महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी का सबसे चुनौतीपूर्ण मामला बनकर उभरा है, जो आने वाले वक्त पर धरती में मानव व अन्य जीवों के अस्तित्व को तय करेगा। जलवायु परिवर्तन ने आम तौर पर होने वाली मौसमी परिघटनाओं जैसे बारिश, चक्रवात आदि को अनेकों बार विकराल आपदा व तबाही में बदला है। इस बदलती जलवायु के पीछे अनेक कारण छिपे हुये हैं, जिनमें बड़ी कंपनियों, उद्योग और कॉर्पोरेशंस की भूमिका को नहीं नकारा जा सकता है।
कारखानों व उत्पादनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें जलवायु परिवर्तन में एक बहुत बड़े स्तर पर योगदान दे रही होती हैं। इन कारखानों के चलते न केवल जमीन पर बह रही नदियों में आफत बह रही है, बल्कि हवा भी जहरीले स्तर को छू रही है। जलवायु परिवर्तन का कारक बनने में इन कंपनियों ने जो तेजी पिछले दशकों में दिखाई है, उसने नुकसान की रफ्तार को बढ़ा दिया है। पर क्या दुनियाभर के न्यायालयों में यह बात साबित करना आसान है?
न्यायालय में मौसमी घटनाओं को आपदा का रूप देने के पीछे बड़ी कंपनियों की भूमिका को साबित करना, आज भी वकीलों की फौज के लिये टेढ़ी चुनौती है। इसी कारण जब पर्यावरण और जलवायु सम्बन्धी लड़ाई न्यायालयों में लड़ी जाती हैं, तब वैज्ञानिक सबूतों की कमी के कारण इस तरह की लड़ाइयां लम्बे समय तक टिक नहीं पाती हैं और अंतत: कार्पोरेट ही जीतकर बाहर निकलता है। ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के शोध में वैज्ञानिकों का कहना है कि नवीनतम वैज्ञानिक सबूतों की उपलब्धता के बावजूद, जलवायु सम्बन्धी अधिकतम न्यायिक मामलों में इन्हें पेश नहीं किया जाता और मामले में हार का सामना करना पड़ता है।
नेचर पत्रिका के जून 2021 के अंक में छपा यह शोध दुनिया का पहला शोध है, जिसमें विश्व भर में जलवायु सम्बन्धी कानूनी मामलों में जलवायु सम्बन्धी सबूतों के इस्तेमाल और उन्हें परिभाषित करने के तरीकों पर अध्ययन किया गया है। शोध में पता चला है कि 14 न्याय क्षेत्रों में 73 याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं द्वारा अपना पक्ष रखने को जो सबूत पेश किये गए वे जलवायु विज्ञान के नवीनतम पैमानों और क्षमताओं से बहुत पीछे थे, जिस कारण याचिकाकर्ताओं/पीड़ितों द्वारा किया गया दावा कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से पर्यावरण में आये बदलावों के कारण उन पर विपदा टूटी है, खारिज हो गई। कोर्ट में ये दलीलें टिक ही नहीं सकी और कंपनियों को बच निकलने का सीधा-सरल रास्ता मिल गया।
अधिकतर मामलों में तो यह तक बताने का प्रयास नहीं किया गया कि आखिर किस हद तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (जिसमें उद्योगों व कंपनियों का हाथ है) लोगों पर आयी दिक्कत का कारण है। ऐसा हो पाता तब कोर्ट में यह यह एक बेहद प्रभावी सबूत साबित होता, क्योंकि हर प्राकृतिक (मौसमी) दुर्घटना के पीछे का कारण जलवायु परिवर्तन नहीं होता। ऊंगली में गिने जाने लायक मामलों में ही पीड़ित/याचिकाकर्ता द्वारा उत्सर्जनों का उन पर आयी विपदा को जोड़ते हुए बेहद सीमित सबूत पेश किये गये।
73 फीसदी मामलों में याचिकाकर्ताओं ने तो वैज्ञानिकों द्वारा समीक्षा किये गए सबूतों को ही इस्तेमाल नहीं किया, जबकि 48 फीसदी मामलों में बिना किसी सबूत के जलवायु परिवर्तन को प्राकृतिक घटनाओं के पीछे का कारण बताया गया। 1986 से मई 2020 तक याचिकाकर्ताओं ने 1500 से भी अधिक जलवायु सम्बन्धी मामले न्यायालयों में दर्ज कराये हैं और ये मामले दिन-ब-दिन बढ़ते ही जा रहे हैं।
