फिल्मी पांडा कोई शख्स नहीं, बल्कि लेखक का किरदार भर है, जो अक्सर उम्दा सिनेमा को ग्रहण करने के बाद जिंदा हो उठता है। नतीजतन कुछ किस्से या समीक्षा की शक्ल में चीजें हासिल होती हैं।
मध्य भारत फनकारों की नगरी है, मुझे ये स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। क्या एक से बढ़कर एक रत्न उगले हैं इस जमीन ने... अब कुमार गंधर्व साहब को ही ले लीजिए। आज इस फनकार को याद करने का दिन है, उनकी आवाज को टिब्यूट देने और उनकी गायकी को सेलिब्रेट कर उन्हें सलामी देने का दिन है। आज ही के दिन वो धरती पर पधारे थे।, यानी कि 8 अप्रैल को। वो जब गाते थे तो टूट कर गाते थेधरती पर पधारे थे। उनकी गायकी में समय को भेदने का हुनर था, जो आज भी ताजा सा लगता है। उनकी अपनी आवाज पर गजब की हुकूमत चलती थीउनकी गायकी में समय को भेदने का हुनर था, जो आज भी ताजा सा लगता है। वो जो क़मर मुरादाबादी का शेर है न 'अब मैं समझा तिरे रुख़्सार पे तिल का मतलब, उसमें जो 'दौलत-ए-हुस्न पे दरबान बिठा रक्खा है....', उसमें जरा सी तब्दीली कर उसे कुमार गंधर्व के संदर्भ में कहा जाए तो, तब ये दरबान 'दौलत-ए-हुस्न' के बजाय कुमार गंधर्व के गले में बैठा हुआ नजर आता है, जो उनकी जादुई आवाज की हिफाजत में डटा रहा!
'मोरा झांझ मंजिरला' सुनिए... कुमार गंधर्व को याद कीजिए। मुझे इस जादुई शख्सियत के बारे में जरा देर से मालूमात हुई। मैं अगर मध्य भारत में नहीं भटकता तो शायद इस गायक को पहचान ही नहीं पाता या शायद बड़ी देर में मेरा तआरुफ़ इस जादुई फनकार से हो पाता। मैं इस शख्सियत की जमीन पर भी पहुंचा, जहां जीने की चाह ने उन्हें लाकर पटक दिया।। देवास, जहां कुमार गंधर्व ने अपनी कालजयी कृतियां रची।
डूबते-उतरते रागों के बीच मानो उनकी जीभ डांस करती हुई कहती हो 'मोरा झांझ मंजिरला'। जब वो गाते हैं, 'मंजी...मंजी....रला', ऐसा लगता है राग भोपाली को उसका असली उस्ताद मिल गया हो, जो सिर्फ गा नहीं रहा होता था, उस लम्हे को जी रहा होता था। काश कि मैं थोड़ा पहले पैदा होता और किसी शाम उन्हीं से सुन रहा होता 'आनंद करे सब... मोरा झांझ मंजिरला..'। ऐसा मजा मुझे नुसरत साहब को सुनने में भी आता है जब वो कहते हैं... 'तुम इक गोरखधंधा हो...'... या फिर राकेश चौरसिया और जाकिर हुसैन को सुनते हुए... कभी-कभी मुझे ये मारक मजा अरुणा सैराम को सुनते हुए भी मिलता है।
मुझे कई दफा समझ भी नहीं आता कि अरुणा कर्नाटकी संगीत में क्या राग छेड़ बैठी हैं, फिर भी घंटो सुन सकता हूं। पत्री सतीश कुमार जब मृदंग पर उंगलियां फेरते हैं, तब भी मुझे मारक मजा मिलता है। विक्कू विनायक्रम जब घट्टप पर 'टुन टुन' कर सुर उठाते हैं और अचानक उनकी थुलथुली गर्दन एक खास झटके से दाएं और बाएं जाकर लौटती है, वो खास थाप जो उन्होंने उस वक्त दी होती है, उससे तब तक श्रोता के दिल में छेद हो चुका होता है। जब कका विक्कू की उंगलियां