महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
हिमालय एक बेहद विस्तृत इलाके को समेटे हुये है। यह जितना विस्तृत है उतने ही आश्चर्यों और रहस्यों से भी भरा हुआ है। ये आश्चर्य यहां पायी जाने वाली जैवविविधता के कारण है, जिसमें से न जाने अभी कितने रहस्यों से पर्दा उठना बाकी है। यूं तो दुनिया में हर कोई हिमालय की जैवविविधता को बड़े व खूबसूरत जानवरों के जरिये ही पहचानता है, परन्तु यहां कुछ छोटे जानवरों का विचित्र संसार भी है। ऐसा ही एक जानवर है औटर, यानी कि ऊदबिलाव। ऊदबिलावबेहद शर्मीले स्वभाव का होता है और अपना पूरा जीवन मानवों से अदृश्य रहकर ही बिताता है। हाल ही में आईसीमोड के शोध में उत्तराखंड के ऊदबिलाव पर मंडराते खतरे की गंभीरता को लेकर चिंता जाहिर की गई है।
शोधकर्ताओं ने चिंता जताई है कि जिस तरह उत्तराखंड की जलवायु लगातार गर्म हो रही है, इससे इस शर्मीले जानवर के लुप्त हो जाने का खतरा गहराता जा रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि अभी तक उत्तराखंड में ऊदबिलाव की सही संख्या की जानकारी तक मौजूद नहीं है। ऊदबिलाव बेहद शर्मीले स्वभाव के माने जाते हैं जो अक्सर 3-4 के झुण्ड में रहते हैं। इनकी औसत उम्र 4 से 10 साल ही होती है। ये मांसाहारी हैं और मछलियों पर निर्भर रहते हैं। इनका जीवन पानी से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए ये पानी से अधिक दूर नहीं जाते हैं। इनका बसेरा पानी के आसपास चट्टानों में होता है या फिर बड़े पेड़ों की जड़ों के पास।
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पानी पर निर्भर ऊदबिलाव के लिये पानी में थोड़ा सा भी बदलाव खतरे की घंटी साबित हो सकती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल 13 प्रजातियों में से ऊदबिलाव की 3 प्रजातियां भारत में फैली हुई हैं। यूरेशियन औटर, स्मूथ कोट औटर व स्माल क्लॉड औटर नाम की 3 प्रजातियां उत्तराखंड में पायी जाती हैं। इन्हें उत्तराखंड में आमतौर पर विभिन्न स्थानों में मलपुस्सू, कुश्मयाऊं इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।
उत्तराखंड वन विभाग द्वारा वर्ष 2020 में की गयी एक गणना में उत्तराखंड के कुल ऊदबिलाव की संख्या 194 निकली है। ऐसे में साफ जाहिर है कि समय रहते यदि इस प्रजाति के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो ये एक झटके में लुप्त हो सकती है। ऊदबिलाव नदियों व जलाशयों की भोजन श्रृंखलाओं के लिए भी बेहद जरूरी हैं। ये इन पारिस्थितिकी तंत्रों की भोजन श्रृंखलाओं के शीर्ष पर मौजूद रहते हैं और मछलियों को निवाला बनाकर उनकी संख्या नियंत्रित रखते हैं, जिससे भोजन श्रृंखला में विभिन्न स्तरों पर जीवों का संतुलन बना रहता है।
आईसीमोड (ICIMOD) के लिए 9 सदस्यीय टीम द्वारा उत्तराखंड की चार नदियों में ऊदबिलाव की स्थिति, फैलाव व उन पर मानवीय गतिविधियों के प्रभावों पर शोध किया गया है। यह शोध कोसी, रामगंगा, खोह और सोंग नदियों पर किया गया है, जिसमें शोधकर्ताओं को 3 प्रजातियों में से केवल स्मूथ कोट औटर सर्वे के दौरान दिखी है। इन क्षेत्रों में सर्वे के दौरान उन जगहों पर ऊदबिलाव ज्यादा मिले, जहां नदी के पास जंगल हों और मानव बस्तियां व खेती उस क्षेत्र से दूर हो।
शोधकर्ताओं का दावा है कि इन नदियों में पाए गए ऊदबिलाव, उत्तराखंड में पायी जाने वाली ऊदबिलाव प्रजाति के आखिरी बचे हुए किले हैं। मानवों से दूरी इन्हें स्वछंद विचरने की जगह देती है। उन जगहों पर जहां नदी के समीप खेती व घर हैं, वहां सर्वे के दौरान मुश्किल से ही ऊदबिलाव दिखे हैं।
बांध परियोजनाएं बनी खतरा
