फ्रेम दर फ्रेम इतिहास के करीब ले जाती है 'सरदार उधम', सिनेमेटोग्राफी और स्क्रीनप्ले के तिलिस्म में लिपटी शानदार फिल्म

फ्रेम दर फ्रेम इतिहास के करीब ले जाती है 'सरदार उधम', सिनेमेटोग्राफी और स्क्रीनप्ले के तिलिस्म में लिपटी शानदार फिल्म

फिल्मी पांडा

फिल्मी पांडा कोई शख्स नहीं, बल्कि लेखक का किरदार भर है, जो अक्सर उम्दा सिनेमा को ग्रहण करने के बाद जिंदा हो उठता है। नतीजतन कुछ किस्से या समीक्षा की शक्ल में चीजें हासिल होती हैं।

बॉयोपिक के दौर में मौजूदा हिंदी सिनेमा के कूड़े से छनकर 'सरदार उधम' एक ऐसी फिल्म है, जिसकी पटकथा में तथ्य और घटनाओं के समानांतर उस दौर का इतिहास शानदार ढंग से पिरोकर स्क्रीन पर उकेर दिया गया है। ये जादू शूजित सरकार ने किया है। ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई 'सरदार उधम' में शूजित ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से एक ऐसे नायक की कथा चुनी है, जो कभी भारतीयों को शायद ही तफशील से सुनाई गई हो।

शूजित ने भगत सिंह के साथी रहे सरदार उधम सिंह की कहानी चुनी। ये वो शख्स था, जिसने जालियांवाला बाग के 'कातिल' से प्रतिरोध लेने और ब्रितानी हुकूमत का विरोध करने के लिए 20 सालों का लंबा वक्त केवल इंतजार करते हुए गुजार दिया। ..और आखिरकार एक रोज लंदन में एक भरी सभा के दौरान जब जनरल डायर 'जालियांवाला बाग कांड' को लेकर ब्रितानी ताज की सेवा और ब्रितानी हुकूमत के अनुशासन की डींगे हांक रहा था, तब सबके सामने नाम पुकारकर गोली मार कर हत्या कर दी। इसके बाद भी उधम भागे नहीं बल्कि उन्होंने अपनी गिरफ्तारी देकर अपने मकसद की मजबूती का प्रमाण दिया। शूजित ने ये कथा ऐसे वक्त में पेश की है जब सावरकर की 'महानता' और 'वीरता' को लेकर एक फूहड़ बहस छिड़ी हुई है। ये फिल्म उस वक्त में हिंदी सिनेमा का कद मजबूत करती है, जब देशभक्ति के नाम पर इतिहास के कचरे से अधकचरी घटनाओं को परोसने की होड़ लगी हुई है, या प्रोपेगेंडा और लाउड नाटकीय अभिनय के रैपर में फिल्में लपेटकर परोसी जा रही हैं।

फिल्म कहने को 'जालियांवाला बाग कांड' की एक घटना के आधार पर बुनी गई है, लेकिन इसकी बुनावट खास है। फिल्म अपनी मूल घटना के दृश्यों के करीब आने से पहले नायक की यात्रा पर लिए चलती है। यहां दिखते हैं उसकी अपनी गूंगी प्रेमिका संग इश्क में गुजारे हुए दिन, भगत सिंह के साथ संगठन की मजबूती के लिए किए गए काम और यारी, लंदन तक पहुंचने की यात्रा, संगठनों से संपर्क और समकालीन इतिहास में दर्ज होती घटनाओं के समानांतर दौड़ते नायक का संघर्ष, चर्चिल के साथ पाश्र्व में नाजी सेनाओं और हिटलर का जिक्र, एक अदद हथियार जुटाने और अपने मकसद को पूरा करने के लिए जनरल डायर से एक सेल्समैन बनकर करीबी तक के दिन... फिल्म तफशील से भीतर उतरती चलती है।