एक घट्टप से दूसरे घट्टप पर दस्तक देती हैं, तो मानों वो श्रोता के कानों का इम्तिहान ले रही हों, 'कि देखूं तो जरा मेरी उंगलियों की सरसराहट से उपजे संगीत को तुम्हारे कान पकड़ भी पा रहे हैं, या नहींं। ... और फिर जब वो अपनी धुनों को अंत की ओर लिए चलते हैं, तो ऐसा लगता है मानों उन्होंने आस-पास के शिखर को अपने चरम पर पहुंचाकर शून्य में तब्दील कर दिया हो। वो जब घट्टप पर 'टंग टंग टंग' कर दर्शक-श्रोताओं को अपनी धुनों पर खींचते हुए समानांतर यात्रा पर चलने का निमंत्रण देकर उनकी उंगलियां थामते हैं, वो शमा तो कत्ल करने वाला होता है।
असल में ऐसा मारक मजा उस्तादों की चौखट पर ही मिलता है। जो मारक मजा देने का दावा करते हैं, उनको स्वत: योगी जी के वायरल वीडियो को सुन लेना चाहिए और उसके अंतिम क्षणों की वाणी को तो गंभीरता से लेना चाहिए।
खैर, मैं संगीत के इस जादू से जरा देर से गुजरा. मैंने संगीत के नाम पर केवल गजेन्द्र राणा को ही सुना था. ये बड़ी शर्म की बात है न! चलिए, हमारा तो वही स्टार था तब भाई। नरेन्द्र सिंह नेगी भी सुनते ही रहे होंगे...लेकिन वो मजा कहां आ पाता था! जब बिहार का युवा 'कमरिया लॉलीपॉप लागेलू' ... पर बौराए हुए शादी ब्याह में तिरपाल फाड़ रहा था, तब हम भी 'ढौंढा पोडिगे भैंसी' पर कोहराम ढाए हुए थे... हिन्दुस्तान का युवा एक जैसा है। उन्मुक्त... भौंडेपन में उलझा हुआ। जरा बड़े हुए तो फिर भूपेन हजारिका को सुनने लगे... और फिर धीरे-धीरे समझ आया कि नरेन्द्र सिंह नेगी साहब की गायकी तो ज्यादा उम्दा है! असली माल तो नेगी साहब के झोले में है... फिर उनके बाघ मारने से लेकर, आपदाओं तक के भीतर तक भिगो देने वाले लिरिक्स और उनकी उस खास शैली की गायकी से गुजरा, जिसने उन्हें हिमालय का बॉब डिलन बना दिया और पहाड़ियों को उनका ताउम्र का मुरीद।
गंधर्व साहब का बेलगाम (कर्नाटक) में एक कन्नड़ भाषी लिंगायत परिवार में पैदा हुए थे। 5 साल की उम्र में ही उनकी संगीत प्रतिभा के संकेत दिखने लगे थे और दस साल की आयु में वो मंच पर गाने लगे। ग्यारह साल की आयु में उनके पिता ने उन्हें संगीत की शिक्षा के लिए सुप्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत के उस्ताद बी आर देओधर के पास भेज दिया। गंधर्व संगीत की बारीकियों को इतनी तेजी से पकड़ रहे थे कि खुद उनके उस्ताद चौंक जाते थे। ...और हद तो तब हो गई जब बीस साल की उम्र आते-आते वे ख़ुद ही अपने संगीत विद्यालय में संगीत सिखाने लगे! उनके आलोचकों ने भी उनको संगीत के क्षेत्र का एक उभरता हुआ सितारा मानना शुरू कर दिया था, उनके पास सिवाय इसके और दूसरा आॅप्शन भी क्या था। कुमार साहब के गुजरने के 29 साल बाद भी उनके संगीत का जादू कायम है। आज कुमार गंधर्व को सुनने का दिन है, रागों को सुनने का दिन है... उस्ताद को याद करने का दिन है।
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