पवन कुमार विभिन्न दृश्य माध्यमों के लिए वृत्त-चित्र लेखन, विज्ञापन लेखन, कथा, पटकथा, संवाद लेखन; संगीतकारी व गीतकारी के पुराने खिलाड़ी हैं। इसके अलावा वो कविता, कहानी अनेक विधाओं में विपुल लेखन करते हैं। कुल मिलाकर वो 'हिलांश' के मूल मिजाज के करीब के लेखक हैं। फिलवक्त उन्होंने अपना आशियाना मुंबई में बनाया हुआ है और यहीं से वह अपनी रचनात्मक यात्रा को आगे बढ़ा रहे हैं।
कहानी चाहे फिल्मों की हो या साहित्य की, अगर इनका मानवीकरण किया जाए तो भारत के संदर्भ में आप इसे एक कुपोषित, अर्धकुमुलित आदमी समझ लीजिए और इसे उस मैराथन में शामिल ही मत कीजिये, जिसमें बड़े-बड़े धावक भागीदारी करते हैं। असल में इतनी ही कमज़ोर हैं, भारत की कहानियां! खासकर फिल्मों की पटकथाओं की अगर बात करें।
विश्व के परिप्रेक्ष्य में भी कहानी का मौजूदा स्वरूप देखें, तो हम पाएंगे कि आजकल की कहानियां राजनीतिक उपद्रव पैदा कर चर्चा ज़रूर बटोर लेती हैं, पर सार (Substance) के मामले में ये दिनों-दिन कमजोर होती जा रही हैं। यह ह्रास इतने मंथर गति से हो रहा है कि लोगों के बीच परिचित सा नहीं हो पा रहा और लोग इसका संज्ञान करें भी तो कैसे! दर्शक की हैसियत से भी उनकी परखने वाली कसौटी कमज़ोर हो गयी है। कहानी लिखना हो या परखना, होता वैचारिक शक्ति के बूते ही है और दुर्भाग्यवश इस शक्ति का आजकल क्षय होने लगा है। मेरे पास ऐसा कहने के पर्याप्त वजहें हैं।
हितोपदेश और कहानी में अंतर
'एक भिखारी भोजन के अभाव में सड़क किनारे भूखा मर रहा था। एक धनिक ने सड़क पर गाड़ी रोककर पीछे आती गाड़ियों की आवाजाही को बाधित कर उस भिखारी को ख़ुद अपने हाथों से पास पड़ा बिस्कुट खिलाया। रुकी हुई गाड़ियां शोर मचाती रहीं, पर धनिक अपनी गाड़ी में तब तक नहीं लौटा जब तक उसने अपने हाथों से उस भूखे भिखारी को खिला न दिया।'
मेरी बीवी ने जब यह कहानी पढ़ी तो कहानी पर, कहानी के हीरो पर और उसके हीरोइज्म (Heroism) पर ताऱीफी जुमले वारने लगी। मैंने जब अपनी बीवी से कहा कि जो उसने पढ़ा वह कहानी नहीं, हितोपदेश था तो वह हैरान ही गयी। जी हां, कहानी का आदर्शवादिता से कोई सरोकार नहीं। आप जिनको आदर्श के मापदंड पर खरा पा रहे हैं, वो कहानियां नहीं उपदेश हैं। वे अच्छी बातें करते हैं, इसलिए रुचिकर लगते हैं, पर वे कहानी हरगिज़ नहीं हैं। कम से कम मेरे लिये तो नहीं!
