शालिनी एक युवा एक्टिविस्ट हैं। वो पेशे से एक टीचर हैं। इससे पहले वो कई पत्रिकाओं के लिए लिख चुकी हैं। हिलांश के लिए शालिनी यात्रा वृतांत के साथ ही, कई अन्य मसलों पर लिख रही हैं।
एक दिन अनजाने नंबर से मुझे आपत्तिजनक मैसेज आये, जिन्होंने मुझे भीतर तक हिला दिया। ये मैसेज एक डिलीवरी ब्वॉय भेज रहा था। इस घटना का विरोध करने की सोचते ही पहला ख्याल जो मेरे दिमाग में आया वो ये, कि कहीं रास्ते में चलते हुए मुंह ढंके हुए किसी अनजान आदमी ने मेरे ऊपर तेजाब डाल दिया है और मात्र 30 रुपये में मेरी जिंदगी खत्म हो गई है! कितना खतरनाक और डरावना ख्याल है ये!
ये बात मेरे जेहन में तब से बस गई है, जब से मैं आगरा शहर के एक कैफ़े शीरोज हैंगआउट में पहुंची हूं। शीरोज कैफ़े में वो सभी लड़कियां काम करती हैं, जिन पर तेजाबी हमला हुआ है। एसिड अटैक सवाईवर ये लड़कियां अपने-अपने साथ गुजरे वाकये से उभर कर अब एक नई जिंदगी जी रही हैं। कैफ़े में घुसते ही बहुत से लड़कियां दिखती हैं। इनमें से किसी की आंख ठीक से नहीं खुल पाती, किसी की नाक के आस-पास की सारी स्किन सिकुड़ कर एक जगह जम गई है, तो किसी के होंठ अपनी जगह से खिसके हुए हैं। किसी का पूरा का पूरा चेहरा ही जला हुआ है। वक्त और मर्दों के दिए ये जख्म अपने आप में हिन्दुस्तान की कहानियां समेटे हुए ताजे नजर आते हैं। इन सब लड़कियों की जिंदगी एक झटके में तबाह कर दी गई थी, लेकिन इसे लड़कियों की जिद ही कहेंगे कि उन्होंने वापस अपने कदम टिका लिए हैं। उस सोच के खिलाफ जो उन्हें बर्बाद करने की जिद पाले बैठी है।
जरा सोचिए एक भी दाग या धब्बा हमारे चेहरे में पड़ जाए, तो हम सैकड़ों क्रीम बहा देते हैं, लेकिन इन लड़कियों के चेहरे को क्या कभी कोई क्रीम सुधार सकेगी! शायद वो इस ख्याल से पार पा गई हों, अब इन लड़कियों पर कुछ और ही दिखता है। और वो है- 'मुस्कराहट'। इस मुस्कराहट के पीछे बेहद डरावनी कहानियां हैं, मानवता से भरोसा उठा देने वाली कहानियां। ये कहानियां कभी खत्म ही नहीं होती हैं... मानो आदत लग गई हो हिन्दुस्तान को ऐसी कहानियों की। हर रोज एक नई कहानी हमारा पीछा कर रही होती है। चुपचाप... और फिर एकदिन एक नया जख्म, एक नई कहानी को जन्म देकर दूसरी की तलाश में लौट जाता है।
आप जब भी सुबह अखबार उठाकर देखिए, तो हर रोज औरतों के खिलाफ जघन्य अपराधों से भरी रिपोर्ट्स भारत की कानून व्यवस्था का मखौल उड़ाती हुई दिखती हैं। रेप और घरेलू हिंसा की खबरें बेहद आम हो चुकी हैं। क्रूर सच के साथ लोग जीते चले जा रहे हैं, लेकिन कुछ बदलाव नजर नहीं आता। हाल के कुछ सालों में एसिड अटैक के जितने मामले सामने आए हैं, वो जरूर चौंकाने वाले हैं।
