निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
पिछले बरस ऑस्कर ने दुनिया के नक़्शे से कुछ सरहदें मिटा दीं। पहली दफ़ा विदेशी भाषा की फ़िल्म, उस पर एशियाई - बेस्ट मोशन पिक्चर का ऑस्कर जीत लाई। साउथ कोरियन डायरेक्टर बॉन ज़ू हो की फ़िल्म "पेरसाइट' ने डायरेक्शन, पटकथा, इंटेरनेशनल फ़ीचर फ़िल्म समेत चार ऑस्कर हासिल किए, वो भी "जोजो रैबिट', "1917' और "जोकर' जैसी दमदार फ़िल्मों के बीच जगह बनाकर...।
बारिश, गंध और इंसान को झूठा बनाने वाले सच
कोई मुझसे पूछे- "ऐसा क्या था इस फ़िल्म में' तो मैं कहूंगी- ये सच के बारे में थी - बारिशों के सच, गंध के सच, उस सच के बारे में जो इंसान को झूठा बनाते हैं। ये फ़िल्म सिर्फ़ इन दो परिवारों- किम और पार्क्स के बारे में नहीं है, बल्कि उन हज़ारों लोगों - जिनके घर बारिशों में डूब जाते हैं और उन कुछ 10 लोगों के बारे में भी है, जिनके लिए बारिशें रोमांटिक हैं। कितना फ़र्क़ होता है अमीरों और ग़रीब के मौसमों में। ये फ़िल्म उस फ़र्क़ ही के बारे में है, लेकिन वो फ़र्क़ बस ज़िंदगी नहीं, चरित्र पर भी शाया है।
घर और दुनिया के बीच एक खिड़की रहती है...
खिड़कियां घर की आंख, नाक और कान होती हैं, जिनसे घर सांस लेते हैं। इनसे आपकी दुनिया का कुछ हिस्सा घर के भीतर आता है।
किम परिवार के घर की छोटी-गंदली खिड़की, जिससे आकाश नहीं दिखता, सड़क पर खुलती है। इस खिड़की से घर में हवा नहीं आती। सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की धूल, धुआं, और बदबू घर और जेहन में भरती है। इन खिड़कियों से चेहरे नहीं, गाड़ियों के पहिए और और लोगों के पांवों के दर्शन भर होते हैं।
दूसरे- पार्क्स परिवार के घर में भी एक खिड़की है। दीवार जितना विशाल, बेदाग़ कांच, उससे बाहर की दुनिया देखने पर लगता है- टीवी या शो केस देख रहे हों। उस खिड़की का व्यू नियंत्रित है- हरी घास का बड़ा सा बाग़ीचा, धूप, आकाश, फूल। ग़रीब किम परिवार फ़ोर्जरी, षड्यंत्र और बेईमानिया करके पार्क्स परिवार के सारे हाउस हेल्प को हटवाके, एक-एक कर ख़ुद उनके घर में घुस जाता है।
"वो अमीर हैं, इसलिए ही प्यारी है!'
