फिल्मी पांडा कोई शख्स नहीं, बल्कि लेखक का किरदार भर है, जो अक्सर उम्दा सिनेमा को ग्रहण करने के बाद जिंदा हो उठता है। नतीजतन कुछ किस्से या समीक्षा की शक्ल में चीजें हासिल होती हैं।
आपको 'टाइम्स नाउ' की वो बहस याद है, जब इरफान खान ने बहस में मौजूद एक मौलाना से धर्म को लेकर गंभीर तकरीरें की थी और एक तरह से उन्होंने धर्म के नाम पर चल रही दुकान पर हमला बोल दिया था। इरफान ने इस बहस के दौरान कहा था- 'आदमी खुद ही नहीं जागा है, तो वो दूसरों को कैसे जगाएगा!' जाहिर सी बात है, उनका इशारा धर्म के उन ठेकेदारों की ओर था, जो अपने हितों के लिये अपने ढंग से चीजों को दूसरों के सामने रखते हैं। इसके बाद इसी बहस में इरफान ने आगे कहा- 'मैं कुछ सालों पहले तक अपने बच्चों को कहता था कि 'आईएम प्राउड आॅफ यू बेबी', लेकिन मैंने इस लफ्ज को अपनी डिक्शनरी से अब निकाल दिया। ये गुरूर लाता है और ये किसी भी मामले में ठीक नहीं है। मेरे इस्लाम ने मुझे गुरूर करना नहीं सिखाया।' इरफान की बातों से हर वो शख्स सहमत था, जिसने धर्म को ओढ़कर जीने के लिये चादर घोषित नहीं कर दिया है। धर्म को लेकर खुली बहसें यदि होती और इरफान सरीखे लोग उसमें मौजूद होते, तब शायद दुनिया में धर्म अलग ढंग से अपना असर छोड़ता या वो होता ही नहीं।
इसके बाद एक और वाकया हुआ जब इरफान ने कुर्बानी को लेकर कहा- 'क़ुर्बानी का मतलब है, अपने दिल के करीब की चीज़ों का त्याग करना और दूसरों के साथ साझा करना। आज, आप कुर्बानी के लिए बाजार से एक बकरी खरीदते हैं। यह सोचने वाली बात है, और यह सामान्य ज्ञान की बात है, हम सभी को अपने आप से पूछना चाहिए कि दूसरे के जीवन का बलिदान करने से हमें कोई सद्भावना प्राप्त हो सकेगी?' इरफान ने खुले तौर पर धर्म को लेकर अपने विचारों को लोगों के सामने रखा, इसमें उन्होंने किसी तरह की सहूलियत या बीच का रास्ता नहीं अपनाया। इसके चलते वो धर्म गुरुओं के निशाने पर भी रहे। पिछले साल जिस रोज इरफान इस दुनिया से रुखसत हुये, उस दिन भारत ताले में बंद था और उनके चंद करीबी दोस्त जिनमें विशाल भारद्धाज और तिग्मांशू धूलिया का नाम सबसे प्रमुख रहा, यही उनके छोटे से जनाजे में शामिल हो सके। ऐसा लग रहा था मानों हीरो ने शोर से अलग चुपचाप अंतिम यात्रा का वक्त चुना हो।
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इरफान को होली बेहद पसंद थी, उतनी ही पसंद जितनी कि पतंगबाजी या फिर क्रिकेट। इरफान घंटों फिल्म के सेट पर भी पतंगबाजी करते और क्रिकेट खेलते। होली को लेकर एक वाकया के बारे में बताते हुये तिग्मांशू धूलिया के एसोशिएट डायरेक्टर सचिन कहते हैं कि इरफान को होली से प्यारा शायद ही कोई दूसरा त्योहार लगता हो। वो होली को लेकर खासे उत्साहित रहते थे।
सचिन ने कहा- 'ये 2012 की बात है। मैंने तब तिग्मांशू सर को ज्वाइन ही किया था और हम लखनऊ में फिल्म 'बुलेट राजा' की शूटिंग कर रहे थे। इसी दौरान इरफान सर यशराज की 'गुंडे' की शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता में थे। पहले 'बुलेट राजा' में विद्युत जामवाल वाला किरदार इरफान ही करने वाले थे, लेकिन डेट्स के चलते ऐसा नहीं हो सका। वो पिछले कई सालों से तिग्मांशू सर की होली पार्टी का हिस्सा होते थे। उस साल उन्होंने शूटिंग से ब्रेक लिया और अपने परिवार समेत हमारे पास लखनऊ होली मनाने के लिये पहुंच गये। इरफान सर को मैंने साल-दर-साल जब तक वो बीमार नहीं पड़ गये, अपने ऑफिस में होली एन्जॉय करते हुये देखा है। ऐसा लगता था, मानो उन्हें रंगों का ये त्योहार सबसे ज्यादा भाता हो। वो बेहद उत्साहित नजर आते थे..' इरफान ने कभी धर्म को खुद पर हावी नहीं होने दिया ना उन्होंने इसे जीने की एकमात्र चाह बनने दिया।
