केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।
(भाग-5) शंभू नदी शांत सी बह रही थी। 2010 में आई बाढ़ ने इसमें बने पुल के पिल्लर पूरी तरह से ध्वस्त कर दिए थे। इन्हें ठीक करने की कछुवा गति को देख लगता नहीं कि ये कभी ठीक हो पाएंगे। फिर एक बिरादरी उन ठेकेदारों की भी है, जिन्हें आपदा काम दे जाती है, लिहाजा वो क्यों चाहेंगे कि आपदा में ध्वस्त सड़कें, पुलों और इमारतों को ठीक ढंग से सुधारा जाए। ऐसे कई मामलें हैं जब सड़कें बनने के एक-दो महीने के अंदर ही ध्वस्त हो गई या फिर कोई पुल अपने निर्माण से पूर्व ही गिर गया। ठेकेदारों को जो रोजगार मिलता है, उससे वो ताउम्र अलग नहीं होना चाहते। खैर, यहां काम कर रहा नेपाली परिवार आज होली की मस्ती में चूर था। हमें देख वो ठिठक से गए।
हमने उनके पत्थर से बने चूल्हे में थोड़ा पानी गर्म करने की इजाजत मांगी, तो वे खुद ही चूल्हा जला पानी गर्म करने में जुट गए। उनके अंदर का आतिथ्यभाव हम देख पा रहे थे। पानी गर्म हो चुका था। अपने नूडल्स के डिब्बों में गर्म पानी डालकर हम उन्हें धन्यवाद देकर जाने लगे, तो उनमें से एक ने बेहद सकुचाते हुये हमसे कहा- ‘भात-शिकार है, खा के जाओ साब।’ ऐसी दुर्लभ आत्मीयता की कल्पना आप दिल्ली या फिर ऐसे ही किसी और शहर में नहीं कर सकते।
हमने उनकी ओर अपना हाथ हिलाया और धीरे-धीरे विलाप गांव की चढ़ाई नापने लगे। वो होली की मस्ती में झूम रहे थे और हम उनका मजा किरकिरा नहीं करना चाहते थे। वैसे भी अभी वो गोश्त को साफ ही कर रहे थे और मेरे बाकी के दो साथी शाकाहारी थे, लिहाजा अकेले मेरे लिये तीन घंटे का इंतजार हमारे वक्त को जाया कर देता। थोड़ी चढ़ाई के बाद विलाप गांव आ गया। एक बाखली (मकानों की कतार) और दो अलग मकान दिखे। महिलाएं काम में जुटी हुई थी। धारे में प्यास बुझाने के बाद हम आगे बढ़ चले। किलोमीटर भर की चढ़ाई के बाद लमडर धार आया। किलपारा गांव को जा रहे इस रास्ते को देख एक बार को झुरझुरी सी हुई।
रास्ता तिरछा व खतरनाक था। 80 डिग्री का किलोमीटर भर का ढ़लान लिए इस पहाड़ी में पेड़-पौंधों का नामोनिशान भी नहीं था। नीचे पिंडर नदी के किनारे किलपारा ग्राम सभा के ओगन व माणिक तोक भी सिमटे-सहमे से दिखे। दो किलोमीटर के बाद किलपारा गांव दिखा। गांव के मंदिर में होली की विदाई के साथ ही आलू, पूरी, हलवे का प्रसाद बंट रहा था। प्रसाद लेकर हम गलियों से निकलते हुए गांव की सरहद को छूते हुये बधियाकोट के लिये खुद रही धूल भरी सड़क पर आ पहुंचे थे।
पिंडर नदी पर बने उस पुराने पैदल पुल से नीचे झांका तो देखा कि पिंडर आज खामोश सी बह रही है। पिंडर का हरा पानी अपनी ओर खींच रहा था। नदी का अपना अलग आकर्षण होता है। एक पल को हम तीनों ही नदी में उतरकर नहाने का इरादा पाल बैठे थे, लेकिन फिर आसमान में घुमड़ रहे बादलों को देखकर हमें अपना इरादा पीछे छोड़ना पड़ा। बारिश के वक्त पहाड़ी नदियों का कोई भरोसा नहीं रहता है। पुल पार करते ही कच्ची सड़क के किनारे माइलस्टोन लगा था, जहां से तीख दो किमी दूर था। पीछे मुड़ कर देखा तो बदियाकोट चार किमी दूर था। यानी कि हम अब तक बदियाकोट से 4 किमी का सफर तय कर चुके हैं।
