलराम के स्कूल जाने का सपना यहां हमेशा के लिए दफ्न हो जाता है, लेकिन यहीं जवान होते-होते एक नया सपना जन्म लेता है।


इलाके में जमींदार (महेष मांजरेकर) और उसके बेटे नेवला (विजय मौर्या) का खौफ है। वो लोगों से उगाई करते हैं और कोयला खदान के मालिक हैं। एक रोज जब जमींदार अपने छोटे बेटे  अशोक के साथ गांव में आता है, तो बलराम को पता चलता है कि जमींदार अशोक के लिए एक ड्राइवर ढूंढ रहा है। बलराम को ये सुनहरा मौका लगता है। उसे लगता है कि अशोक का ड्राइवर बनते ही वो गरीबी से निकल जाएगा। वो अपनी दादी को अमीर होने के सपने दिखाता है और गाड़ी चलाना सीखने के लिए धनबाद आ जाता है। यहां ड्राइविंग सीखने के बाद वो जमींदार के घर पहुंचता है और काम हासिल करने में कामयाब हो जाता है।

 

बलराम को छोटी-मोटी जिम्मेदारियां दी जाती हैं, लेकिन उसका सपना अशोक का ड्राइवर बनने की है। वो घर के पुराने ड्राइवर जो कि मुस्लिम है और अपनी पहचान छिपाकर 20 सालों से जमींदार के परिवार के लिए काम कर रहा होता है, उसे नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर देता है। हालांकि, बलराम को इसका दुःख है, लेकिन उसे अपनी मंजिल तक पहुंचना है।


बलराम को पिंकी और अशोक को लेकर दिल्ली जाने का हुक्म सुनाया जाता है, जहां अशोक अपने कारोबार के लिए संभावनाएं तलाश रहा है। धीरे-धीरे बलराम पिंकी और अशोक के करीब प%A

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