महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
इस साल की शुरुआत में ही भारत सरकार ने देश के सामने पांचवी विज्ञान नीति (STIP, 2021) पेश की है। महत्वाकांक्षी नीति होने के चलते इसमें बहुत से महत्वपूर्ण लक्ष्य भी रखे गए हैं। यह नीति आने वाले समय में भारत को वैज्ञानिक शोध ज्ञान-उत्पादन के मामले में शीर्ष तीन महाशक्तियों में देखना चाहती है। हालांकि, फिलहाल इस लक्ष्य की प्राप्ति की राह में अनेक चुनौतियां खड़ी हैं। इनमें से एक बहुत महत्वपूर्ण चुनौती है भारत में शोध का वातावरण व शोधकर्ताओं द्वारा अपनाये गए गलत या अनैतिक तरीके। इन तरीकों की वजह से भारत में तो वैज्ञानिकों की छवि व विश्वसनीयता को धक्का लगता ही है, साथ ही वैश्विक स्तर पर भी भारत की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचता है। हाल ही में आये एक शोध में पता चला है कि भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा विश्व भर की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित चिकित्सा क्षेत्र (बायोमेडिकल) के 508 शोध पत्र हटाए जा चुके हैं। इसकी वजह है शोध में नकली आंकड़े (Fake Data) प्रस्तुत करना व दूसरों के शोध को अपना बताकर (Plagiarism) पेश करना है।
IFET इंजीनियरिंग कॉलेज तमिलनाडु के बकथावचलम इलांगो द्वारा यह शोध पबमेड (PubMed) नामक डेटाबेस में किया गया है, जो कि विश्वभर के बायोमेडिकल शोधों का भण्डार है। इन्होने पबमेड में हटाए गए भारतीय शोध पत्रों की खोज की व उसके पीछे के कारणों का विश्लेषण किया। इलांगो ने पाया कि सारे शोध वैज्ञानिक कदाचार यानी शोध को छेड़छाड़, चोरी, नक़ल, गलत तरीके से परिभाषित व पेश करने के कारण हटाए गए हैं। दांत (डेंटल) सम्बन्धी शोधों का प्रकाशन के बाद हटने के मामले में 28% के साथ भारत पूरे विश्व में शीर्ष पर है, वहीं कुल प्रकाशित हुए लेखों के हटने के मामले में भारत विश्व में पांचवे स्थान पर है।
ये सारे शोध विश्व की प्रतिष्ठित (हाई इम्पैक्ट जर्नल) पत्रिकाओं से लेकर कम प्रभावी (नो इम्पैक्ट जर्नल) पत्रिकाओं में छपे हैं व बाद में हटाए गए हैं। शोध के अनुसार हटाए गए 25 % शोध विश्व की शीर्ष 15 प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे थे जबकि 33% कम प्रभावी पत्रिकाओं में छपे। हटाए गए शोध कुल 291 शोध पत्रिकाओं में छपे थे, जिनमें 95 पत्रिकाएं कम गुणवत्ता (नो इम्पैक्ट जर्नल) की थी, जबकि बाकी उच्च गुणवत्ता की थी। बड़ी बात यह है कि 50% से अधिक उच्च स्तरीय पत्रिकाओं ने शोध पत्रों को हटाने के नोटिस जारी किये, जो साफ़ दिखाता है कि उच्च स्तरीय पत्रिकाएं गलत शोधों को सुधारने/हटाने में रूचि दिखाती हैं या एक हद तक गलत शोधों को आगे न बढ़ने देने के लिये प्रतिबद्ध नजर आती हैं।
कुल हटाए गए लेखों में 34% शोध वित्तपोषित थे। यह आंकड़ा साफ़ दर्शाता है कि इन शोधों में जनता का पैसा तो बर्बाद हुआ ही है, प्रकाशक, संपादक, समीक्षक जैसे मानव संसाधनों का भी भारी नुकसान हुआ है। जबकि 59% यानि 303 शोधों को कहीं से भी अनुदान प्राप्त नहीं था। हटाए गए शोधों में 95% से भी अधिक शोध एक से अधिक वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा मिलकर लिखे गए हैं। इनमें 39% शोधपत्र तो 3-4 के समूह में लिखे गए हैं। यह आंकड़ा यह बताने के लिये काफी है कि इस तरह के गलत आंकड़े और जानकारियां समूह में मिलकर तैयार की जा रही हैं, न कि एक दूसरे से छुपाकर। ऐसा असंभव है कि समूह में इस तरह की महत्वपूर्ण गलती पकड़ी न जाए। ऐसा भी नहीं है कि यह बात सिर्फ भारतीय शोधकर्ताओं तक ही सीमित है, बल्कि इन शोधों में 54 शोध पत्र यानी कि तकरीबन 10% अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के साथ मिलकर लिखे गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा अमेरीका के साथ 19, जापान के साथ 5, ईरान व दक्षिण कोरिया के साथ 4-4 शोध लिखे गए हैं।