खैर, तीख गांव को पार कर हम अब उनियां गांव पहुंच चुके थे। थोड़ी ही देर में बारिश शुरू हो गई। एक खास लय पर बरस रहे बादलों ने थोड़ी ही देर में बर्फ उड़ेलनी शुरू कर दी थी। हमने तेजी से सड़क किनारे दिख रहे प्राइमरी स्कूल में शरण ले ली। स्कूल के दरवाजे खुले हुये थे। अंदर दाखिल हुये तो वहां भी बारिश का पानी बिखरा हुआ था। कमरे की छत जो कि टिन से बनी हुई वो आधी जगह से गायब थी। मन खराब कर हम बाहर आ गये और स्कूल की हालत के बारे में सोचने लगे। उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों में स्कूलों का हाल बेहद खराब है। जर्जर भवनों में स्कूल संचालित हो रहे हैं और कई जगह तो भवन के नाम पर सिर्फ दीवारें रह गई हैं।
बाहर से जब स्कूल की इमारत को देखा तो समझ आया कि किसी जबरदस्त तूफान ने स्कूल को तहस-नहस कर दिया था। टिन की छतें तूफान में उखड़ने से मुड़ गई थी। पीछे से आया मलवा स्कूल के कमरों को तोड़कर अंदर भर गया था। स्कूल की हालत ने मुझे सौंग की याद दिला दी। सौंग में 18 अगस्त 2009 को हुए हादसे ने 18 मासूमों की जान ले ली थी। वहां भारी बारिश से पीछे की पहाड़ी से मलवा स्कूल के दो कमरों को तोड़कर अंदर आ गया था।
हमें अगले गांववालों से पता चला कि इस स्कूल को भी अगस्त 2009 की आपदा ने निगल लिया। आपदा के बाद सोराग की सभापति रूमली देवी विद्यालय के लिए जमीन देने के लिये तैयार थी, लेकिन ठेकेदार को उसमें अपना फायदा नहीं दिखा तो उसने अड़ंगा लगा दिया। नया स्कूल अब गांव के बड़े गधेरे के पार कहीं दूर बना हुआ है। बारिश के दिनों में गधेरे में पानी बढ़ जाता है और इन दिनों में कोई भी बच्चा स्कूल नहीं जा पाता है। इस नई समस्या का कोई हल नहीं है, सिवाय इसके कि गांववाले ठेकेदार को कभी-कभार कोस भर देते हैं। लगभग 45 मवासों (परिवारों) को अपने में समेटे उनियां गांव सोराग की ग्राम सभा है।
हमने उनियां प्राथमिक विद्यालय के आगंन में ही टैंट लगाने की तैयारियां शुरू कर दी थी। इधर हम टैंट लगाकर फाारिग ही हुए थे कि गांव से होली की मस्ती में झूमता हुआ एक शख्स वहां चला आया। उस शख्स ने कच्ची शाराब पी हुई थी। हिमालयी गांवों में कच्ची शराब आम बात है। इसे अलग-अलग तरीकों से बनाया जाता है और कुछ गांवों में तो बाकायदा देवता को घर में बनी हुई सबसे बेहतरीन शराब परोसी जाती है। जो शख्स शराब की मस्ती में हमारे सामने था, वो असल में गजल सम्राट गुलाम अली का दिवाना था।
वो गुनगुनाने लगा और फिर एकदम से बारिश तेज होने लगी। अफसोस कि वो हमें ज्यादा गजलें नहीं सुना सका और बारिश ने उसे वहां से भागने पर मजबूर कर दिया। अंधेरा घिर चुका था। गांव से देर तक हो-हल्ले की आवाजें आती रही। सुबह बारिश थम चुकी थी। गांव धुला-धुला सा लग रहा था। हमने कुछ देर उस सुबह का लुत्फ लिया और फिर टैंट समेटकर आगे बढ़ गये।