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असल में मुझे- 'किसी धनिक द्वारा भिखारी के कटोरे में सिक्का देने की कहानी में उतनी मज़बूत सम्भावना नहीं दिखती, जितनी कि किसी धनिक का किसी भिखारी के कटोरे से सिक्का उठा लेने में।' कहानी नौ रसों के कूज़े में से किसी भी कूज़े के रस का पान कर ख़ुद को पुष्ट करती है, पर इसमें एक सत्व अवश्य होता है, और वह है टकराव (Confliction)।
"विभावानूभावा व्याभिचारी स़ैयोगीचारी निशपाथिहि" अर्थात विभाव, अनुभव और व्याभिचारी के मिलन से रस का जन्म होता है। व्यभिचार ही टकराव है, खलनायक है। अंतरात्मा का संघर्ष (Confliction Of Conscience) के रूप में यह सात्विक रूप में भी हो सकता है या गब्बर सिंह के रूप में कायिक रूप में भी। असल में इसलिए परम आदर्शवादिता की स्थिति कभी कहानी में बनती हीं नहीं।
मेरी आंखों ने बहुत सारी फ़िल्मों को हिट होते देखा है। फ़िल्में कभी जिंगोइज्म (Jingoism) की नाव पर बैठकर, कभी नारी की नंगी पिंडलियों से चिपककर, कभी सुपरस्टार की कीर्ति आभा से गुंथ कर क़ामयाबी तक ज़रूर पहुंच जाती हैं, पर क्या वे वाकई कहानी के सच्चे प्रतिमानों पर खरी उतरती हैं? आइये इसका जवाब ढूंढते हैं।
कौन सी कहानी होती हैं अच्छी?
कहानियां या कहानियों के पूरक दृश्य दो तरह के होते हैं। एक जिससे दर्शक ख़ुद को पूरी तरह से जोड़ (Stoutly Relate) लेते हैं, और दूसरा जिससे दर्शक ख़ुद को सूक्ष्म रूप (Subtlely Relate) में ही सही, लेकिन जोड़ते जरूर करते हैं। पहले क़िस्म के दृश्य का उदाहरण है, फिल्म 'छपाक' में दीपिका के बदसूरत चेहरे को देख बच्चे का डर जाना। यह बड़ा जाहिर (Obvious) सा परिदृश्य (Scenario) है। इस क़िस्म की घटनाओं के हम कई बार प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं।
अब दूसरे किस्म के (Subtle Relation) दृश्य के उदाहरण के तौर पर याद कीजिये 'बधाई हो' का वह दृश्य जब अधेड़ मां-बाप के जवान बेटों को उनके मां के गर्भवती होने का पता चलता है। मैं आश्वस्त हूं कि इस दृश्य ने कइयों की गुज़िश्ता यादों में खलबली मचा दी होगी। कइयों को याद आयी होगी मां-बाप की ईश्वर रूपा छवि को मटियामेट करती पिता के दराज़ से मिली आपत्तिजनक क़िताब, पिता की जेब से मिला कंडोम, मां के बक्से से मिली माला-डी की गर्भनिरोधक गोलियां। याद आया होगा उन्हें तब पैदा हुआ मन का भयंकर विप्लव जो पवित्रता के घेरे के बाहर मां-बाप को स्वीकारने के लिए क़तई तैयार हीं नहीं था।
यह ऐसी घटना है जिसे सामाजिक शर्मिंदगी (Social Embarrassment) के डर से हम भी नहीं स्वीकारना चाहते। हमारे चोर मन में वह घटना अपराध बोध या क्षोभ के साथ अंकित रहती है, पर जब हम उसी पोशीदा चीज़ को पर्दे पर मूर्तमान होता देखते हैं, तब हमारा चोर मन हमसे कहता है- 'अरे ऐसा मेरे साथ भी हुआ था, ऐसी सोच मेरे अंदर भी तो उपजी थी।' हम हैरान होते हैं कि कहानीकार ने हमारी तब की मनोदशा को, जिसे हमने सबसे छुपाये रखा आखिर कैसे कलमबद्ध किया! हमें वह देख अच्छा भी लगता है कि हमारी परिभाषावली में विकार के रूप में संज्ञानित उस मानवीय पहलू के हम अकेले निर्वाहक नहीं हैं, और भी हमारी सोच के मौजूद हैं। मैं इस दूसरे क़िस्म की कहानी या दृश्यों का मुरीद हूँ।