चोरी करते किसी व्यक्ति के बारे में हमारी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? ये फ़िल्म वहीं से शुरू होती है। किम परिवार जो इंटरनेट तक किसी और का चुराता है, झूठ बोलता है, जालसाज़ी करता- लड़ता, तेज़ तर्रार परिवार है। देखने पर इनके विपरीत लगता है - दूसरा परिवार (पार्क्स का) - कितना साफ़-सौम्य, मृदु, अनुशासित। एक रात के लिए किम परिवार पार्क्स की खिड़की से दुनिया देखता है। इस रात किम कहता है - "वो अमीर हैं, फिर भी इतनी प्यारी हैं। पत्नी जवाब देती है- "वो अमीर हैं, इसलिए ही प्यारी हैं।'
ग़रीब के लिए दयालु, मृदुभाषी, कोमल होना असंभव होता है। ग़रीबी चिंता की दरारें और झुर्रियां देती है, परिस्थितियां कटुता और वो सब देती हैं- जो "नाइस' का विलोम है। ग़रीबी में एक अच्छी औरत, आदमी की निगाह में "नाइस' की परिभाषा जैसी नाइस नहीं रह पाती। मेहनतकश औरत के लिए ख़ूबसूरत, साफ़, कोमल रहना मुश्किल होता है। पैसा किसी इस्त्री की तरह सब दरारों को भर देता है। यहां फ़िल्म इस परजीवी होने का अर्थ उलट देती है।
ठीक उसी रात पार्क्स के घर में छिपे तहख़ाने से एक और चोरी से पनाह लिया हुआ आदमी मूं गवांग निकल आता है। इन लोगों ने भी बरसों पार्क्स के घर काम किया था। तहख़ाने में छिपे रहना कितना बड़ा मेटफ़र है। कामगर छिपे रहते हैं, दिखते हैं बस- विशाल सुंदर घर। मूं गवांग पार्क्स की इज़्ज़त करता है और किम को मार देना चाहता है, लेकिन पार्क्स उसे भी वैसे ही सूंघते हैं, जैसे किम को।
कामगार को सूंघता किरदार ही बदलता है नज़रिया
इस सूंघने से हमारा मानस जान पाता है कि दरअसल मूं और वे (पार्क्स) एक हैं। वो लोग, जो हमारे आपके घर, गलियां, शहर, देश साफ़ रखकर गटर में रहते है, जिनके शरीर से बदबू आती है। ये उस रियलाइज़ेशन की फ़िल्म है कि एक नौकरी के लिए, एक-दूसरे से लड़ता कामगार अलग नहीं है। मालिक भी उसे एक ही नज़र से देखते, बल्कि सूंघते हैं। हर फ़िल्म की तरह किरदार बदलता है या नहीं, नहीं पता- लेकिन गहराता है, खुलता है, हमारे सामने आता है। दर्शक का कैरेक्टर को देखने का नज़रिया बदलता है, समझ बदलती है। सच कहूं तो यहां किरदार नहीं, दर्शक ही बदलता है।
टेबल के नीचे छिपा किम परिवार, ऊपर पार्क्स कपल से मूं गवांग की गंध की तुलना गंदी बोरी या सड़ी हुई मूली से करते हुए सुन रहा है। किम कसकर आंख भींचे, मुंह फेरे पड़ा है. बेटी ठीक इस वक़्त अपने पिता को देखती है, लेकिन पिता बेटी का ये देखना बिल्कुल नहीं देखना चाहता।
मुझे "बाइसिकल थीफ' याद हो आई। वहां जिस तरह बच्चा अपने पिता को चोर पुकारे जाते और चोर की तरह पिटते देख लेता है। हमें लगता है- काश! ये बच्चा अपने पिता को इन हालात में ना देखता। ये फ़िल्म वो प्रश्न खड़ा करती है कि एक मालिक और नौकर के संदर्भ में कौन होता है- परजीवी?
इन सवालों के जवाब हैं क्या?
बड़े सुन्दर घरों से कामकाजी लोगों को अलग कर दिया जाए तो ये कुछ ही दिन में गिर जाएंगे। एक बार पार्क्स, किम से कहता भी है- "अगर काम वाली नहीं मिली तो जल्द ही घर कचरे के ढेर में बदल जाएगा।' कहते हैं- फ़िक्शन वो अच्छा होता है, जिसमें डॉक्यूमेंट्री के तत्व हों और डॉक्युमेंट्री वो- जिसमे कहानी हो। पूरी फ़िल्म में हर व्यक्ति भूत लगता है- अनिश्चित, अप्रत्याशित, होकर भी नहीं होने सा और नहीं होकर भी उपस्थित। मूं भी ऐसे उजागर हुआ, जैसे- कोई भूत निकला हो, फिर किम ख़ुद उस तहख़ाने में छिपकर भूत बन जाता है। अंत में एक ख़त जैसे युगों का दुःख उद्घाटित करता है।
बेटा उस ख़त में वादा करता है कि एक रोज़ ये घर ख़रीद लेगा और तब तहख़ाने में छिपे उसके पिता ऊपर आ सकेंगे। वो प्रेम, कॉलेज, सपने- सब छोड़ देगा और अपना जीवन बस पिता को उस तलछट से उबारने में लगा देगा। भारत के बच्चे पीढ़ियों से अपने पिताओं को यही ख़त लिखते हैं। पिता भी इंतज़ार करते हैं कि कब मेरे बच्चे मुझे तहख़ाने से उबार लेंगे। ये फ़िल्म बहुत से सवाल करती है, जिनके जवाब ना जाने कब मिलेंगे.
