अशोक पांडे साहब सोशल मीडिया पर बड़े चुटीले अंदाज में लिखते हैं और बेहद रोचक किस्से भी सरका देते हैं. किस्से इतने नायाब कि सहेजने की जरूरत महसूस होने लगे. हमारी कोशिश रहेगी हम हिलांश पर उनके किस्सों को बटोर कर ला सकें. उनके किस्सों की सीरीज को हिलांश डी/35 के नाम से ही छापेगा, जो हिमालय के फुटहिल्स पर 'अशोक दा' के घर का पता है.
निर्मल को याद करता हूं तो सबसे पहले दिल्ली से नैनीताल तक के रात के एक सफ़र की स्मृति हो आती है. एक खटारा रोडवेज बस में हमें सबसे पीछे की सीटें हासिल हुईं. संभवतया सितम्बर-अक्टूबर का महीना था. दिल्ली में अभी सर्दी शुरू नहीं हुई थी सो हम बगैर स्वेटर-जैकेट के थे. उन दिनों वह और नीरज आरामबाग में किराए का एक कमरा लेकर रहते थे और स्ट्रगल किया करते थे. नीरज माने उसका एनएसडी का साथी और नैनीताल निवासी नीरज साह.
दिल्ली छोड़ते ही हमें भान हुआ कि हमारे दोनों तरफ की खिडकियों के शीशे गायब थे. मोहननगर आते-आते हल्की हवा चलना शुरू हो गयी जो अच्छी लग रही थी. हम बातों में मशगूल थे. हमारी बातें कभी ख़त्म ही नहीं होती थीं.
वह नैनीताल जाकर कुछ माह वहीं रहने वाला था और शैलेश मटियानी के ‘मुख सरोवर के हंस’ को आधार बनाकर चम्पावत के वीर अजुवा बफौल की दास्तान को नाटक की शक्ल देने का इरादा रखता था. इस नाटक के संगीत और शैली को लेकर वह बहुत उत्साहित था और दिन से ही मुझे और नीरज को इस बाबत हजारों बातें बताता रहा था. वही सिलसिला कुछ देर और चला. हमारे पेटों में जरूरत भर शराब और खाना था इसलिए आखिरकार थकान महसूस हुई और हम एक दूसरे पर लधर कर यथासंभव सो सकने की जुगत में जुट गए.
अचानक आंख खुली तो पाया निर्मल मुझे झकझोर कर जगा रहा था. वह कुछ कह रहा था लेकिन बहुत तेज रफ़्तार से भाग रही बस की खुली खिड़कियों से फरफर बहती आ रही ठंडी हवा की वजह से कुछ भी सुनाई देना संभव न था. उसके इशारे बता रहे थे कि उसे बुरी तरह ठंड लग रही थी. तुरंत बाद जो दूसरी सनसनी महसूस हुई तो समझ में आया कि मैं भी ठंड की वजह से ठिठुर रहा हूँ. नशा टूट चुका था. अंधेरी सड़क पर भागती बस की हेडलाइटों के सामने से दोनों तरफ के पेड़ उलटा भाग रहे थे. बस के भीतर खड़खड़ का उचाट संगीत बज रहा था और सभी सहयात्री आराम फरमाते लग रहे थे. हमारे ठीक आगे वाली सीट पर एक प्रौढ़ जोड़ा एक लेडीज शॉल को साझा किये एक दूसरे से चिपटा हुआ सोया था.
खुली खिड़कियों के कारण हमारी ही ऐसी-तैसी हो गयी थी. निर्मल के लम्बे बाल उड़ रहे थे और ठंड की वजह से उसका चेहरा सफ़ेद पड़ा हुआ था. मुझे उस पर दया आई और मैंने उसे अपनी गोद में सिर रख कर लेटने का इशारा किया. उसके ऐसा करते ही मैंने उसकी पीठ को अपनी बांहों से भरसक ढंकने की कोशिश की . उसे आराम मिला होगा , क्योंकि कुछ ही पलों बाद वह किसी पिल्ले जैसा कुनमुनाने लगा.
मुझे सिगरेट पीने की तलब उठी लेकिन निर्मल का सिर मेरी गोद पर था और सिगरेट पतलून की जेब के भीतर थी. असहाय होकर मैंने अपने वर्तमान पर विचार करना शुरू किया. जिस रफ़्तार से ठंडी हवा हमारी देहों पर वार कर रही थी उसे देखते हुए लगता था एक या दो घंटों के भीतर हम दोनों जम कर फौत हो जाएंगे. हमारी सुध लेने वाला कोई न था.
दस मिनट में निर्मल फिर से उठ गया. उसने मेरा चेहरा देखा होगा. वह मेरे कान के पास अपना मुंह लाकर जोर से चीखा –“अब तू सो जा!” मैंने नानुकुर सा किया होगा सो उसने जबरन मेरी मुंडी पकड़कर झुकाई और मुझे उसी अवस्था में अधलेटा बना दिया जिसमें वह खुद था. अपनी बांहों से उसने मेरी पीठ को उसी तरह ढांप लिया. यकीनन वह अच्छा लग रहा था.
