तुम इक गोरखधंधा हो...

लाइफ ऑन व्हील्सतुम इक गोरखधंधा हो...

गौरव नौड़ियाल

गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।  

मैं पीढ़ी दर पीढ़ी दिमाग में खींचे गए स्वर्ग के नक्शों से परे उस खूबसूरत जमीं का जिक्र कर रहा हूं, जहां पहुंचने का मेरा कम से कम तब तक कोई इरादा नहीं था, जब तक कि हम दिल्ली में अपना ‘अस्थाई’ घर और ‘स्थाई’ नौकरी दोनों से ऊबकर पूरा मैदान लांघकर पहाड़ों पर न आ धमके।

ये एक अजीब सा ख्याल है। ये ख्याल असल में मेरे जेहन में यूं ही नहीं कौंधा है या फिर खूबसूरत दुनिया जिसका हम सपना देखते हैं, उस दुनिया को हमने आसान शब्दों में ‘स्वर्ग’ भर में समेट दिया है। एक ख्याल है मेरा कि स्वर्ग कैसा होगा! एक जवाब भी है मेरे पास कि ‘न जाने कैसा होगा...’! मैं स्वर्ग-नर्क के झंझावतों में निरंतर उलझे हुए आस्थावन लोगों के लिए ये सवाल यहीं से पीछे छोड़ कर आगे बढ़ रहा हूं। मेरी स्वर्ग देखने की फिलहाल तो कोई इच्छा नहीं है।

कम से कम 30 साल की उम्र में तो कोई भी स्वर्ग देखने की इच्छाएं नहीं पालता है! मैं पीढ़ी दर पीढ़ी दिमाग में खींचे गए स्वर्ग के नक्शों से परे उस खूबसूरत जमीं का जिक्र कर रहा हूं, जहां पहुंचने का मेरा कम से कम तब तक कोई इरादा नहीं था, जब तक कि हम दिल्ली में अपना ‘अस्थाई’ घर और ‘स्थाई’ नौकरी दोनों से ऊबकर पूरा मैदान लांघकर पहाड़ों पर न आ धमके।

असल में मुझे लगता कि स्थाई होना, जीवन और प्रकृति दोनों के ही खिलाफ है। एक छोटे से वक्त में हम 1000 सालों के जीवन की बेहतरी का खाका नहीं खींच सकते, लिहाजा हमने अपनी जिंदगी के इस छोटे से वक्त को भले-बुरे से इतर दुनिया को करीब से देखने में खर्च करने का जोखिम उठा लिया। इस जोखिम का नतीजा ये हुआ कि मैंने और शीतल ने पिछले दो वर्षों में दर्जनों यात्राएं की। ये यात्राएं पहाड़ों से समंदर की जमीन तक चलती चली गई, जो कि अब भी जारी है। हमने दुनिया के कई अलग रंग इस दौर देखे, जिनसे हम सर्वथा अपरिचित थे या फिर जिनके बारे में हमने बस सुना भर था। हम पहाड़ों पर कहीं दूर बर्फ के बीच दबी हुई जमीन पर अलमस्त पड़े हुए थे।

3666 मीटर की ऊंचाई पर हम भारी हवा को महसूस कर रहे थे। हमने दर्रों के करीब जाकर अपनी शामें गुजारीं हैं और जमी हुई नदियों का पानी चखा है। इस दौरान हम समंदर के जादू से भी अछूते नहीं रहे। एकदम शुष्क जमीन पर हमने जिंदगियों को देखा। आखिरकार अक्टूबर 2018 आते-आते पतझड़ के दिनों के साथ ही नौकरी छोड़ने और उत्तराखंड देखने का ख्याल परवान चढ़ जाता है। जकड़नों का तिलिस्म टूटकर झड़ने लगता है और जिंदगी के सूखे ठूंठ को फिर हरा करने की चाहत पहाड़ों की ओर चलने का राग छेड़ देती है। रोजमर्रा की एक सी जिंदगी अब ज्यादा नीरस हो चुकी थी। मेट्रो की भीड़ अब काटती थी। यमुनाबैंक पर नाॅएडा की ओर आने वाली मेट्रो को देख दिल बैठ जाता और फिर हर गुजरते स्टेशन के बाद यही ख्याल तारी रहता कि ‘और कितने दिन ये दौड़ जारी रहेगी।'

आखिरकार वो दिन भी आया जब राॅयल एनफील्ड पर पूरे उत्तराखंड को नापने का सफर शुरू हो चुका था... नवंबर और दिसंबर के महीने में बर्फीली हवाओं को चुनौती देकर सुरक्षित उस खूबसूरत जमीन के सबसे शानदार हिस्सों को देखने का, जहां आज से तकरीबन 29-30 साल पहले हम दोनों पैदा हुए थे, पले-बढ़े थे और जिस जमीन के हमने कई शानदार और चैंकाने वाले किस्से भर सुने थे।

इनमें से अधिकांश जगहों पर हमारा जाना नहीं हुआ था। मैं अपनी मामूली सी बचत में इस सफर के लिए निकल रहा था... ये किसी ख्वाब के हकीकत में तब्दील होने जैसा था, जहां हमारी बाकी चिंताएं काफूर हो रही थी। उम्मीद है ये सफर लफ्जों में भी उतना ही रोमांचक होगा, जितना कि 64 दिनों तक बाइक पर बर्फ और ठंडी हवाओं से सराबोर पहाड़ी सड़कों पर डोलते हुए मेरे लिए रहा था। पहाड़ी ढलानों पर लुढ़कते हुए मैंने कई-कई दफा सोचा उन दिनों के बारे में जब मैं हर वक्त काम कर रहा होता था... बर्फीली हवा जब गालों से टकराकर पूरे जिस्म को सुन्न कर रही थी तब मैं बुदबुदाता था उन दिनों को याद कर कि तुम इक गोरखधंधा हो! मैं अपनी उत्तराखंड यात्रा के तमाम खट्टे-मीठे किस्से किश्तवार लेकर आता रहूंगा। डांडी-कांठी में लेकर आता रहूंगा। डांडी और कांठी गढ़वाली के शब्द हैं, जिनके मायने होते हैं पहाड़ और चोटियां।

अगली किश्त में मैं आपको देहरादून से सीधे केदारकांठा की तलहटी ले चलूंगा, बर्फ और देवदार के जंगलों की तलहटी में बसा एक कस्बा जहां की सैर अब तक अनगिनत आंखे कर चुकी हैं, जहां की पहाड़ियों पर हांफते चढ़ते-उतरते न जाने कितनी कहानियां सबके हिस्से आई होंगी... जहां के गाइड आपको पहाड़ों के रोमांच से भर देने वाले किस्सों को लेकर इंतजार करते हुए मोलभाव के अंदाज में कहेंगे- ‘आप रेट पता कर लीजिए, केदारकांठा और हर की दून के हम इतना ही वसूलते हैं। साथ में वो आपको ब्रेकफास्ट का वादा करेंगे और किसी बुग्याल के तप्पड़ में तंबू गाड़कर सुस्ताभर लेने का ख्वाब आपको कहेगा कि चल यार, चलते हैं उन पहाड़ों के पार जहां कभी बहत्तर सिंह पहाड़ों को लांघने दौड़ पड़ता था’! इस वादे के साथ यहीं इस हिस्से को खत्म कर रहा हूं...!

 

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