बारिशें बस रूमानी नहीं होतीं!
एक सवाल अक्सर जेहन में घूमता है कि भारतीय फ़िल्में ऑस्कर क्यों नहीं जीत पातीं। ऑस्कर को कोई परिपाटी न भी मानें, सिर्फ़ सिनेमा को मानें तो क्या हमारा सिनेमा, हमारे देश के बारे में है?
भारत में मौलिकता एक दुर्लभ हो चली बात है। ये केवल कहानी की मौलिकता का प्रश्न नहीं है। हमारी दुनिया, लोग, उनकी ज़िंदगी, दुःख, उनकी ख़ुशियां, उनकी जालसाज़ियां, उनकी मासूमियत, आदमी,औरत, सपने- हम कितनी गहराई से जानते हैं और किस समझ से दिखा पाते हैं।
बहुत साल पहले एक भारतीय फ़िल्मकार सत्यजित रे की फ़िल्म की नायिका दुर्गा बारिश में भीगकर निमोनिया की शिकार हो जाती है और फिर बच नहीं पाती। हम तीसरी दुनिया के लोग ही हैं, जहां बारिश में भीगने सी इक छोटी ख़ुशी तक का ख़ामियाज़ा जान देकर भुगतना पड़ता है। बस रे ही वो भारतीय फ़िल्मकार थे, जिनकी बारिश की बौछार ऑस्कर तक पहुंची थी। उनके अलावा तो सबने बारिश में साड़ियां भिगोकर गाने ही गवाए। देश की फ़िल्मों का मौसम देश की असलियत से दूर होता चला गया। "लगान', "मदर इंडिया' और "सलाम बॉम्बे' जैसी कुछ फ़िल्में थीं, जो ऑस्कर के क़रीब तक पहुंची, लेकिन जीत से दूर रहीं।
फ़िल्में कहां होती हैं देसी-विदेशी
पिछले बरस मैक्सिकन फ़िल्म "रोमा' ऑस्कर की 10 श्रेणियों में नामांकित हुई। कुछ जीती भी, लेकिन बेस्ट मोशन पिक्चर का अवार्ड स्पेनिश भाषा में होने की वजह से नहीं मिला। 1969 में फ़्रेंच फ़िल्म "z' पहली विदेशी फ़िल्म थी, जो ऑस्कर की इस कैटेगरी में नामंकित हुई थी। फिर साल 72 में "द इमिग्रैंट' और 73 में बर्गमैन की "क्राइज़' और "विस्पर' सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की श्रेणी में नामंकित की गईं। शायद वो दौर हॉलीवुड के लिए आर्टिस्टिक इनलाइटनमेंट का था, वरना उसके बाद लगभग बीस साल तक किसी विदेशी फ़िल्म को इस कैटेगरी में जगह तक नहीं मिली। 1995 में इतालवी फ़िल्म "द पोस्टमैन', फिर 2000 में "क्रॉनचिंग टाइगर हिडन ड्रैगन', 2012 में "अमॉर' आईं। इतने बरस बाद जब एक विदेशी फ़िल्म जीती, तब भी हॉलीवुड रिपोर्टर ने जो टिप्पणी की, वो कुछ उत्साहवर्धक तो नहीं थी- "ब्रूटली ऑनेस्ट ओस्कर वोटर बैलेट'। इन्वर्टेड कॉमा में कहें तो विदेशी फ़िल्मों को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की कैटेगरी में नामांकित किया ही नहीं जाना चाहिए।
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