'मछलियों की तलाश में भटकते हुए जब राज कपूर का काफिला सुनसान पहाड़ी गांव में पहुंचा'

लाइफ ऑन व्हील्स'मछलियों की तलाश में भटकते हुए जब राज कपूर का काफिला सुनसान पहाड़ी गांव में पहुंचा'

गौरव नौड़ियाल

गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।  

दिल्ली में नौकरी छोड़ने के बाद साल 2018 में 4 नवंबर को हम देहरादून पहुंच गए। यहीं से हमारा असल में सफर शुरू होना था। पहाड़ों का सफर। इस सफर के लिए हमने न तो कई रूट मैप तैयार किया और ना ही हमारे पास बाइक के बेहद उपयोगी उपकरण ही थे। बाइकर्स निकलने से पहले अपने साथ कुछ मामूली सी मगर बेहद जरूरी चीजें साथ में रख लेते हैं, मसलन एक्सट्रा ट्यूब, फिल्टर, स्पार्क प्लग, क्लच वायर और टायर खोलने के लिए टूल। बदकिस्मती से हमारे पास कुछ भी नहीं था। हम अपनी जर्नी को लेकर इतने उतावले थे कि हमने ये सब समय पर छोड़ दिया। ये वास्तव में गैरजिम्मेदाराना हरकत थी, जो शायद मैं दोबारा नहीं करूंगा। ...और रूट मैप इसलिए नहीं बनाया क्योंकि हम तय रास्तों पर नहीं चलना चाहते थे। या शायद मैं तैयारियों को लेकर आलसी हूं।

हां, हमने अपने लिए यात्रा के दौरान काम में आने वाला जरूरी सामान जरूर बांध लिया था, जिनमें हमारे कपड़ों के अलावा कुछ ड्रायफ्रूट्स, पेन किलर और एक कैमरा था। दिल्ली से देहरादून तक तो फिर भी बाइक का सफर खतरनाक नहीं था, लेकिन पहाड़ों पर एक मामूली सी लगने वाली क्लच वायर के लिए भी हमें पूरा दिन कहीं अटकना पड़ सकता था। 9 घंटों में हम सुस्ताते-भागते देहरादून पहुंच गए थे, सुरक्षित और सलामत। हमें कोई जल्दी नहीं थी।

हमने अपनी यात्रा के दौरान 64 दिन हिमालयी कस्बो, गांवों और शहरों में गुजार दिए। इस दौरान हम बर्फ से ढकी हुई चोटियो तक भी चढ़े, हमने दर्जनों दफा नदियों को पार किया और झरनों का  पानी पिया। ये शानदार यात्रा रही, जो ताउम्र जेहन में जाता रहेगी।

देहरादून में आकर तय हुआ कि हम राइडिंग बाद में शुरू करेंगे पहले हम दोनों हर की दून के ट्रैक पर निकलेंगे। इससे हुआ ये कि कुछ दिनों के लिए मेरी बाइक को सुस्ताना पड़ा। शुरुआत में शीतल को लगा कि कहीं इस ट्रैक का असर हमारी आगे की यात्रा और हमारे बजट पर न पड़े, लेकिन फिर बाद में हमने इस ट्रैक को पहले करने पर सहमती जताई। ये भी ख्याल आया कि कहीं इस ट्रैक के चलते हम पहले ही पस्त न हो जाएं, लेकिन फिर इस खूबसूरत ट्रैक को छोड़ने के ख्याल ने ही हमें दुखी कर दिया। अगले ही दिन यानि कि 7 नवंबर को दीपावली थी और इसे हमने इसी सफर पर सेलिब्रेट करने का विचार बना लिया था। प्रकृति के बीच तारों की छांव में इकोफ्रेंडली दीवापली। यही आइडिया था। शोर सराबे से दूर...