तमाम हाई प्रोफाइल केस को देखकर यही पता चला है कि प्रभावी वैज्ञानिक सबूत ही जीत दिलवा सकते हैं। सबसे नया और सफलतम मामला नीदरलैंड की कंपनी शैल कॉर्प का है, जिसमें स्थानीय निवासियों को कॉर्प के उत्सर्जन से पर्यावरणीय हानि पहुंच रही थी। शैल कॉर्प के खिलाफ नीदरलैंड न्यायालय ने 2030 तक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 45% तक कम करने का आदेश दिया है। शोध सीधे यह साफ़ कर देता है कि नवीनतम व वैज्ञानिकों द्वारा समीक्षा किये गए सबूत वकीलों को न्यायालय में याचिका दाखिल करने से पहले ही याचिका की सफलता/असफलता का अंदाजा दे देंगे।
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शोध के मुख्य लेखक रुपर्ट स्टुअर्ट स्मिथ कहते हैं- 'पिछले कुछ हफ़्तों में नीदरलैंड, जर्मनी और अन्य देशों में न्यायालयों ने राज्य व कंपनियों को अपने जलवायु लक्ष्यों का कड़ाई से पालन करने का आदेश दिया है। जलवायु सम्बन्धी याचिकाओं की ताकत और प्रभाव अब जगजाहिर है और निरंतर बढ़ती जा रही है। हालांकि, ऐसे मामले जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन व उसके मौसमी आपदाओं के प्रभावों को जोड़कर देखने वाले वाले सबूतों पर निर्भर हैं, अधिकतर असफल ही रहे हैं। याचिकाकर्ता अगर जलवायु परिवर्तन से हुए नुकसान का मुआवजा चाहते हैं तो उन्हें अपने वकीलों से उपलब्ध नवीनतम वैज्ञानिक सबूतों का प्रभावी रूप से इस्तेमाल करवाना होगा। जलवायु विज्ञान ही न्यायालयों द्वारा पिछले सालों में याचिकाओं से पूछे गए प्रश्नों का जवाब दे सकता है। साथ ही भविष्य में इस तरह की याचिकाओं के रास्ते में आने वाली अड़चनों को हटाने का रास्ता दिखा सकता है।'
शोध से जुड़े वैज्ञानिकों ने विश्व भर में जागरूकता लाने और एट्रीब्यूशन विज्ञान के इस्तेमाल की बात की है। एट्रीब्यूशन विज्ञान (Attribution Science) एक विशेष क्षेत्र है, जो भीषण मौसमी घटनाओं जैसे बारिश, बाढ़ व चक्रवात के विकराल रूप के पीछे जलवायु परिवर्तन (ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन) की भूमिका समझने की कोशिश करता है। एट्रीब्यूशन विज्ञान हाल के समय में विकराल मौसमी घटनाओं के पीछे मानव जनित जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को साबित करने को इस्तेमाल में लाया जा रहा है। बेहतर सबूत देने के साथ साथ एट्रीब्यूशन विज्ञान याचिका डालने न डालने का फैसला लेने में भी मदद कर सकता है, क्योंकि कुछ ख़ास परिघटनाएं जैसे सूखा के मामले में याचिका डालना अधिक अनिश्चिताओं से भरा है, जबकि अतिवर्षा के मामले में ऐसा नहीं है।
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ऑक्सफ़ोर्ड एनवार्यनमेंटल चेंज इंस्टिट्यूट के एसोसिएट डायरेक्टर डॉ. फ्रेडरिक ओटो के अनुसार- 'बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस का उत्पादन करने वाली कंपनियों को उनके उत्सर्जन से होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रति जवाबदेह बनाना, सांस्थानिक बदलाव लाने और हाशिये में रहने वालों के अधिकारों को बचाने की चाबी है। जवाबदेही तय करने को जलवायु सम्बन्धी याचिकाएं दिन-ब-दिन बढ़ तो रही हैं, पर परिणाम मिले-जुले ही रहे हैं।'
वे आगे कहते हैं- 'हमारा शोध व परिणाम काफी सकारात्मक है। यह बताता है कि अगर वैज्ञानिक सबूतों को आधार बनाया जाए तो वकीलों व याचिकाकर्ताओं के पास अधिक प्रभावी रूप में अपना पक्ष रखने का मौका होगा। अब यह याचिकाकर्ताओं व वकीलों के हाथ में है कि वे किस तरह वे वैज्ञानिक शोधों में मिले सबूतों का इस्तेमाल करते हैं व दलील के रूप में अधिक प्रभावी रूप में पेश करते हैं।'
संभव है इस रिपोर्ट के जरिये आपको उन अड़चनों के बारे में हम जानकारी देने में कामयाब हुये होंगे, जिनके चलते अदालतों में जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती आपदाओं के मामले दम तोड़ देते हैं।
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