ये अपराध खुलकर तब सामने आने लगे जब 2013 में लक्ष्मी अग्रवाल नाम की एक एसिड अटैक सर्वाइवर ने तेजाब की खुली बिक्री पर रोक लगाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। लक्ष्मी कोर्ट केस जीत कर तेजाब की खुली बिक्री पर रोक लगाने का नियम बनवाने में तो कामयाब रही, लेकिन ये नियम कभी ठीक से लागू ही नहीं हो सका। इस केस के चलते लक्ष्मी की मुलाक़ात पत्रकार आलोक दीक्षित से हुई जो 'स्टॉप एसिड अटैक' नाम से तब अभियान चला रहे थे। आलोक और उनके साथी एसिड अटैक सर्वाइवर्स की जिंदगियों को ट्रैक में लाने के लिए कई तरह की कोशिशों में लगे हुए थे, जिस बीच उनकी मुलाकात लक्ष्मी जैसी जुझारू शख्सियत से हुई।
आशीष ने जब सर्वाइवर्स से बात की और उन लोगों को काम करने के लिए उत्साहित किया, तो पता लगा कि सर्वाइवर्स को नौकरी ही नहीं मिल पाती है। समाज ने उन्हें पीछे धकेल दिया था, वो भी उस अपराध के लिए जिसके दोषी सभ्य घरों से निकलकर आए थे। तेजाब के हमलों के चलते लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई आधे में ही छूट गई। स्कूलों ने उन्हें यह कहकर दाखिला देने से इनकार कर दिया कि 'बच्चे डर जाएंगे'। ये बेहद घृणित सोच का नतीजा ही था कि स्कूलों ने सर्वाइवर्स के साथ खड़े होने में दिलचस्पी और साहस नहीं दिखाया।
शिक्षा की कमी और चेहरे की दिक्कतों के चलते इन सर्वाइवर्स के काम का इंतजाम आलोक और उनके साथियों ने करने का जिम्मा उठाया। एक आम सा काम लेकिन नायाब आईडिया! ...और ये आईडिया था 'शीरोज हैंगआउट कैफे'। आलोक ने दोस्तों के साथ मिलकर 2013 में 'शीरोज हैंगआउट' की नींव रखी, जिसे चलाने की पूरी जिम्मेदारी एसिड अटैक सर्वाइवर्स को दी गई। ...तो इस तरह आगरा में शीरोज कैफे चर्चाओं में आ गया।
मैंने जब आलोक से पूछा कि कैफे का नाम उन्होंने क्या सोचकर 'शीरोज' रखा, तो उनका जवाब था- 'जो अपने और इस समाज को बदलने के लिए लड़ता है, उन्हें हीरोज कहा जाता है, लेकिन यहां वो काम महिलाएं कर रही हैं। तब शीरोज क्यों नहीं!' ये काफी दिलचस्प जवाब था। धीरे-धीरे शीरोज चर्चाओं में आया, लेकिन लॉकडाउन ने फिर से मुसीबतें बढ़ा दी। मौजूदा वक्त में शीरोज के आगरा कैफे में ही अकेले 10 लड़कियां काम कर रही हैं। आगरा के बाद लखनऊ में भी शीरोज खोला गया है।
खैर, लड़कियों की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं हुई हैं। शीरोज में खाना बनाने के लिए अलग से लोग रखने पड़े। ढेरों ऑपरेशन के चलते, ये लड़कियां तेज आंच के पास नही जा सकती हैं। यहां लड़कियों को नौकरी करने और अपने पैरों में खड़ा होने के लिए तैयार किया जाता है। लड़कियों को उनके मनपसंद काम की ट्रेनिंग दी जाती है। जो लड़कियां आगरा से बाहर से आती हैं, उनके लिए कैफ़े के पास में ही शीरोज होम्स का इंतज़ाम भी किया गया है।
मैं शीरोज के बनने और स्थापित होने के बीच की चुनौतियों से निकलकर सीधे सर्वाइवर लड़कियों से रूबरू हुई। शीरोज में काम करने वाली नीतू ने बताया कि उस पर उसके पिता ने ही बेटे की चाहत में तेजाब से हमला किया था। तब वो महज 3 साल की थी। उसके अलावा उसकी माँ और 1 बहन जो डेढ़ साल की थी, उन पर भी हमला हुआ। बहन इस हमले में नहीं बच सकी। हैरानी की बात यह है कि उसकी मां पिछले 30 सालों से अपने हमलावर के साथ ही रह रही हैं और इस मामले में केस भी दर्ज नहीं हुआ। नीतू बेहद उत्साहित होकर बताती हैं कि उसकी माँ गीता और उसकी कहानी पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म भी बनी है। नीतू ने इस फ़िल्म के लिए 3 गाने गाए हैं।