खैर, इस ट्रैक में हमारे साथ तीन अन्य साथी भी थे, जो दिल्ली से इसी ट्रैक के सिलसिले में पहुंचे थे। अब हम पांच लोग 6 नवंबर की सुबह 4 बजे उनींदी आंखों से ही अपने सफर में निकलने के लिए तैयार थे। देहरादून से हमने कार से निकलने का फैसला लिया और चल पड़े। सुबह सर्दी ज्यादा थी, लेकिन दिलचस्प बात यहीं से शुरू हो जाती है। दरअसल हमारा ड्राइवर यानी कि पारिजात को पहाड़ों पर कार चलाने का कोई अनुभव नहीं था और तब वो कार भी कभी-कभी ही ड्राइव करता था।

हमारे सामने उत्तरकाशी के खतरनाक पहाड़ों का सफर था और ड्राइविंग सीट पर पारिजात सवार हो चुका था। सच कहूं तो मेरी घिग्घी बंधी हुई थी, खासकर जब संकरी पहाड़ी सड़कों पर कोई ट्रक या बस आती हुई नजर आती। एक ओर अथाह गहरी खाईयां थी और सामने ढलवा रोड, जिन पर पारिजात सधे हुए ड्राइवर सरीखा गाड़ी उतार रहा था। धीरे-धीरे मेरा ये डर भी जाता रहा

सुबह जब हम देहरादून से निकले तो करीब 40 किलोमीटर दूर निकलने के बाद हमने उगता हुआ सूरज देखा। हम में से कईयों ने बहुत लंबे समय बाद उगता हुआ सूरज देखा था। हां मैंने जरूर दिल्ली में सुबह की शिफ्ट के दौरान आॅफिस जाते हुए सुबहें देखी थी, लेकिन वो सुबहें ऐसा रोमांच कभी नहीं जगा पाई। कालसी के आसपास बिखरा हुआ सघन वन क्षेत्र अब पीछे छूटने लगा था और हम पुरोला की ओर पहाड़ियों पर आगे बढ़ रहे थे। कालसी के बाद सड़क की चैड़ाई भी कमोबेश संकरी होती चली जा रही थी। कालसी में कुछ देर रुककर हमने उगते हुए सूरज को निहारा जिसकी चमकीली किरणों में हिमाचल की ओर पहाड़ अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे थे। सुबह की धूप जिनमें पहाड़ियां सुनहरी दिखने लगती हैं।

करीब एक घंटा सफर करने के बाद हम लखवर पहुंचे। लखवर वो जगह है जहां एक बांध बन रहा है और इसने मुझे उत्तराखंड के उन छोटे-बड़े तमाम बांधों की याद दिलवा दी जिनके विरोध में कई जनांदोलन हुए थे। उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों की लूट का ये सबसे सटीक नमूना है। जिस ढंग से सरकारों ने बांध बनाने के नाम पर प्रकृति को उजाड़ा है वो विज्ञान के अभिषाप से ज्यादा हमारे लिए तो कम से कम कुछ और नहीं है। काॅरपोरेट के साथ मिलकर सरकारों ने हमारी नदियों की अविरलता को रोक दिया है और इसके एवज में हमें लुभावने नारे दिए गए। विकास के...नारे। ...ये ख्याल लखवर से गुजरते हुए बार-बार मुझे परेशान करता रहा कि फिर पर्यावरण दिवस के उन नारों का क्या होगा जो बचपन में हमसे पूरी ताकत से कहलवाए जाते थे!

मुझे याद है वो इबारतें जो सड़कों पर कहीं टंगी होती थी, जिनपर लिखा होता था ‘नंगी धरती करे पुकार, वृक्ष लगाकर करो श्रृंगार’... यहां तो सरकारें ही धरती के कपड़ों को फाड़ने पर उतारू हैं। अफसोस कि जनांदोलन पूरे देश की तरह यहां भी कुचले गए और अंततः सरकारों ने बांध बनाकर तबाही मचाई। जो एक्टिविस्ट इसके विरोध में थे उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण पुरस्कारों से नवाजकर जनता को यह जता दिया गया कि हम भी पर्यावरण के ही हितैशी हैं... ये मजाक है और मैं इस ख्याल को यहीं छोड़ देना चाहूंगा...

