गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
साल 2009 की बात है। मैं बदरीनाथ घाटी की ओर निकलने की तैयारी में था। अगली सुबह मैं जब बदरीनाथ के लिये निकलने वाला था, मेरी मां मेरे पास आई और मुझे कुछ पैसे देते हुये कहा- 'ये भेंट मंदिर में चढ़ा देना... और प्रसाद लेते हुये आना'। ये अकेले मेरी मां की ही कहानी नहीं है, बल्कि उत्तराखंड के तकरीबन हर घर की यही कहानी है। खासकर कुमाऊं और गढ़वाल के बाशिंदों की, जिनके लिये बदरीनाथ और केदारनाथ समेत अन्य मंदिरों में भेंट चढ़ाना उनकी सदियों पुरानी आस्था का हिस्सा है। ये वो अघोषित दानदाता हैं, जिनको न तो अपनी आस्था के आगे सरकार के 'खेल' की परवाह है और ना ही इन्हें मंदिरों की कमाई, पद या फिर किसी अन्य किस्म का लाभ लेना होता है।
ये सामान्य से रिवाज हैं पहाड़ों पर कि किसी को अगर ये पता चल जाए कि आप बदरी-केदार या फिर गंगोत्री-यमुनोत्री की ओर जा रहे हैं, तो वह आपको कुछ पैसे थमा देगा और कहेगा कि ये भेंट उसकी ओर से देवताओं को अर्पित कर दी जाये! पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इन परंपराओं से उत्तराखंड का समाज आकार लेता है और इसी पर टिकी है, हजारों लोगों की रोजी-रोटी और कारोबार। इस सबका जिक्र मैंने इसलिये किया, ताकि अब आगे जिस बात का मैं जिक्र करने जा रहा हूं, उसे समझने में आपको आसानी रहे।
असल में एक सरकारी कागज अचानक से उत्तराखंड में चर्चाओं में आ गया है, जिसमें दानदाता की नई सरकारी परिभाषा देखने को मिल रही है और दानदाता को त्वरित लाभांश की हड़बड़ी भी झलक रही है। ये दानदाता है भारत के मशहूर उद्योगपति मुकेश अंबानी का छोटा बेटा अंनत अंबानी और ये कृपा बरसी है लोकतंत्र में 'भगवान' की भूमिका में बैठी हुई सरकार की ओर से। उत्तराखंड में इन दिनों चार धाम देवस्थानम् प्रबंधन अधिनियम को लेकर घमासान मचा हुआ है। पुरोहित बिरादरी के गांव के गांव सरकार के फैसले के खिलाफ लामबंद हो गये हैं और पिछले लंबे वक्त से पुरानी व्यवस्थाओं की बहाली के लिये प्रदर्शन कर रहे हैं। अब इस लड़ाई में नया मोड आ गया है।
अंबानी दानदाता तब बाकी लोग क्या!
5 जून को उत्तराखंड के पर्यटन सचिव दिलीप जावलकर ने एक अधिसूचना जारी की है, जिसकी भाषा है- 'उत्तराखंड चार धाम देवस्थानम् प्रबंधन बोर्ड में हिन्दू धार्मिक मामलों में विशेष रुचि रखने वाले दानदाता (भूत, वर्तमान, भविष्य) की श्रेणी में अंनत अंबानी पुत्र मुकेश अंबानी को सदस्य नामित किया जाता है।' ऐसे में यह सवाल भी उठना लाजमी है कि अगर बोर्ड में सदस्य बनाने की शर्त हिन्दू धार्मिक मामलो में विशेष रुचि रखने के साथ ही दानदाता होना है, तब आप उन करोड़ों भक्तों में से चार सदस्य नामित करने में कौन सी युक्ति लगाएंगे जो पीढ़ी दर पीढ़ी मंदिर को दान देते आये हैं। शायद इसका जवाब सरकार और उसके कारिंदे ही बेहत्तर ढंग से दे सकें। एक मसला भविष्य का दानदाता वाली श्रेणी का भी है, जो कि शायद पूरे देश में अपने तरह का पहला मामला हो। यह कैसे तय होगा कि कोई व्यक्ति भविश्य का भी दानदाता होगा, समझ से परे है।
(देवस्थानम् बोर्ड को भंग करने की मांग को लेकर मोहन भागवत से मुलाकात के दौरान तीर्थ पुरोहित)
अंबानी को बोर्ड का सदस्य बनाने की हड़बड़ी क्यों