कैफे में ही काम करने वाली रुकैया का हमलावर उसकी बहन का देवर है जो कि तब 20 साल का था। हमले के वक्त रुकैया 14 साल की थी। लड़के का दावा था कि वो रुकैया को पसंद करता है और शादी करना चाहता है। रुकैया की जब उस लड़के से शादी नहीं हुई तो उसने नन्हीं रुकैया के चेहरे पर तेजाब उड़ेल दिया। चंद सेकेंड में ही उसका चेहरा कई जगह से उधड़ चुका था।
हालांकि इतना सब होने के बाद भी उन्हें मर्दों से शिकायत नहीं है! छोटी उम्र में हुए इन हमलों से बाहर निकलने में उनकी मदद उनके ही भाई और पिताओं ने की। वो कहती हैं इसके लिए पूरी मर्द बिरादरी को कसूरवार नही ठहराया जा सकता।
नीतू की ही तरह उसके हमलावर को भी रिश्तेदारी के चलते सजा नही मिल पाई। रुकैया कहती है कि अक्सर हमलावर हमारे आस-पास का कोई होता है, जो हमें और हमारी कमजोरियों को जानता है। इनमें से कई नहीं जानती थी कि उन पर तेजाब से हमला हुआ है। कई दिनों तक वो इस उम्मीद में क्रीम बदलती रही कि शायद उनका चेहरा पहले सा दिखने लगे। ठीक तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन धीरे-धीरे जब उनके नाक और कान अपनी जगह से बिगड़ने लगे, तब जाकर मामले की गंभीरता उन्हें समझ आ सकी।
ये लड़कियां ऐसे दौर में हैं जहां उन्हें अपने लिए सब कुछ खुद ही जुटाना है। केस दर्ज न हो पाने के चलते सरकार की ओर से एसिड अटैक सर्वाइवर्स को कोई मदद नहीं पंहुचाई गई और जिन्हें मदद मिली भी वो नाकाफी थी। कई लड़कियों को सरकार की ओर से 1 या डेढ़ लाख की आर्थिक सहायता मिली, लेकिन ये रकम एक ऑपरेशन के लिये ही काफी नहीं थी।
मैं नीतू और रुकैया की कहानी से ही नहीं उभर पाई थी कि मेरे सामने शबनम थी। 15 साल की उम्र में जिस वक्त शबनम स्कूल जा रही थी, ठीक उसी वक्त एक 34 साल के शख्स ने उसके चेहरे पर तेजाब उड़ेल दिया। ये शख्स दुकान चलाता था और पहले से शादीशुदा था। शबनम के मामले में अपराधी पर केस दर्ज भी हुआ और सजा भी मिली, लेकिन वो शख्स डेढ़ साल के भीतर ही आजाद घूम रहा था। शबनम ने कहा- 'वो शख्स जब जेल से लौटा तो ऐसा जश्न था, जैसे वो हज कर लौटा हो'। इस हमले के बाद तकरीबन 7 साल शबनम ने चार दिवारी में कैद रहकर गुजार दिए। इस बीच घर में न जाने कितनी शादियां और जन्मदिन निकले, मगर शबनम को उनमें शामिल न किया जाता। शबनम कहती है कि शीरोज से जुड़ने के बाद उसकी जिंदगी को एक नया मकसद और पहचान मिल सकी है।
जब मैं इन लड़कियों से बात कर रही थी, तब कई उम्मीदभरी निगाहें मेरी ओर देख रही थी कि मैं उनकी कहानी भी सुन लूं। मैं एक के बाद एक लड़कियों की कहानियों से गुजर रही थी और हर गुजरती कहानी मेरे दिमाग को हिला दे रही थी। डर, खौफ और दया एकाकार होकर मेरे जेहन में हलचल पैदा किए हुए थे। भयनाक आपबीती, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