फ्रेम दर फ्रेम दर्शक को नायक की जिंदगी में ले जाकर शूजित ढाई घंटे की अपनी इस फिल्म के खत्म होने से ऐन पहले उस इतिहास के मुहाने पर लाकर हमें वापस खड़ा कर देते हैं, जहां नायक आकर टूट जाता है और दर्शक सिहर उठते हैं। घेरकर एक आम सभा पर गोलियों की बरसात कर दी जाती है। चंद मिनट स्क्रीन पर सिर्फ लोग गिरते हुए नजर आते हैं और जमीन पर अब सिर्फ लाशें, कराहते हुए लोग और गोलियों के खाली खोखे बचे हैं। नायक स्तब्ध है। नरसंहार का ये दृश्य भयावह है और अपने मकसद में कामयाब होता है।

'जालियांवाला बाग कांड' का ये दृश्य नायक के जेल के भीतर अपने वकील से बातचीत के दौरान खुलता है। एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार और जब तक स्क्रीन पर लाशें ढोता हुआ नायक थककर गिरने नहीं लगता है, ये दृश्य बैकग्राउंड में बजती एक तय लय के साथ चलता रहता है। आखिरकार लाशों के ढेर के पास अब नायक को नायिका मिल गई है, लेकिन वो भी अब मात्र मृत शरीर है। उसका चेहरा अब भी निश्चलता और उम्मीदों से भरा हुआ है, लेकिन उसकी आंखे अब बंद हैं। नायक की आंखे भी बंद हैं और उनमें फूटा आंसुओं का सैलाब दर्शक को कुरेदता है।  ड्रोन  जमीन पर लाशों के अंबार के बीच ऊपर उठता चला जाता है और उसके बीच नायक चीख रहा है... 'कोई जिंदा है... ओए कोई जिंदा है!'            

'यहां', 'मद्रास कैफे', 'पीकू', 'अक्टूबर', 'गुलाबो-सिताबो' और अब 'सरदार उधम' शूजित के हस्ताक्षर और सिनेमा में अपने ढंग के प्रयोगों के दखल को मजबूती से पेश कर रही है। या यूं कह लीजिए कि शूजित सरकार के हस्ताक्षर वाली फिल्में हिंदी सिनेमा को मजबूत कर रही हैं। फ्रेम दर फ्रेम खूबसूरत पेंटिंग्स सरीखे सीक्वेंस शूजित की फिल्मों की ताकत होते हैं। शूजित अपने सिनेमा के जरिए भारतीय दर्शकों को फिल्में देखने का शऊर भी परोस रहे हैं। लंबे दृश्य, सधा हुआ संगीत और किरदारों के साथ-साथ बहता हुआ कैमरा दर्शकों को उस दौर में लिए चलता है, जब वो घटनाएं घट रही थी। खासकर 'जालियांवाला बाग' कांड को शूजित जितने महीन ढंग से उकेरते हैं, वो दृश्य एक ही वक्त में अद्भुत भी है और भयावह भी।

ये सीक्वेंस इतना लंबा और सलीके से बुना गया है कि दर्शकों की आंखों के सामने जालियांवाला बाग में गोली चलाते हुए सै​निकों के पीछे खड़े जनरल के क्रूर इरादे जिंदा हो उठते हैं। ये सीक्वेंस सत्ता और जनता के बीच का चरित्र उकेर देता है। कई जगह जालियावांला बाग सभा के दृश्य मौजूदा किसान आंदोलन की झलक दिखाते हैं। तब रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे आम भारतीयों को भून दिया गया था और अब इधर भी कुछ वैसे ही दृश्य पिछले कुछ महीनों में हमें किसान आंदोलन के दौरान देखने को मिले हैं। खैर, एक दृश्य में भगत सिंह की उस एतिहासिक तस्वीर को पर्दे पर जिंदा करने की कोशिश की गई है, जिसमें वो जंजीरों में बंधे हुए जेल के भीतर खाट पर बैठे हुए नजर आते हैं। 'सरदार उधम' ण्क कदम आगे की फिल्म है, जो बतौर फिल्म राहत देकर तो गुजरती है, लेकिन यह सवाल भी पूछती है कि आखिर इतने बड़े नरसंहार के लिए ब्रिटेन ने आज तक माफी क्यों नहीं मांगी?