('बैंड बाजा बाराती' में अनुष्का और रणवीर का किरदार।)
अनुलोम विलोम का संयोजन
मैंने कहानी के संदर्भ में ऊपर एक बात कही थी,'सदानीरा सरिता सा सतत प्रवाह'। कहानी का नियम हो न हो पर प्रवाहिक निर्बाधता का अपरिहार्य नियम है अनुलोम विलोम का संयोजन। गति के साथ ठहराव का संयोजन, श्वेत के साथ श्याम का संयोजन, दुःख के साथ सुख, हर्ष के साथ विषाद का संयोजन। पर्वत श्रृंखला को देखिए, उत्तल और अवतल का क्रम दिखेगा। ईसीजी स्क्रीन देखिये, आरोह अवरोह का सिलसिला दिखेगा। यह व्युत्क्रमानुपाती समीकरण ही जीवन का निर्बाध लय पैदा करता है, ख़ूबसूरती पैदा करता है।
चाहे कितना भी अच्छे एक्शन से भरा दृश्य क्यों न हो, एक सीमा के बाद यह दिमाग को थकाने लगता है। अतएव एक्शन के बाद ठहराव का होना आवश्यक है। एक्शन से भरपूर फ़िल्म में ठहराव देने के लिए ही ठहराव पैदा करते गाने की अभिव्यंजना की जाती है। इसी तरह ठहराव की ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी अवधि फ़िल्म को बोझिल बनाने लगती है। इसी बोझिलपन को तोड़ने के लिए निर्देशक फ़िल्म के बीच-बीच में रोमांचक घटना (Breezy Incidemt) का इस्तेमाल करते हैं। कब, कितने अंतराल में यह व्युत्क्रमानुपाती तत्व लाये जाएं, इसी का इल्म और इल्हाम सफ़ल फ़िल्मकारी है। एक और ग़ौरतलब बात..निर्बाध प्रवाह में झटका (Jerk) नहीं होता, एक लय होती है।
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कहानी भले थ्रिलर या सस्पेंस जॉनर (Genre) की क्यों न हो अगर कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद स्वंय को उधेड़ नहीं पाती है, यदि कहानी को समझने में मशक्कत लगती है, अगर कहानी में भद्दापन (Clumsiness) है, क्लिष्टता है तो समझ लीजिए कि कहानी, फिर कहानी नहीं जिगशॉ पज़ल (Jigsaw Puzzle) है।
दृश्य मन में ऐसे धंसना चाहिए, जैसे मक्खन में चाकू
सस्पेंस जॉनर वाली फ़िल्मों में दर्शकों को सही अंदेशे से दूर रखने के प्रयास में कई बार कहानीकार तर्क के तारतम्य को तोड़ देते हैं। फिर अचानक कहानी के क्लाइमेक्स में एक रैंडम सीन से उस मिसिंग तर्क को फिक्स करते हैं या उसका जस्टिफिकेशन करते हैं। हालांकि, वे भूल जाते हैं कि ऐसा कर उन्होंने फ़िल्म के लंबे हिस्से में दर्शकों की असहजता और असंतुष्टि मोल ले ली है।
एक ओर फ़िल्म धारा प्रवाह चल रही होती है, दूसरी ओर क्लाइमेक्स के चन्द सेकेंड का जस्टीफिकेशन देख दर्शक उस टूटे गैप को भरने वापस नहीं लौट सकता। अगर वह ऐसा करेगा तो मौजूदा दृश्यों को चूक जाएगा। घर लौटकर विचारकर दर्शक फ़िल्म से ज़बरदस्ती की संतुष्टि तो निचोड़ सकता है, लेकिन फ़िल्म के एक लंबे हिस्से तक जुड़ी उसकी असहजता, उसके अप्रसन्नता (Displeasure) का क्या?