मैं दूर खड़ी बाला के पास गई। बाला के परिवार पर तेजाबी हमला हुआ था, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान बाला को पहुंचा। तब उसकी उम्र महज 17 साल ही थी। बाला ने बताया- 'मैं एक किसान परिवार से हूं। हम लोग बटाई पर जमीन लेकर खेती करते हैं। हमने जिस शख्स से जमीन ली थी उसकी नजर मेरी मां पर थी और विरोध जताने पर उसने सारे परिवार को बर्बाद करने की बात कही। एक रोज देर रात उस शख्स ने हम सब पर तेजाब डाल दिया और हमारी जिंदगियां पलट गई।' सारी लड़कियां एक ही दर्द से गुजरी थीं।
आलोक कहते हैं- 'लोगों को दूर से इनकी परेशानियां नहीं समझ आएंगी। हर वक़्त आपके सामने अपनी परेशानी दिखती है। लोग आपको इस नजर से देखते हैं, जो एहसास दिलाता रहता है कि हां आपके साथ हिंसा हुई है। लोगों को इस बारे में ज्यादा जानकारी भी नही है।' तेजाबी हमले के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश और बंगाल में दर्ज हुए हैं।
मैंने आलोक से पूछा कि उनका क्या मकसद है, तो इस पर उनका जवाब था- 'शीरोज खोलने के पीछे मकसद सरकार के समानांतर एक नया ढांचा खड़ा करना नही है, बल्कि सरकार का ध्यान इस समस्या की तरफ ध्यान खींचना है।' सरकार के रवैये पर उनका कहना है- 'सरकारी आदमी भी सिर्फ फ़ोटो खिंचवाने तक ही दिलचस्पी लेते हैं।'
इसे मेल ईगो कहें, औरत को पाने की सनक या इक-तरफा प्यार, हर बार ये हमला तभी हुआ जब लड़की ने विरोध जताया। इन सबकी कहानियां सुनने के बाद मुझे लगा कि कितना आसान है तेजाब खरीदना और लड़की के मुँह पर, उसके सपनों पर, उसकी हिम्मत, उसकी पूरी जिंदगी पर उसे एक झटके में उड़ेल देना। जो लड़कियां तेजाब की शिकार हुई हैं, वो अपना मुंह छिपाने लगती हैं। उन्हें डर लगता है दुनिया के सामने आने से कि कहीं लोग अब अपनी नजरों और बातों से फिर से उन पर तेजाब न उड़ेल दें!
इस मसले पर कमला भसीन कहती हैं- "हम किसी पर हिंसा तभी कर सकते हैं, या करते हैं जब हम उन्हें अपने से कमतर और कमज़ोर समझते हैं या जब हम मानते हैं कि वे पूर्ण इंसान नहीं हैं, कम समझ हैं, इसलिए उनका अपमान, उत्पीड़न व शोषण किया जा सकता है। उनको समझाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश हमारे परिवार और धर्म जिन्हें समानता और न्याय के पक्ष में खड़ा होने चाहिए था, वे ही पितृसत्ता के सबसे बड़े हिमायती और शालाएं या मदरसे बने बैठे हैं।"
एसिड अटैक के मुद्दे पर ही जनवरी 2020 में मेघना गुलजार की फिल्म 'छपाक' आई थी। इस फिल्म में लक्ष्मी अग्रवाल और तमाम लड़कियों के संघर्ष को दिखाया गया है। फिल्म में एक जगह नायिका कहती है- ''कैसा होता अगर एसिड बिकता ही नही और बिकता ही नही तो फिंकता भी नही''। शायद ये अभी दूर की कौड़ी है... ये ख्यालभर है, उतना ही डरावना, जितनी ये कहानियां।
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