अनंत अंबानी का विवादास्पद बोर्ड में सदस्य नामित होना, पंडा बिरादरी के बीच चर्चा और संदेह के विषय में तब्दील हो गया है। चर्चा इस बात की है कि उत्तराखंड सरकार ने इस मुल्क के सबसे अमीर और ताकतवर शख्स को खुश करने के लिये, उसके बेटे को एक ऐसे बोर्ड का सदस्य बनाने की हड़बड़ी दिखलाई है, जिसके खिलाफ लड़ाई सुप्रीम कोर्ट से लेकर जमीन पर चारों धामों में लड़ी जा रही है। अनंत अंबानी को बोर्ड का सदस्य उस वक्त बनाया गया है, जब चारों धाम के पुरोहित सरकार के फैसले के खिलाफ अग्रिम आंदोलन की रूपरेखा बनाकर अपने विरोध को तेज कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री का ढोंग या सतपाल महाराज का हठ
संदेह मुख्यमंत्री और सेल्फ गॉडमैन के साथ ही उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज के विरोधाभाषी बयानों को लेकर भी पैदा होता है। एक ओर मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत देवस्थानम बोर्ड को भंग करने की बात कर चुके हैं, लेकिन दूसरी ओर उनके ही मंत्री सतपाल महाराज इस फैसले पर पुर्नविचार करने से मुकर जाते हैं। आखिर इस गफलत के पीछे की मंशा क्या है? इसका जवाब देते हुये ब्रह्माकपाल तीर्थ पुरोहित पंचायत बदरीनाथ धाम के प्रवक्ता डॉ. बृजेश सती कहते हैं कि इस बोर्ड का मकसद सीधे तौर पर मंदिर की पारंपरिक और आर्थिक गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप करने से है। वो इस बात पर भी संदेह जताते हैं कि सरकार चारधाम समेत बाकी के मंदिरों में अपने चहेते लोगों का हस्तक्षेप बढ़ाने की फिराक में है, जिससे पुरानी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी।
(देवस्थानम् बोर्ड को भंग करने की मांग को लेकर मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत से मुलाकात के दौरान तीर्थ पुरोहित)
सतपाल महाराज की भूमिका पर सवाल
पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज के बोर्ड को भंग करने को लेकर कोई पुर्नविचार न होने के बयान के बाद तीर्थ पुरोहित सकते में आ गये हैं। क्रोधित तीर्थ पुरोहितों ने न केवल चारों धामों समेत राज्य के अलग-अलग हिस्सों में उनका पुतला दहन किया है, बल्कि अब विरोध में काली पट्टी बांधकर पूजा कर्म करने का भी संकल्प लिया है। पर्यटन मंत्री जो कि खुद एक मशहूर सेल्फ गॉडमैन हैं, पुरोहितों के बहिष्कार के बाद तुरंत बैकफुट पर आ गये और अपने ही बयान का ठीकरा मीडिया के सिर फोड़कर इसे तोड़ मरोड़कर पेश करने वाला बता दिया। ये तमाम बातें तीर्थ पुरोहितों को संशय में डाल रही हैं।
हरिद्वार और राज्य के अन्य बड़े मंदिर बोर्ड से बाहर क्यों
तीर्थ पुरोहित सरकार की उस मंशा पर भी सवाल उठाते हैं, जिसमें यह कहा जा रहा है कि बोर्ड का गठन प्रदेश के चारों प्रसिद्ध धामों को सुनियोजित अवस्थापना विकास और देश दुनिया से आने वाले श्रद्धालुओं को बेहतर सुविधा व सुरक्षा मुहैया करवाने के मकसद से किया गया है। सरकार की इस मंशा पर सवाल उठाते हुये बृजेश कहते हैं कि अगर सरकार का वास्तव में मकसद धामों में बेहतर सुविधाएं और सुरक्षा को लेकर है, तब उन्हें यह काम हरिद्वार के मंशा देवी और अन्य बड़े मंदिरों से करना चाहिये, जहां यात्रा सालभर चलती रहती है। उन्होंने कहा कि असल में सरकार ने उन्हीं मंदिरों को बोर्ड के अधीन शामिल किया है, जिनमें पारंपरिक तौर पर हक-हकूकधारी सदियों से जुड़े हुये हैं।