सबसे अधिक (10%) हटाए गए लेख PlosOne नामक बेहद प्रतिष्ठित पत्रिका (26) व उसके बाद Journal of Biological Chemistry (24) ने छापे थे। उच्च स्तरीय पत्रिकाएं जैसे New England Journal of Medicine और Journal of American Medical Association ने भी लेखों को हटाया है, पर उसकी संख्या नाम मात्र भी नहीं है। यानि कि उच्च स्तरीय पत्रिकाओं में छपे लेखों में गड़बड़ी की संभावनाएं उनकी प्रकाशन शर्तों व नीतियों के कारण बेहद कम हैं।
1992 से 2000 के बीच प्रकाशित भारतीय शोधों को हटाने सम्बन्धी 508 नोटिस जारी किये गए थे। इनमें से 80% नोटिस शोध प्रकाशित होने के 4 साल के भीतर जारी किये गए। ऐसे में साफ है कि लम्बे समय तक एक गलत शोध वैज्ञानिकों व छात्र-छात्राओं के बीच मौजूद रहा, जिसे वे सत्य व सही मानकर प्रयोग में लाते रहे होंगे। इनमें 28% मामलों में तो प्रकाशित होने के एक साल के भीतर ही नोटिस दिया गया। यह तुलनात्मक रूप में बढ़िया है, क्योंकि इस मामले में शोधपत्र कम समय के लिए दुनिया की नज़रों में रहा। देखा जाए तो एक प्रकाशित लेख को प्रकाशन के औसतन 2 साल 8 महीनों बाद हटाया जा रहा है, जो कि काफी लम्बा समय है। इतने समय में प्रकाशित लेख काफी नुकसान पहुंचाने में सक्षम है। एक बेहद रोचक मामला ऐसा भी प्रकाश में आया था जब भारतीय वैज्ञानिक का 1994 में छपा एक शोधपत्र लगभग 22 साल बाद यानी 2016 में हटाया गया।
इस तरह के शोध बेहद चौंकाने वाले हैं। भारत के कुछ वैज्ञानिकों का इन तरीकों को अपनाना भारतीय विज्ञान को तो पीछे धकेलेगा ही, साथ ही आमजन का भारतीय शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों पर अविश्वास भी बढ़ाएगा। इस तरह का वातावरण युवा शोधकर्ताओं का मनोबल भी गिराएगा। इलांगो इस तरह की घटनाओं के पीछे के कारणों की बात करते हुए कहते हैं- 'इस तरह की घटनाएं स्वास्थ्य क्षेत्र में शोध की नैतिकताओं के प्रति जागरूकता की कमी व किसी तरह के कानूनी रोकथाम की अनुपस्थिति के कारण भी अधिक हैं। कुछ वैज्ञानिक ऐसा इसलिए भी करते हैं, ताकि उच्च स्तरीय पत्रिकाओं में वे अधिक से अधिक बार प्रकाशित हो सकें। भारत में इस तरह का बढ़ता चलन भारत की कुछ नीतियों की वजह से भी है। कई बार अधिक संख्या में छपकर ही संस्थानों या शोधकर्ताओं को अनुदान दिया जाता है, जिस कारण दबाव में भी शोधकर्ताओं को ऐसा करने को विवश होना पड़ता है। NIRF (भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली संस्थानों को रैंकिंग का फ्रेमवर्क), विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय रैंकिंग, विश्वविद्यालय की वैश्विक रैंकिंग में एक महत्वपूर्ण मानक प्रकाशित शोध और उनकी अधिक संख्या भी है।'
गौरतलब है कि 2010 के बाद शोधपत्र बड़ी संख्या में हटाए गए हैं। बायोमेडिकल शोधपत्रों में सबसे अधिक चोरी व छेड़छाड़ फोटो के मामले में है, हर 25 में से एक फोटो के साथ छेड़छाड़ की गयी है या चोरी की है। इसके कारणों पर इलांगो कहते हैं- '2010 के बाद से जैसे-जैसे इंटरनेट का विकास हुआ है और इसकी पहुंच बढ़ी है ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। पर इन घटनाओं के बढ़ने से इन्हें पकड़ने के बेहतरीन तरीके भी विकसित हुए हैं।'
इस शोध से भारतीय शोध जगत की कई खामियां उजागर होती है, जिन पर रोकथाम के सही तरीकों और नीतियों पर सोचने की जरूरत है। भारत अगर इस दशक के अंत तक खुद को वैज्ञानिक ज्ञान उत्पादन की महाशक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है, तब उसे इस दिशा में सख्ती से कार्ययोजना तैयार कर लागू करने की जरूरत है। केवल शोध के विद्यार्थियों को शोध नैतिकता पर कुछ समय लेक्चर देने, इसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देना भर काफी नहीं होगा।
इलांगो का यह शोध तो बायोमेडिकल क्षेत्र तक ही सीमित है, लिहाजा बाकी क्षेत्रों की चोरी कितनी बड़ी है इसका अभी आंकलन ही लगाया जा सकता है। धीरे-धीरे इसी तरह के शोध अन्य क्षेत्रों में भी होंगे तब शायद कहीं क्षेत्र विशेष में छप रहे शोधपत्रों की सच्चाई सामने आ सकेगी। फिलहाल तो ऐसे मामले शोध की दुनिया में नैतिकता को ही चुनौती दे रही है।
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