विक्की कौशल के काम की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। उधम सिंह के किरदार में विक्की जमते हैं। कई दृश्यों में उनकी मासूमियत किरदार को ताकतवर करती है, तो कई दृश्यों में जो गुस्सा स्क्रीन पर धीमे से चाहिए होता है, वो विक्की डिलीवर करते हैं। कोर्ट के एक दृश्य के दौरान विक्की कौशल जिस ढंग से क़ानून और मानवाधिकारों के तर्क की धज्जियां उड़ाते हैं, वो संवाद दिलचस्प और प्रभावी ढंग से शूअ हुए हैं। विक्की ने एक नायक को पर्दे पर जिंदा कर दिया है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। उधम सिंह की गूंगी प्रेमिका के किरदार में बनीता संधू निश्चल और आकर्षक नजर आती हैं। भगत सिंह के किरदार में आमोल पाराशर जमते हैं।  

स्क्रीनप्ले
फिल्म का स्क्रीनप्ले या यूं कह लीजिए कि इस शानदार दस्तावेज को शुबेंदु भट्टाचार्य और रितेश शाह ने मिलकर लिखा है। स्क्रीनप्ले कई जगह और टाइट किया जा सकता था, लेकिन कई जगह इसका खिंचना ही इसकी ताकत बन जाता है। मसलन विक्की कौशल का जालियांवाला बाग में गोलीकांड के बाद लाशों को ढोने का दृश्य या फिर भगत सिंह और उधम के बीच का वो संवाद जिसमें वो संगठन को चलाने का जिक्र कर रहे हैं। कुछ मिलाकर इस फिल्म के स्क्रीनप्ले को अच्छा कहा जा सकता है, जिसका अपना एक मिजाज और चाल है।

सिनेमेटोग्राफी
इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी सिनेमेटोग्राफी ही है। अविक मुखोपाध्याय ने कुछ दृश्य तो पेंटिग्स सरीखे कैद किए हैं। कोहरे से भरे हुए खेतों के बीच से गुजरता हुआ नायक हो या फिर 1920 की लंदन की गलियां... अस्पताल के हृदयविदारक दृश्य हों या फिर मैदान पर गिरती-बिखरी लाशें...अविक का कैमरा दृश्यों को जीवंत कर देता है। फिल्म का टोन सॉफ्ट है और कैमरे पर कॉस्ट्यूम्स और सेट्स यथार्थ का जाल बुन देते हैं। 

फिल्म थोड़ी लंबी है। चंद्रशेखर प्रजापति कई जगहों पर एडिटिंग को चुस्त रख सकते थे। तकरीबन 2.30 घंटे की इस लंबी फिल्म को छोटा किया जा सकता था। इसके इतर दीपांकर जोजो चाकि और निहार रंजन सामल ने शंतनु मोइत्रा के ओरिजनल स्कोर की मदद से धुनों की तय लय में कहानी को गति दने वाला साउंड डिजाइन किया है, जिसमें लाशों को ढोते नायक की फूली हुई सांसे भी सुनाई देती है और थककर लड़खड़ाते कदमों को थामने की जद्दोजहद भी जिंदा होकर स्क्रीन पर उभर आती है। मोबाइल की स्क्रीन कई बेहतरीन दृश्यों को महसूस करने के लिए छोटी पड़ जाती है। ये फिल्म सिनेमाहॉल में रिलीज होती, तो निश्चित तौर पर यह भारतीय दर्शकों को समृद्ध करने के साथ ही सिनेमा देखने का शऊर भी सिखा देती। 

'सरदार उधम' को आप क्रिटिक की रेटिंग्स से परे रखकर देखिए, कई फिल्मों के लिए रेटिंग्स बेमानी और कमतर होती हैं। 

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