गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
बीते कुछ दिनों से पहाड़ों पर 'हो-हल्ला' मचा हुआ है, मानों कोई नया जादूगर तमाशा शुरू करने को बेचैन हो। मुख्यमंत्री की गद्दी न हुई म्यूजिकल चेयर कॉम्पीटीशन हो गया, जिसकी धुन दिल्ली में बजती है और पॉलिटिकल डांस इस छोटे से पहाड़ी राज्य में होता है। सियासी तौर पर हमेशा हिले हुये रहने वाले उत्तराखंड को लेकर बीजेपी के नेताओं का तुर्रा यह रहता है कि हम डबल इंजन की सरकार हैं, विकास कार्य रफ्तार से होंगे! अफसोस ये रफ्तार राज्य के बाशिंदों की किस्मत बदलती कम और नेताओं की किस्मत पलटती ही ज्यादा दिखती है। अब देखिये सूबे में भाजपा हाईकमान ने नया जादूगर पेश किया है। एकदम युवा मुख्यमंत्री।
अब जो ये नया मुख्यमंत्री पिछले बदले हुये मुख्यमंत्री के बदले गद्दीनशीन हुआ है, उसे किसी मंत्रालय का भी अनुभव नहीं है। हालांकि, मुख्यमंत्री के करीब रहे इस नये युवा मुख्यमंत्री को संभवत: खेल सजाना आता हो! राजनीति के पुराने किस्सागोह से बात करेंगे तो वो बताएंगे- 'एक दौर में पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के ओएसडी रहे पुष्कर सिंह धामी की एक खासियत यह भी है कि वो बतौर सीएम भुवन चंद्र खंडूरी की ताजपोशी होने पर कोश्यारी से ज्यादा दुखी थे और इसकी खीझ उन्होंने खंडूरी की गाड़ी को लात मारकर निकाली थी।'
अब आदमी पर तो राजनीति में लात नहीं मारी जा सकती, तब गाड़ी पर ही खीझ निकालने में समझदारी है। अब देखिये कि मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने से ऐन पहले उन्हें भुवन चंद्र खंडूरी की याद हो आई और वो पहुंच गये आशीर्वाद लेने...खंडूरी रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं। कभी-कभार ही उनके घर पर अब ऐसा मौका आता होगा, जब सूरज उदय होने से पहले कोई नेता उनके द्वार पर टपक पड़े।
खंडूरी से फुर्सत पाकर धामी ने सीधे रूठे हुये सतपाल महाराज के घर का रुख किया, गोयाकि महाराज के घर से ही विरोध की खिचड़ी की खुशबू फैली है। ये खुशबू फैले भी क्यों ना! अपने तीन दशक के सियासी कार्यकाल में महाराज ने ऐसे-ऐसे मुख्यमंत्रियों की छत्रछाया में काम कर लिया, जो उनके सामने नये-नये राजनीति के अखाड़े में उतरे। अब भले ही सतपाल महाराज अपने भक्तों को सम्मोहित करने की कला जानते हों, लेकिन राजनीति में उनसे आलाकमान सम्मोहित ही नहीं हो पा रहा है। बावजूद इसके कि उनकी ट्विटर टाइमलाइन पर मोदी भक्ति की एक पूरी कहानी देखने को मिलती है। महाराज जब से कांग्रेस छोड़ बीजेपी में आये हैं, तब से उन्होंने कांग्रेस को गरियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, गोयाकि कांग्रेस ने ही उनके हाथ पहाड़ के विकास करने में रोके रखे हों। देश दुनिया में हर पल इतना कुछ घटता है, लेकिन महाराज 'वाह मोदी जी वाह' वाले मोड से ही बाहर नहीं निकल पा रहे। अब इतनी भक्ति के बाद भी 'भगवान' प्रसन्न न हो और ऐन मौके पर 'इंक्रीमेंट' किसी और मुलाजिम का हो जाये, तब दु:ख तो होगा! मैं तो कहूंगा अपार दु:ख होगा। खैर अब तो धामी की ही सरपरस्ती में काम होने हैं, तब रूठे महाराज ने भी शपथ ले ही ली।
