निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
ऋत्विक घटक फ़िल्म रचयिता थे। यूं फ़िल्म बिरादरी टीवी मोहल्ले को ओछी नज़र से ताकती है, लेकिन ऋत्विक कहते थे- उन्हें सिनेमा से नहीं, बस कहने से मोह था। जिस माध्यम की पहुंच ज्यादा और पकड़ मज़बूत होगी, उस ही के सहारे कहूंगा। वे टीवी की और सिनेमा के पर्दों का माप नहीं नापते थे, कथ्य का वजन तोलते थे। दरअसल, अपनी सिने यात्रा के रास्ते खुद को बयां करने के ऐसे ही पड़ाव तलाशते मिले थे। वे खुद यही कहते थे- मैं बस चिल्लाना चाहता हूं...और ये कि ज्यादा से ज्यादा लोग मेरी बात सुन लें।
भारत के सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्मकारों में से एक फ़िल्म निर्देशक ऋत्विक घटक को दिल के तूफ़ान बस दरिया में बहाने थे, फिर बहाना चाहे जो हो, सो पहले कविताएं लिखीं, लेकिन सब छंद। उस दर्द को नाकाफी गुज़रे,फिर कहानी में कहा, सौ-सवा सौ कहानियों में भी मन पूरा छपा नहीं, फिर एक चमत्कार हुआ। इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) के बैनर तले सबसे पहले आया `जबानबंदी' (1943) और फिर बिजन भट्टाचार्या का `धमाका नबान्नो' (1944)। इप्टा के मंच को अपने नाटकों से सजाते ऋत्विक का योगदान कितना प्रमुख है, इसका सबूत था 1953 में मुंबई में हुआ इप्टा का राष्ट्रीय सम्मलेन, जहां इप्टा के सबसे महत्वपूर्ण, सबसे चर्चित नाटक के चुनाव में सर्वाधिक मत ऋत्विक के नाटक `दलील’ को मिले। इन्होंने दर्शाया कि स्वतः स्फूर्त सम्प्रेषण के लिए थिएटर साहित्य से कहीं अधिक प्रभावी है।
ऋत्विक की आंखों में 'सुरमा'
इप्टा ऋत्विक की विचार शृंखला ही को एक कर्म में नहीं बांध रहा था, जीवन की नैया की पाल संभालने वाले हाथों ने भी उन्हें वहीं इप्टा के आंगन में ही थामा। 1953 में सुरमा नाम की नई लड़की इप्टा से ठीक उस समय जुड़ी, जब कोलकाता में इप्टा के विघटन का समय था। कॉमरेड सुरमा दो साल तक राजनैतिक कैदी रही थीं। इप्टा के चलते दोनों की मुलाकातें बढ़ीं और 1955 में साथिन सुरमा से उन्होंने विवाह कर लिया। ऋत्विक के परिवार को तीन बच्चों ने सजाया, लेकिन आगे बढ़ कर एक ने भी फ़िल्म माध्यम का चुनाव नहीं किया। आदिवासी समाज के साथ काम करने वाली लेखिका महाश्वेता देवी ऋत्विक ही की भतीजी हैं। असमानता के विरुद्ध संघर्ष का भाव उन्हें विरासत में भी मिला होगा।
ऋत्विक ने कहानियां लिखना छोड़ दिया और नाटक लिखने-नाटक मंडलियों को संगठित करने में लग गए। वो जर्मन रंगकर्मी बर्तोल ब्रेख्त से बेहद प्रभावित थे। उनके नाटक और एपिक थिएटर, डेलेक्टिक थिएटर से ऋत्विक ने मंच कौशल के लिए काफी संपदा ली।
जब उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटक `बिसर्जन' का मंचन किया, तो उसे आठ हजार से ज्यादा लोगों ने देखा। ये अद्भुत था, पर तब फिर उन्हें लगा कि इतना अधिक सामूहिक श्रम इतने भर के लिए?
मंच पर बीते पल जोड़ते लगा- बात मेरी पूरी तो निकली है पर उतने से मन भरा नहीं, दिल था कि दुनिया भर पर खुल जाना चाहता था और नाटक में सुनते थे बस कुछ लोग। आखिर फ़िल्म रोल में वो माद्दा पाया, जो उनकी हर बात जज़्ब कर ले और बता दे पूरी दुनिया को- ये है ऋत्विक घटक के दिल का हाल और आखिर उन्होंने फ़िल्म बनाना तय किया।
पुलिया पर बैठकर बुने फ़िल्मों के ख्वाब
1950 का दौर था वो, जब नई फ़िल्मी हसरतें लिए ऋत्विक अक्सर मृणाल सेन और अन्य फ़िल्मकारों के साथ पैराडाइज कैफे नाम की चाय की दुकान पर बहसें करते मिलने लगे। कैलकटा मूवी टोन्स के फाटक के बाहर की पुलिया पर अक्सर बैठे नज़र आते कानू सान्याल जैसे सेनानियों के साथ चर्चा में मगन वो फ़िल्मी ख्वाब बुनते। 1950 ही में ऋत्विक ने निमाई घोष की बंगाली फ़िल्म `चिन्नामूल' में अभिनय किया और औपचारिक रूप से फ़िल्मों से जुड़ गए, लेकिन ऋत्विक के स्वप्न अभिनय नहीं, निर्देशन नहीं, संपूर्ण फ़िल्म निर्माण के थे।
जारी है...
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