उत्तराखंड की इन नदियों में चल रही बांध परियोजनाएं नदियों के बहाव, जलस्तर व उसमें बसने वाली जैवविविधता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इन कारकों पर ऊदबिलाव का भी अस्तित्व टिका हुआ है। इधर नदियों में लगातार बढ़ता प्रदूषण भी इस प्रजाति की दुश्वारिओं को बढ़ा रहा है। पर्यावरण को ताक पर रखकर होने वाले विकास ने इन जगहों पर ऊदबिलाव के रहने के स्थानों, समय बिताने की जगहों, प्रजनन व भोजन क्षेत्रों को भी काफी हद तक नष्ट किया है।
खनन भी बड़ी समस्या
ऊदबिलाव के बसेरों के आस-पास नदी किनारे से मिट्टी व रोड़ी बजरी के खनन ने ऊदबिलाव के रैन-बसेरे खत्म कर दिए हैं। उत्तराखंड में आने वाला समय ऊदबिलावों के लिए और भी भयावह दिखाई देता है। जिस तेजी से उत्तराखण्ड की जलवायु गरम होती जा रही है, वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बारिश और मौसम चक्र में अनिश्चिता का असर नदियों व अन्य जलस्रोतों के जलस्तर में आएगा।
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शोधकर्ताओं का मानना है कि ऐसे में पानी निर्भर ऊदबिलाव उत्तराखंड में अपने समूल विनाश की ओर बढ़ जाएंगे। विश्व भर में पाए जाने और इनकी पर्यावरण व जलवायु बदलावों के प्रति अतिसंवेदनशीलता के कारण IUCN ने इसे अपनी लाल सूची में शामिल किया है। लाल सूची में शामिल होने का सीधा मतलब है कि इसकी संख्या विभिन्न कारणों से घटती जा रही है।
पहले ही कर दी देर
उत्तराखंड पहले ही इन जीवों के संरक्षण की शुरुआत में काफी देरी कर चुका है। संरक्षण तो दूर की बात है, आम लोगों को भी ठीक से पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में इनके महत्व तक की जानकारी नहीं है। दूसरी तरफ जैवविविधता की कीमत पर चलने वाले विकास की गति ने इन शर्मीले जीवों के बारे में सोचने तक का समय नहीं छोड़ा है।
लोगों को नहीं है जानकारी
शोधकर्ताओं ने सर्वे के दौरान इन नदियों के पास बसे 376 लोगों से भी इनके बारे में पूछताछ की, जिससे ऊदबिलाव के प्रति लोगों में जागरूकता का पता चल सके, परन्तु परिणाम उत्साहवर्धक नहीं थे। सर्वे में शामिल लगभग 55 फीसदी लोगों को इनके बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी, लेकिन 90 फीसदी लोगों ने क्षेत्र में बढ़ रहे मानव हस्तक्षेपों का असर ऊदबिलाव प्रजाति पर पड़ने की बात पर हामी भरी।
शोधकर्ताओं की मानें तो ऐसी स्थितियों में उत्तराखंड के ऊदबिलावों के संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाना बेहद कठिन है। एक दिक्कत 2020 के उत्तराखंड वन विभाग के सर्वे में भी है, जिसमें पूरे उत्तराखंड में ऊदबिलाव की संख्या 194 बताई गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड के काफी बड़े क्षेत्र को सर्वे से बाहर रखा गया, जिससे ऊदबिलाव की सही संख्या का अनुमान लगाना कठिन है। जब तक पूरे उत्तराखंड में इनकी सही संख्या की जानकारी (प्रति प्रजाति संख्या का अनुमान भी) नहीं हो जाती, ऊदबिलाव के संरक्षण की दिशा में कोई ठोस नीति बनना भी असंभव है।
उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर इनकी सही संख्या निर्धारण की अभी जरूरत है, जिसमें स्थानीय लोगों को भी शामिल करने की जरूरत है। स्थानीय लोग भी इन प्रक्रिया में इस जीव की अहमियत के बारे में समझ सकेंगे और उन पर मंडरा रहे अस्तित्व के संकट को संवेदनशीलता से समझने में मदद मिल सकेगी। यह बात सरकारों को भी व्यापक स्तर पर प्रचारित करनी होगी कि हिमालय के लिए जितने जरूरी बड़े जानवर मसलन बाघ, गुलदार या हाथी हैं, उतने ही जरूरी ये छोटे शर्मीले ऊदबिलाव भी हैं।
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