वो सरकार के इस तर्क को खारिज करते करते हुये राज्य के अन्य बड़े मंदिरों जिनमें कोटद्वार का सिद्धबली मंदिर, सुरकंडा देवी, नीलकंठ महादेव और मंशा देवी जैसे मंदिर शामिल हैं, उन्हें बोर्ड से बाहर रखने पर सवाल दागते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार मंदिरों के प्रबंधन में ब्यूरोक्रेट्स का दखल बढ़ा रही है और अपने चहेते लोगों को बोर्ड में शामिल कर हक-हकूकधारियों के अधिकार छीनने का खेल शुरू कर रही है। इसके अलावा मंदिरों की संपत्ति भी खतरे में आने की आशंकाएं बढ़ गई हैं।
(पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज का पुतला दहन करने से पूर्व तीर्थ पुरोहित)
सतपाल सच्चे या सीएम
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में सरकार ने वैष्णो माता श्राइन बोर्ड की तर्ज पर चारधाम देवस्थानम् बोर्ड का गठन किया है। दिसंबर 2019 में देवस्थानम् बोर्ड अधिनियम विधानसभा में पारित किया गया था और जनवरी 2020 में सरकार ने बोर्ड का गठन किया था। बोर्ड का गठन होने से पहले ही इसे लेकर तीर्थ पुरोहितों और हक-हकूकधारियों ने इसका विरोध शुरू कर दिया था। विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा था, जिसके बाद सत्ता में आये तीरथ सिंह रावत ने बोर्ड को लेकर पुनर्विचार करने की बात कही थी, लेकिन ऐसा अब तक नहीं हो सका है और उल्टा सतपाल महाराज का हालिया बयान मुख्यमंत्री की ही बातों को निराधार साबित करता है।
संघ प्रमुख और विहिप आश्वासन देकर हुये गायब
इस बोर्ड के विरोध में तीर्थ पुरोहितों के एक दल ने 5 अप्रैल को कृष्ण कृपा धाम भीमगोड़ा हरिद्वार में सरसंघचालक मोहन भागवत से भी मुलाकात कर अपनी बात रखी, लेकिन इस बातचीत का भी शायद ही कोई असर हुआ है। तब मोहन भागवत ने जरूर इस मसले पर सरकार से बात करने का आश्वासन तीर्थ पुरोहितों को दिया था, लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। इसके बाद तीर्थ पुरोहित विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय संरक्षक दिनेश कुमार से भी उम्मीदें लेकर मिले, लेकिन वो भी इस मसले पर चुप्पी मार गये और तीर्थ पुरोहितों को मंझधार में छोड़ दिया। हालांकि, उन्होंने तीर्थ पुरोहितों को आश्वासन दिया कि वो उत्तराखंड के ही नहीं बल्कि भारत के सभी मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करवाने के पक्षधर हैं, लेकिन ताजा गतिरोध पर उनकी ओर से कोई निर्णायक फैसला नहीं लिया गया है।
लंबी और निर्णायक लड़ाई लड़ने को तैयार हजारों तीर्थपुरोहित
तीर्थ पुरोहित इस लड़ाई को अब राजनीतिक लड़ाई में तब्दील कर रहे हैं। इतिहास में पहली दफा बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में किसी शख्स का पुतला दहन किया गया है। तीर्थ पुरोहितों ने सतपाल महाराज के बयान के बाद चारों धामों समेत अपने गांव-घरों तक पर उनका पुतला दहन किया है। सतपाल महाराज के बयान के बाद देवस्थानम बोर्ड के मामले में राज्य सरकार और चार धामों के तीर्थ पुरोहितों के बीच तनाव बढ़ गया है। चारों धाम में 11 तारीख को काली पट्टी बांधकर पूजा करने के अलावा 21 जून से अनिश्चितकालीन धरना प्रदर्शन की घोषणा भी पुरानी व्यवस्था की बहाली को लेकर आंदोलन कर रहे तीर्थ पुरोहितों ने कर दी है।
क्या बोर्ड के गठन के पीछे संपत्तियों का है असली खेल