इरफान को समझने के लिये उनके दर्जनों इंटरव्यू तो मौजूद ही हैं, उनका आखिरी खत भी उनकी शख्सियत के करीब से दर्शन करवाता है। इरफान ने लिखा था- "कुछ महीने पहले अचानक मुझे पता चला कि मैं न्यूरोएन्डोक्राइन कैंसर से जूझ रहा हूं, मेरी शब्दावली के लिए यह शब्द बेहद नया था। इसके बारे में जानकारी लेने पर पता चला कि यह एक दुर्लभ बीमारी है और इसपर ज्यादा रिसर्च नहीं हुआ है। अभी तक मैं एक बेहद अलग खेल का हिस्सा था। मैं एक तेज भागती ट्रेन पर सवार था। मेरे सपने थे, योजनाएं थीं, अकांक्षाएं थीं। मैं पूरी तरह इस सब में बिजी था। तभी ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए मुझे रोका। वह टीसी था। बोला 'आपका स्टेशन आने वाला है। कृपया नीचे उतर जाएं। मैं परेशान हो गया बोला- 'नहीं-नहीं मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है।' तो उसने कहा 'नहीं, आपका सफर यहीं तक था। कभी-कभी यह सफर ऐसे ही खत्म होता है।"
इरफान खान ने इस खत में आगे लिखा था- "इस सारे हंगामे, आश्चर्य, डर और घबराहट के बीच, एक बार अस्पताल में मैंने अपने बेटे से कहा 'मैं इस वक्त अपने आप से बस यही उम्मीद करता हूं कि इस हालत में मैं इस संकट से न गुजरूं। मुझे किसी भी तरह अपने पैरों पर खड़े होना है। मैं डर और घबराहट को खुद पर हावी नहीं होने दे सकता। यही मेरी मंशा थी... और तभी मुझे बेइंतहां दर्द हुआ। जब मैं दर्द में, थका हुआ अस्पताल में घुस रहा था, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा अस्पताल लॉर्ड्स स्टेडियम के ठीक सामने है। यह मेरे बचपन के सपनों के 'मक्का' जैसा था। अपने दर्द के बीच मैंने मुस्कुराते हुए विवियन रिचर्ड्स का पोस्टर देखा। इस हॉस्पिटल में मेरे वॉर्ड के ठीक ऊपर कोमा वॉर्ड है। मैं अपने अस्पताल के कमरे की बालकॉनी में खड़ा था और इसने मुझे हिला कर रख दिया''
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इसी खत में आगे इरफ़ान लिखते हैं- "जिंदगी और मौत के खेल के बीच मात्र एक सड़क है. एक तरफ अस्पताल, एक तरफ स्टेडियम। मेरे अस्पताल की इस लोकेशन ने मुझे हिला कर रख दिया। दुनिया में बस एक ही चीज निश्चित है, अनिश्चितता। मैं सिर्फ अपनी ताकत को महसूस कर सकता था और अपना खेल अच्छी तरह से खेलने की कोशिश कर सकता था। इस सब ने मुझे अहसास कराया कि मुझे परिणाम के बारे में सोचे बिना ही खुद को समर्पित करना चाहिए और विश्वास करना चाहिए। यह सोचा बिना कि मैं कहां जा रहा हूं। आज से 8 महीने, आज से चार महीने, या दो साल बाद। अब चिंताओं ने बैक सीट ले ली है और अब धुंधली से होने लगी हैं.. पहली बार मैंने जीवन में महसूस किया है कि 'आजादी' के असली मायने क्या हैं।" पिछले कुछ सालों में मैंने जो खत पढ़ें हैं, ये उनमें सबसे कमाल का और हिला देने वाला खत था। 53 साल की उम्र में इरफान का अध्याय खत्म हो गया और भारत के बाहर भी लोग अवाक् रह गये। मानों उन्हें अपने हीरो से अभी बहुत कुछ सुनना था।
इरफान और तिग्मांशू धूलिया से जुड़े हुए एक दिलचस्प वाकये के बारे में मुझे तुलिका धूलिया ने बताया था। वो मुंबई की एक उमसभरी शाम थी। इरफान का तब लंदन में इलाज चल रहा था और मैंने उनसे इरफान की तबियत को लेकर शायद कुछ पूछा था। बातों का ये सिलसिला लंबा खिंचता चला गया और उन्होंने मुझे बताया- 'इरफान स्ट्रगल से बेहद परेशान हो गये थे। वो जिस कद के अभिनेता थे, उस तरह का काम उन्हें तब मिल नहीं पा रहा था। वो लगातार काम तो कर रहे थे, लेकिन वो पहचान हासिल नहीं हो पा रही थी, जिसका उन्हें इंतजार था। वो मुंबई से आजिज आकर जयपुर लौटने के बारे में सोच रहे थे। उन दिनों तिशू हासिल की तैयारियां कर रहे थे। तिशू ने मजाक में इरफान से कह दिया कि अभी तो उन्हें नेशनल फिल्म अवॉर्ड लेना है। हासिल को चर्चा मिलने लगी थी और इरफान को लोगों ने पहचानना शुरू कर दिया। इस फिल्म से तो नेशनल अवॉर्ड नहीं मिल सका, लेकिन इसके बाद आई 'पान सिंह तोमर' ने इस मजाक को सच में बदल दिया था।'
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