फ़िल्म वही अच्छी होती है, जो कहानी की सुघड़ता अंत में स्थापित न करे बल्कि हर दृश्य में उस सुघड़ता को बरकरार रखे। कुछ लोग तजस्सूस (Curiosity) को हर फिल्म का अपरिहार्य अंग मानते हैं और कोशिश करते रहते हैं, ज़बरदस्ती की जिज्ञासा पैदा करने की। जिज्ञासा अगर किसी फ़िल्म का अपरिहार्य हिस्सा हो सकती है, तो वह है सस्पेंस जॉनर वाली फ़िल्में। इससे इतर फ़िल्में ज़रूरी नहीं कि जिज्ञासा के तत्व को स्थान दें।
कॉमेडी फ़िल्में, ट्रेजेडी फ़िल्में अगर चाहें तो जिज्ञासा का चोला पहने बगैर, मनोरंजन कर सकती हैं। 'पिंक', 'पीकू' और यहां तक कि थ्रिलर फ़िल्म 'बदलापुर' में भी जिज्ञासा अपने मुखर रूप में नहीं। आजकल 'जिज्ञासा' के ज़बरदस्ती के निर्वहन के लिए कहानी को नॉन लाइनर खांचे (Non Linear Structure) में रखा जाता है। कई बार ऐसा प्रयास कहानी से स्वच्छंदता (Spontaneity) छीन, उसे सिंथेटिक बना देती है।
कई बार कहानी का सरल और सीधा (Easy and Linear) निस्सरण ही कहानी में पर्याप्त आकर्षण पैदा कर देता है। इसका ताज़ातरीन उदाहरण है वेब सीरीज 'पंचायत'। भले 'पंचायत' आलातरीन के विशेषण से नवाज़े जाने लायक नहीं पर इसकी सादगी दिल को छूती ज़रुर है।
कहानी या दृश्यों की लेयरिंग
जिस तरह गाने को सुरीला वजूद देने के लिये उसपर कई साजों की लेयरिंग (Layering) होती है, ठीक उसी तरह कहानी में जज़्ब पैदा करने के लिये भी उसमें कई लेयर्स का होना ज़रूरी है। फ़िल्म 'छपाक' के पूर्ववर्णित दृश्य के हवाले से ही, मैं अपनी बात को समझााने की कोशिश करता हूं-
"बच्चे का तेजाब से जली लक्ष्मी (दीपिका) को देख डरकर चीखना यह फिल्मकार का ध्येयित लक्ष्य है, लेकिन फ़िल्म में फ़िल्मकार इकहरा रास्ते से चलकर इस लक्ष्य तक पहुंचता है। इसी लक्ष्य तक कुछ इस तरह के लेयर्ड रास्ते से भी पहुंचा जा सकता था।"
('छपाक्' के एक दृश्य में दीपिका पादुकोण।)
दीपिका का किरदार लक्ष्मी तेजाब से जलने के बाद अपना सौंदर्य खो बहुत तनाव (Dipressed) में है। मां-बाप अपनी बेटी को डिप्रेशन से उबारने की नीयत से ज़िद कर साथ सिनेमाहॉल ले जाते हैं। फ़िल्म शुरू होने के बाद आया एक परिवार अंधेरे में लक्ष्मी की बगल वाली सीट में बैठता है। उस परिवार में एक छोटा बच्चा है जो अंधेरे में लक्ष्मी के साथ बेसाख़्ता खेला जा रहा है। लक्ष्मी को बच्चे का चुहलपन बड़ा भा रहा है। अचानक टॉर्चमैन किसी को सीट दिखाने के क्रम में लक्ष्मी के चेहरे पर लाइट फेंकता है। बच्चे की नज़र रोशनी के घेरे में दिखते लक्ष्मी के कुरूप चेहरे पर पड़ती है। बच्चा डर कर चीख पड़ता है। बच्चा लगातार रोता रहता है। दर्शक परेशान (Disturbed) हो रहे हैं और लक्ष्मी शर्मिंदगी और झेंप के बीच झलते हुये सिनेमाहॉल छोड़ देती है।
इस दृश्य में वास्तविक सीन (Original Scene) के मुक़ाबले ज़्यादा विजुअल इंटेंसिटी (Visual Intensity) है। मनोभाव की भी बात करें तो पहले के दृश्य में सिर्फ दीपिका का आहत भरा मनोभाव था, इसमें समाज की उदासीनता भी दृश्यमान हो उठती है।