कच्ची सड़क के साथ चलते हुये हम अब विनायक धार पहुंच चुके थे। विनायक धार बेहद खूबसूरत जगह है और यहां से हिमालय की चोटियां अलग अहसास जगाती हैं। त्रिशूल, मृगथूनी, भानूटी चोटियों की खूबसूरती यहां से देखते ही बनती है। विनायक धार में बचूली देवी का ढाबा है। 1983 की बाढ़ में कर्मी में उसका मकान बह गया था। उसके बाद विनायक धार में झोपड़ी बनाकर ही बचूली देवी ने मजदूरों के साथ ही आने-जाने वालों के लिए खाना बनाकर अपनी गुजर बसर करनी शुरू कर दी थी। अब यह उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। बाढ़ से गांव में जो थोड़ी जमीन बच गई, उसमें दुकान बनाकर लड़का अपनी गृहस्थी चला रहा है। हमने वहां मैगी खाई और पुराने पैदल रास्ते से नीचे कर्मी गांव की ओर चल पड़े।
(बचूली देवी अपनी बहू के साथ।)
दूर कर्मी गांव के ऊपर कच्ची सर्पाकार सड़क में जीपों को रेंगते देख कदमों की रफ्तार बढ़ाने का कोई फायदा नहीं रहा। सड़क में पहुंचे तो देखा कि जीपों की छतों में तक लोग बैठे हुये थे। हमने पैदल ही सड़क नापनी शुरू कर दी थी। घंटा भर चलने के बाद उस सड़क पर धूल उड़ाती हुई एक यूटीलिटी वैन आई। उस खुली वैन में भेड़ों के ऊन से भरे हुये बोरे थे, जिनपर बैठकर हमें यहां से आगे की यात्रा करनी थी। पेठी, चैढ़ास्थल, झंडीधार, लोहारखेत की कच्ची सड़क में हिचकोले लेती वैन के सौंग में सुरक्षित पहुंचने पर हमने राहत की सांस ली। कई सौ मीटर खाई वाली जगहों के ऊपर दौड़ती वैन दहशत पैदा करने के लिये काफी थी और फिर सड़क की हालत इसे बढ़ाने में योगदान तो दे ही रही थी।
सौंग में भराड़ी जाने के लिए जो जीप खड़ी थी, उसे देखकर लगा कि वो अपनी उम्र बहुत पहले पार कर चुकी होगी। वो शायद पहाड़ी से दो टप्पे भी न झेल पाये और बिखर जाए, ऐसी स्थिति थी उस जीप की, लेकिन क्या किया जाए विकास की परिभाषा से कोसों दूर इन पहाड़ी इलाकों में ऐसी जीप मिलना भी नसीब का ही खेल है। यही एक मात्र सहारा है।
पर्यटन के नाम पर विकास का ढिंढोरा पीटती सरकार और उसके नुमाइंदो द्वारा उत्तराखंड की जो स्थिति बना दी गई है, उससे पर्यटन में तेजी आ पाना तब तक संभव नहीं है, जब तक कि पर्यटन क्षेत्रों को जोड़ने वाले मार्गों का हाल ठीक नहीं होगा। हिमालय के इन दुर्गम गांवों तक विकास की रोशनी को पहुंचने में लंबा वक्त लगने वाला है। वापस बागेश्वर लौटते हुये हम अपने पिछले दिनों को याद कर रहे थे, जब हम बुग्यालों और जंगलों को पार कर रहे थे। कितने शानदार लोग वहां हिमालयी गांवों में रह रहे हैं... कितनी खूबसूरत जगहें हैं वहां। वापस लौटकर हमें ये सबकुछ ही तो बताना था। फिर कभी न जाने कौन उन रास्तों को नापेगा... जो गढ़वाल से कुमाऊं के बीच पुरखों के पदचापों का इतिहास समेटे हुये अब भी वहां जमे हुये हैं।
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