उत्तराखंड के पहाड़ों पर राजनीति और ठेकेदारी के गठजोड़ के 'विकास' से इतर जो थोड़ा बहुत कला-संस्कृति की प्रस्तुति का काम जिंदा है, उसमें 'पांडवाज' पिछले कुछ सालों में एक मजबूत हस्ताक्षर बनकर उभरा है। पहाड़ों पर लोकरंग के कई रूप अब भी जिंदा हैं। हालांकि, सिनेमा पिछले कुछ सालों में जितनी तेजी से चढ़ा था, उतनी ही तेजी से यहां से गायब भी होता चला गया। नरेंद्र सिंह नेगी के बाद के कुछेक कलाकार कुछ रचनाओं के साथ कुछ देर के लिए जले और फिर बुझ गए, लेकिन इधर कुछ नए प्रयोग शुरू हुए। इन नए प्रयोगों में चार साल पहले शुरू हुई पांडवाज की म्यूजिक सीरीज 'टाइमशीन' भी शामिल थी। इस सीरीज की खासियत इसके फिल्मांकन के तरीकों के साथ ही इसका संगीत भी है। 'यकुलांस' भी ठेठ पहाड़ों के भीतर ठेलकर ले जाता है, नए प्रयोग के साथ।
एक जनवरी साल 2017 में रिलीज हुए इसके पहले पार्ट में एक पुरानी 'लोरी' को रीक्रिएट किया गया था और फिल्मांकन के लिए इसकी स्क्रिप्ट खासी दिलचस्प लिखी गई थी। यहां तक कि इसमें एक वॉरियर की लोककथा को भी शामिल किया गया था। अब चार साल से भी लंबा वक्त गुजरने के बाद टाइममशीन का चौथा पार्ट रिलीज किया गया है, जो पहाड़ों में पलायन के दर्द को उकेरता हुआ एक लंबी कहानी और कविता में गुंथा हुआ है।
तकरीबन 28 मिनट के इस लंबे गाने के शुरुआती 18 मिनट का हिस्सा पार्श्व में बहती धुनों के संग किरदार के नजरिए से उसकी अकेली पड़ चुकी जिंदगी के भीतर दाखिल होता हुआ गुजर जाता है, जबकि दूसरे हिस्से में किरदार के नजरिए से दिखाया गया हिस्सा नहीं बल्कि ट्रेडिशनल शूट के जरिए किरदार की पूरी यात्रा कैमरे के सामने खुल जाती है। दो हिस्से के फिल्माकंन में हुआ प्रयोग दिलचस्प है।
सलिल डोभाल का कैमरा सरहद के गांवों और घाटियों से पहाड़ों के सबसे गहरे जख्मों को उत्सव के चित्रों के साथ खींच लाया है। इसमें रम्माण की झलक है, पांडवनृत्य के दृश्य हैं और उसके साथ चलते अकेले आदमी की फूलती हुई सांसों के साथ चलती जिंदगी है। 'यकुलांस' पहाड़ों की वीरानगी तक ले जाता है और उस धोखे के करीब भी, जिसका नाम 'राजधानी देहरादून' हो गया है। इस दफा कई दूसरे प्रयोग भी शामिल किए गए हैं। पॉपुलर गढ़वाली कविता को स्थानीय शैली में ही शामिल किया गया है। 'यकुलांस' पहाड़ों पर अकेले पड़ चुके एक आदमी की ही नहीं उसके कुत्ते, उसकी फसलों और वीरान घाटियों की यात्रा भी है।
'घुघूती बसूती', 'फुलारी', 'शकुना दे' और अब 'यकुलांस', पांडवाज की यात्रा लगातार विश्वसनीय बनी हुई है। इस दफा 'यकुलांस' में पांडवाज ने कुछ नए प्रयोग किए हैं। मसलन एक तय लय में बजती धुनों के साथ किरदार के परपेक्टिव से बहती वीरान पहाड़ संग कहानी और दूसरा पलायन पर मार करती जगदंबा चमोला की एक बेहद पॉपुलर गढ़वाली कविता 'यख सूक्यां मुंगर्योट रयां छन' (यहां सिर्फ मुंगरी के सूखे हुए डंठल बचे हुए हैं।) का यूज। ये दोनों ही प्रयोग खासे दिलचस्प हैं। 'यकुलांस' पलायन के बीच लोककला की समृद्ध झलक भी दिखाता है। सरहदी गांवों की लोकेशन का जिस खूबसूरती से प्रयोग हुआ है, वह दिलचस्प है।
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