लेयरिंग का एक अन्य बेहतरीन उदाहरण है 'लस्ट स्टोरी' की विक्की कौशल वाली कहानी का आंरभिक और अंतिम दृश्य। शुरुआती दृश्य में विक्की कौशल का किरदार पारस जब एक रेस्त्रां में एक लड़की मेघा से मिलकर उसे शादी का प्रस्ताव देता है, तो वह शादी के प्रस्ताव को लेकर उधेड़बुन में पड़ जाती है। मेघा निर्णय लेने (Decision Making) में मज़बूत नहीं है। उलझल (Confusion) उसकी मूल प्रवृति (Basic Tendency) है। इसलिए उस रेस्त्रां में मेघा के लिए आइसक्रीम का चुनाव पारस करता है।
मेघा की पारस से शादी हो जाती है। अंतरंग पलों में मेघा को अहसास होता है कि पारस नपुंसक (Impotent) है। ख़ुद की शारीरिक संतुष्टि (Physical Gratification) की कोशिश जब मेघा को ससुराल वालों की नज़रों में विलेन बना देती है, तब मेघा के पास मायके लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता।
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कहानी के इस आख़िरी मुकाम तक मेघा मुखर (Assertive) और विष्वास से भरी हुई हो चुकी है। इसलिए क्लाइमेक्स में पारस जब मेघा को मनाने उसी पुराने रेस्त्रां में मिलता है और उससे वापस लौटने की गुजारिश करता है, तब नये शेड्स यहां कहानी में दिखते हैं। इस दौरान पारस, मेघा के लिए पिछली बार की तरह इस बार भी आइसक्रीम ऑर्डर करना चाहता है, पर इस बार मेघा मुखर होकर आइसक्रीम के अपने पसंदीदा फ्लेवर की मांग करती है।
यह लेयर्ड दृश्य इस बात का द्योतक है कि नायिका मेघा अब अपनी पसंद-नापसन्द से समझौता करने वाली नहीं रही। कहानी की शुरुआत में पारस का प्रस्ताव और कहानी के अंत में पारस की गिड़गिड़ाहट कहानी का मुख्य दृश्य है। आइसक्रीम नायिका की मनोदशा को बताने वाली एक ख़ूबसूरत लेयरिंग है।
('लस्ट स्टोरी' के एक दृश्य में किआरा आडवाणी और विक्की कौशल।)
ऐसे ही फ़िल्म 'बैंड बाजा बारात' में अनुष्का से बात करते वक़्त रणवीर का बेपरवाही और बेक़ायदे से समोसे खाना भी विजुअल ब्यूटी को बढ़ाने वाली और एक साथ दो या अधिक मनोभावों को दिखाने वाली लेयरिंग का सुंदर उदाहरण है।इस दृश्य में बात की बात तो होती ही है, साथ ही साथ रणवीर के किरदार का बेतरतीबपना, बेढंगापना भी स्थापित हो जाता है।
लेयरिंग एक ही वक़्त में कई भावों को, कई मनोदशा को, कई स्थितियों को एक साथ पर्दे पर उकेर देती है। लेयरिंग अगर यह भी न कर रही हो तो भी विजुअल को ज़रूर निखारती है। मसलन सड़क पर चलता हीरो अचानक गाड़ी से उतारे जा रहे किसी भारी सामान से बाधित हो अपनी राह में थोड़ा भटक जाए या अपनी चाल की लय खो दे, यह एक सीधी सपाट चाल के मुकाबले बेहतर विजुअल होगा। खैर, मेरी सारी बातों का लब्बोलुआब यह है कि कहानी का व्याकरण नहीं होता पर विन्यास ज़रूर होता है, जो उसे संघनित करता है और उसे दिलचस्प बना देता है। कहानी के संबंध में और भी बातें आगे होंगी, तब तक के लिये इजाजत।
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