हम जौनसार और रवांई की खूबसूरत जमीन की ओर बढ़ रहे थे। लखवर और बांधों के जख्म इस यात्रा में अब पीछे छूटने लगे थे। बाईं ओर अब यमुना और करीब आ रही थी। यमुना असल में यहीं मोक्षदायिनी है, दिल्ली के करीब आते-आते तो ये ‘विष’ बन जाती है। हम सब इस पहाड़ी सफर पर अब पस्त होने लगे थे, पर बार-बार बदलते लैंडस्केप्स नींद भगा दे रहे थे। इस दौरान कई जगहों पर हम इठलाती यमुना को निहारने के लिए कार से नीचे उतर आए। नाश्ता किए हुए भी अब काफी वक्त हो चुका था। लखवर से निकलने के बाद हमने नैनबाघ में नाश्ता किया। विशुद्ध उत्तर भारतीय नाश्ता... पराठें, अचार और दही। हां चाय भी पी और फिर हम निकल पड़े... इस सफर में खाने को लेकर हमारी सबसे ज्यादा दिक्कतें बच्ची के साथ ही हुई। कुक्कू खाने को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आती और यही हमारे लिए सबसे मुश्किल था। यात्रा के दौरान आपको मनचाहा खाना भुलाना पड़ता है और कई दफा मन मारकर अनचाहा भी खाना होता है। इसके बाद हम डामटा को पीछे छोड़ते हुए आगे नौगांव की ओर बढ़ गए।

डामटा बेहद दिलचस्प बाजार है। फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ की शूटिंग के दौरान यहां सिनेमा की मशहूर शख्सियत रहे राजकपूर आए थे। एक होटल में बाकायदा उनकी खाना खाते हुए तस्वीरें लगी हुई हैं। ये बेहद दिलचस्प किस्सा था। असल में राजकपूर आस-पास ही शूटिंग कर रहे थे। शाम को जब शूटिंग खत्म हुई और रात के खाने की तैयारी शुरू हुई तब राजकपूर ने अपनी टीम से मछली खाने की इच्छा जताई। जाहिर है जब आस-पास मछली नहीं मिली तब कई किलोमीटर गाड़ी चलाकर टीम डामटा पहुंची। डामटा में यमुना नदी की ताजी मछलियां मिलती हैं। खैर, राजकपूर का काफिला जब पहुंचा तब दुकानदार घर जाने की तैयारी कर रहा था। उसके कुछ आखिरी ग्राहक वहां खाना खा रहे थे।

राजकपूर की गाड़ी से एक आदमी उतरकर आया और उसने दुकानदार से मछलियों के बारे में पूछा। दुकानदार ने उस शख्स से कहा कि बिल्कुल उसके पास मछलियां और खाना दोनों उपलब्ध है। राजकपूर आए और खाना परोसा गया। दुकानदार को इस बात का आभाष भी नहीं था कि उसके सामने राजकपूर जैसी शख्सियत बैठी हुई है। रात गए ग्राहकों का आना नई बात नहीं थी। डामटा से होकर ही यात्री यमनोत्री जाते हैं, लिहाजा देर रात भी ग्राहक आना कोई नई बात नहीं है। संयोग से होटल का नियमित ग्राहक जो कि पास में ही स्टेट बैंक का मैनेजर था, खाना खाने के लिए पहुंचता है।

स्टेट बैंक के मैनेजर ने कई दफा राजकपूर को टीवी पर और फिल्मों में देखा था। उसकी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं था। बैंक मैनेजर को तो मानों सामने उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना पूरा होता हुआ दिखा हो... वो राजकपूर के पास गया और उसने उन्हें छूकर देखा। राजकपूर जानते थे कि ये कोई फैन होगा. वो चुप रहे और फिर जब वो शख्स उन्हें छूना बंद कर चुका था तब उन्होंने उस शख्स से पूछा ‘हाउ आर यू जेंटलमैन! मैं ही हूं... राजकपूर’ मैनेजर ने राजकपूर का शुक्रिया अदा किया और दुकानदार को राजकपूर के बारे में बताया।

दुकानदार ने हैरानी जताई और वापस अपने काम में जुट गया। ये वो दौर था जब पहाड़ों पर टीवी कुछ ही लोगों के पास होता था। बैंक मैंनेजर ने अपने ही स्टाॅफ के एक आदमी को फोटोग्राफर को बुलवाने के लिए भेजा। करीब आधे घंटे बाद फोटोग्राफर मौजूद था। मैनेजर ने राजकपूर की कुछ तस्वीरें खिंचवाई और राजकपूर खाने की तारीफ कर अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गए। गाड़ी में बैठकर राजकपूर ने होटल के मालिक को बुलवाया और उसके हाथ में 50 रुपये का नोट रख दिया। यह बात 1984 की है। आज भी राजकपूर के तस्वीरें डामटा के उस होटल की दीवारों पर लगी हैं। आज भी यहां मछलियां परोसी जाती हैं।

जारी है...

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