भाकपा माले के नेता इंद्रेश मैखुरी अपने एक लेख में जिक्र करते हुये देवस्थानम् बोर्ड अधिनियम को तीर्थ स्थलों की संपत्तियों, खासकर जमीनों को खुर्द-बुर्द करने को कानूनी जामा पहनाने वाला बताते हैं। बदरीनाथ-केदरानथ मंदिर समिति के पास ही देशभर के अलग-अलग हिस्सों में कई जमीनें और धर्मशालाएं हैं और इस बोर्ड के अंतर्गत उत्तराखंड के 51 मंदिर को लाया गया है। इंद्रेश ने अपने लेख में देवस्थानम् अधिनियम के उस हिस्से का जिक्र किया है, जिसमें चारधाम की संपत्ति का विनिमय, विक्रय, गिरवी रखने या पट्टे पर देने की कार्यवाही अब बिना बोर्ड की अनुमति के नहीं हो सकेगी और असली कहानी का पेंच यहीं फंसता है। वो अंदेशा जताते हैं कि असल में अब इन संपत्तियों को बोर्ड जिसे चाहे उसे दे देगा और यह काम अब कानूनी तरीके से होगा।
इंद्रेश मेखुरी अपने लेख में जिन चिंताओं को उकेरते हैं, उसी का विस्तार इस बोर्ड के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे युवा दक्षिणपंथी नेता लुशुन टोडरिया भी करते हैं। लुशुन का कहना है कि इस बोर्ड के पीछे सरकार की मंशा सीधे उन लोगों के हाथ में मंदिरों का नियत्रंण दे देना है, जो इस मुल्क में पहले ही संपत्ति के एक बड़े हिस्से को कब्जा चुके हैं। लुशुन लगातार तीर्थ पुरोहितों के आंदोलन का हिस्सा रहे हैं और वह कहते हैं कि इस बोर्ड के खिलाफ अगर देशभर में पंडा समाज को भाजपा के खिलाफ संदेश लेकर भी निकलना पड़ेगा, तो वह अपने हक-हकूकों को बचाने के लिये, यह भी करेंगे। लुशुन उस बात की ओर ध्यान दिलवाते हैं, जब चार धाम में तीर्थयात्री ना के बराबर आते थे और पंडा समाज ही देशभर में इन धामों के प्रचार-प्रसार का काम पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे थे।
सरकार बोर्ड को भंग करने के विचार पर सहमत नहीं होती, तब क्या होगा
अगर सरकार बोर्ड को भंग करने के विचार पर सहमत नहीं होती, तब क्या होगा? इस सवाल के जवाब पर लुशुन कहते हैं- ''तब 2022 में बीजेपी को सूबे से अपना बोरिया-बिस्तर पैक कर निकलना होगा, क्योंकि यह केवल तीर्थ पुरोहितों के हितों का ही मसला नहीं, बल्कि चारधाम पर आश्रित डोली, डंडी-कंडी, फूल-प्रसाद बेचने वालों और धाम में कारोबार कर रहे स्थानीय व्यापारियों की आर्थिकी का भी सवाल है।'' वो कहते हैं कि मंदिरों को निजी और ब्यूरोक्रेट्स के हाथों में सौंपने की सरकार की चाल इतनी आसानी से तीर्थ पुरोहित पूरी नहीं होने देंगे। वो विधेयक को गुपचुप ढंग से लाने पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि सरकार वास्तव में चारधामों में बेहतर व्यवस्थाओं को बनाने की ही पक्ष्धर होती, तो इस विधेयक को लाने से पहले, हक-हकूकधारियों से जरूर मशविरा करती।
इधर बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी नैनीताल हाईकोर्ट में खारिज हुई अपनी याचिका के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गये हैं। स्वामी तीर्थ पुरोहितों के पक्ष में हैं। इसके अलावा पांच अन्य याचिकाएं भी बोर्ड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं। बहरहाल विवादास्पद बन चुके देवस्थानम् बोर्ड को लेकर तीर्थ पुरोहितों और हक-हकूकधारियों बनाम सरकार की लड़ाई लंबी खिंचती दिख रही है। राज्य में अगले साल विधानसभा के चुनाव भी होने हैं। ऐसे में एक बात तो तय है कि उत्तरकाशी से चमोली और पौड़ी जिले तक फैले हुये अकेले चारधाम के हक-हकूकधारी चुनाव में बीजेपी को बड़ा डेंट दे सकते हैं, जो पार्टी की सत्ता से बेदखली की प्रमुख वजह भी बन सकता है।
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