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कुछ ऐसी ही कहानी हरक बाबू की भी है। एकदम मंझे हुये नेता हैं। सतपाल महाराज से भी दो कदम आगे... पार्टी कोई भी हो, सीट कहीं भी हो... हरक सिंह जब से राजनीति में हैं, हर विधानसभा में हाजिरी लगवाने की कुव्वत रखते हैं। अपनी विश्वस्त टीम और कमाल के चुनाव मैनेजमेंट के चलते वो शो टॉपर ही रहते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी को वो आज तक छू भी नहीं सके। उनके साथी, उनके बाद वाले नेता तक मुख्यमंत्री की कुर्सी उड़ा ले गये, लेकिन हरक सिवाय रूठने के कुछ नहीं कर पा रहे। चर्चा तो अगले विधानसभा चुनावों से पहले उनके भाजपा को छोड़ने की भी है। उनका टैक रिकार्ड ही ऐसा रहा है। बसपा ले लेकर भाजपा तक उनकी यात्राओं की अपनी गाथाएं हैं, तब वो फिर से किसी और पार्टी का रुख कर लें, ऐसा भी संभव है। फिलवक्त तो धामी के नाम पर उन्होंने भी आंखें तरेर दी हैं। वजह वही, जूनियर जो कल तक गुर सीखता रहा होगा, वो अब कमाल संभाले बैठा है, तब हरक रूठे न तो क्या करें। शपथ तो फिलहाल हरक सिंह ने भी ले ली, लेकिन नये मुख्यमंत्री कब हरक के निशाने पर आ जाएं, यह कहा नहीं सकता।
सबसे हास्यास्पद मामला श्रीनगर विधायक धन सिंह रावत का है। इवेंट मैनेजमेंट के मामले में वो खुद को मोदी से कमत्तर शायद ही समझते हों। अतिसक्रियता ऐसी है कि जब भी सीएम की कुर्सी खाली होती है, ये महाशय रेस में शामिल होने की हवा उड़वा देते हैं। हवा हवाई किले बनाने में इस वक्त धन सिंह राजनीति के सबसे चमकते सितारे हैं, जबकि इनकी विधानसभा में ही लोग त्रस्त होकर खुलेआम कह रहे हैं कि 'आएं अगली दफा वोट मांगने'! क्या करें बड़बोलापन ही तो नेताओं का गहना है और यूं समझ लीजिये कि इस गहने को सबसे अच्छे से किसी ने कैरी किया है तो वह हैं धन सिंह रावत! अब जबकि सीएम की कुर्सी के लिये स्वघोषित रेस में बने हुये धन सिंह को लगा कि धामी के चयन के साथ ही खेल खत्म हो गया तो उन्होंने रूठे नेताओं पर तंज कसते हुये कहा- 'मैं तो खुद सीएम की कुर्सी की रेस में था, जब मैं ही नाराज नहीं हूं तब वो लोग क्यों हैं!' सोचिये हरक सिंह रावत, बिशन सिंह चुफाल, सतपाल महाराज सरीखे नेताओं ने जब धन सिंह के इस बयान को सुना होगा तो क्या किया होगा! शायद वो मुस्कुराये होंगे।
खैर, धामी की राह यूं आसान भी नहीं। जिस पार्टी ने राज्य के सारे दिग्गज खींचकर अपने चौक में जुटा लिये हों, वहां शांति पसरी रहेगी, यह सोचना भी निरा बेवकूफी है। इस वक्त सूबे के लगभग सारे हैवी वेट और पुराने-जमे जमाये नेताओं की फौज भाजपा के पास ही है। 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी के जहाज की कमान धामी के हाथ में तो दे दी गई, लेकिन धामी के नेतृत्व को हैवी वेट नेता कितने दिन ढोएंगे, यह कहना भी मुश्किल है।
इधर गढ़वाल से कुमाऊं तक कांग्रेस के पास जनाधार रखने वाले नेताओं का टोटा पड़ा हुआ है। एकदम अकालग्रस्त स्थिति है। दूसरे छोर से हरीश रावत जरूर अपने पुराने सहयोगियों को अकेले ललकारते रहते हैं, लेकिन सहयोगी तो राजकाज में मशगूल हैं, लिहाजा कम ही सुनते हैं। क्या मालूम हरीश रावत की याद में कुछ सहयोगी चुनाव से पहले लौट ही आएं!
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इस पूरे हफ्ते मुझे सबसे ज्यादा ईमानदार अगर कोई तस्वीर नजर आई तो वह थी तीरथ सिंह रावत के वापस नेपथ्य में लौट जाने की तस्वीर। बिना शोर शराबे के जैसे वो आये वैसे ही चले भी गये... और साथ ले गये लाइमलाइट के चलते लगे हुये दाग। जब पुष्कर सिंह धामी के नाम की घोषणा के बाद पार्टी के नेताओं ने बुझे हुये नजर आ रहे तीरथ का हाथ उठाकर हवा में लहराया होगा, तब शायद उनके भीतर का सामान्य आदमी कहीं दुबक गया होगा... वो भाग जाना चाहता होगा उस तमाशे से दूर, जो शनिवार को पूरे दिन मजाक का पात्र बनकर रह गया। फिलहाल तो सूबे में जैसे-जैसे अगले विधानसभ चुनाव के दिन करीब आएंगे, आगे कई बड़ी उठापटक देखने को आम हो जाएंगी। जनता तमाशे के एक पूरे दौर के लिये तैयार रहे, मजमा सज चुका है।
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