याद नहीं पड़ता हमने बारी बारी कितनी दफा एक दूसरे को इस तरह सुलाते हुए ज़िंदा रखने की कोशिश की. फिर यूं हुआ कि हल्के कपड़ों से बनी कमीजों के भीतर हम दोनों की ऊपरी देहें बिलकुल बर्फ बन गईं और हम मरने की प्रतीक्षा करने लगे.
ऐसे में किसी जादू की तरह बस रुकी और कंडक्टर की आवाज आई कि गजरौला आ गया है. बस खाने के लिए आधे घंटे रुकेगी. गजरौला में एक सड़ियल से ढाबे पर बस रोकी गयी थी. कुड़कुड़ाते हुए बाहर निकले और किसी तरह सिगरेट जलाई.
कंडक्टर ने हमें देखा तो हमारी तरफ आया. मुझसे बोला - “आप वो हल्द्वानी वाले पांडे जी के बेटे हैं?” मेरे हाँ कहने पर वह पिताजी की प्रशस्ति गाने लगा. उसने दो मिनट तक ऐसा करने के बाद पूछा - “सब ठीक है ना?” बाद में उसने हमें चाय पिलाई, ड्राइवर वाले केबिन में शिफ्ट किया और ओढ़ने को अपना कम्बल दिया. बस के चलने के बाद जब हम काफी गर्म हो चुके थे निर्मल ने आँख मार कर कहा - “मजा आ गया यार!”
निर्मल के साथ इस तरह की स्थितियों में फंसने-उबरने के मेरे पास अनेक किस्से हैं. कला-साहित्य-संगीत के लिए हमारी दीवानगी में बहुत सारी चीजें साझा थीं. हमने उनका बहुत लुत्फ़ खींचा. उसके भीतर खूब मोहब्बत थी और वह यारों का यार था. हमारे क्रिकेटर दोस्त वीरेन्द्र तोमर उर्फ़ कल्ली के साथ उसका पुरातन याराना सारे शहर की ईर्ष्या बनता. दशकों तक नैनीताल में जहाँ भी दिखे दोनों साथ दिखे.
वह जितना बढ़िया अभिनेता था उससे बढ़िया गायक था. होली की तान खींचता तो सुनने वाले अवाक रह जाते. थियेटर से सीखी धुनें सुनाता तो अपनी संवेदनशीलता से हैरान कर देता. आँखें बंद कर वह गाया करता - “ओ रे भइया मिट्टी के इंसान!”
और क्या कमाल का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर. नैनीताल में सीजन अपने पीक पर होता तो टूरिस्टों से भरी माल रोड पर टहलते हुए वह यूं ही कुछ चुहल किया करता. एक बार वह चलते-चलते अचानक पूरा नीचे झुका और सड़क पर कान लगाकर बोला - “अबे शकील! मिला कि ना मिला!”
बहुत सारे टूरिस्ट ठिठक कर खड़े हो गए. अब वह बाकायदा नीचे बैठ गया और कान सड़क से चिपका दिया - “ना सुनाई पड़ रिया शकील बेटे!”
मुझे उसके ऐसे कारनामों की आदत थी. मैं उसके चारों ओर बढ़ती जा रही पर्यटकों की भीड़ को देख रहा था. कोई तीन-चार मिनट तक ऐसा करने के बाद उसने आँख उठाकर ऊपर देखा. करीब साठ-सत्तर लोग हैरान होकर उसे देख रहे थे. वह उठा और बोला - “आप लोग घूमो. फिकर मत करो. शकील कह रहा है रात को निकलेगा.” ठठाकर हँसते हुए उसने मेरे कंधे पर हाथ धरा और हम तेज-तेज क़दमों से टहलते हुए लाइब्रेरी की तरफ बढ़ गए.
ये उसके इंटरनेशनल स्टार-अभिनेता बन जाने के पहले के किस्से हैं. मेरे दोस्तों में प्रसिद्धि की इस ऊंचाई को छूने वाला वह पहला था. फिर यूं हुआ कि पहले कल्ली चला गया फिर निर्मल. कुछ महीनों के अंतराल में. जीवन में आप क्या करते हैं- लोगों को इकठ्ठा करते हैं. दोस्त बनाते हैं. उनसे सीखते हैं. उनके साथ यथासंभव जीवन का लुत्फ़ उठाते हैं. अपनी स्मृति के भंडार को समृद्ध बनाते हैं. अपने अकेलेपन को तराशते हैं.
लोग बताते हैं निर्मल के साथ बिताये समय को याद करते समय मेरे चेहरे पर खुशी झलकने लगती है. वह खुशी दरअसल उसकी आभा है जो वह मेरे पास छोड़ गया. आज होता तो इस साल उनसठ का होने वाला होता.
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