महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
दुनियाभर में अलग और अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाला हिमालय जैव विवधता का हॉट-स्पॉट है। यहां के जंगल व इन पर निर्भर जीवों ने इस ख़ास वातावरण में अपनी एक अलग जगह बनाने के लिए लाखों सालों तक संघर्ष किया है। इस दौरान जलवायु परिवर्तन भी हुआ और संसाधनों के लिए जीव जंतुओं के बीच आपसी संघर्ष की भी नौबत आई। इस प्रक्रिया में बहुत से जीव व उनकी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म हुआ, तो कई प्रजातियां सर्वाइव कर गई। पर्यावरणीय बदलाव, जलवायु परिवर्तन और आपसी संघर्ष लाखों सालों की प्रक्रिया का हिस्सा रही है। इस दौरान जीव जुंतुओं ने सर्वाइव करना भी सीखा, लेकिन इन जंगलों व जीवों के लिए लाखों सालों के जलवायु परिवर्तन ने जो मुसीबतें खड़ी नहीं की, वह मानव दखल के कारण पिछले 50-100 सालों में पैदा हो गई है।
इंसानों के जंगलों को निगलने की रफ्तार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है। जंगलों का कटान अनेकों कारणों से जारी है, जो इन जंगलों पर निर्भर जीवों को संभलने का मौका नहीं दे रहा है। इसके चलते कई जीवों के अस्तित्व मिटने की गति हज़ार गुना बढ़ गयी है। देहरादून स्थित सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च (Centre for Ecology, Development and Research) शोध संस्थान ने अपने शोध में पाया है कि उत्तराखंड के जंगलों के भू- प्रयोग (land use) में बदलाव से जंगलों पर निर्भर पक्षियों की व उनकी अनेकों प्रजातियों की संख्या में 50 फीसदी तक की गिरावट आयी है। जंगलों को कृषि के साथ-साथ बढ़ते शहरीकरण ने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, जिस कारण ये नौबत आयी है।
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यह शोध CEDAR ने सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (हैदराबाद) के साथ मिलकर किया। इस शोध के नतीजों को ग्लोबल कंज़र्वेशन एंड इकोलॉजी पत्रिका ने प्रकाशित किया है। यह शोध मुख्यतः नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर और पंगोट गांव में किया गया। इन दो केंद्रों को 194 स्टडी साईट में बांटा गया था। शोध में लिए गए बांज के जंगलों को तीन श्रेणी में बांटा गया, जिससे अलग-अलग भू-प्रयोग का पता चलता है। पहला (प्राकृतिक) पूरी तरह से सुरक्षित/संरक्षित बांज का जंगल, जहां मानव दखल की गुंजाईश न हो। दूसरा (मध्यम) जंगल जिसमें आसपास से लोग सीमित मात्रा में पत्तियां, लकडियां, इत्यादि लेने आते थे। तीसरे (खराब) तरह का जंगल जो आस-पास के लोगों द्वारा अत्यधिक प्रयोग में लाया जाता था। शोध में चीड़ का जंगल उसके आसपास की कृषि भूमि और पूरी तरह से शहरीकृत क्षेत्र को भी शोध में शामिल किया गया (तीनों ही अलग अलग तरह के भू-प्रयोग हैं)।
इन क्षेत्रों में शोध के दौरान 8549 पक्षियों को देखा गया, जो पक्षियों की 124 प्रजातियां थी। शोध में बांज के जंगल के मुकाबले अन्य सभी तरह के क्षेत्रों में पक्षियों की प्रजातियों की संख्या कम पायी गयी है। पहले क्षेत्र के चीड़ के जंगल व शहरी क्षेत्र में बांज की तुलना में केवल 72 फीसदी प्रजातियां ही पायी गयी। वहीं चीड़ के जंगल में 66 फीसदी व शहर के पास 36 फीसदी प्रजातियां ही पायी गई।
कुल प्रजातियों की संख्या के मामले में अगर एक अनछुए बांज के जंगल से तुलना करें तो अन्य तरह के भू- प्रयोगों में गिरावट चौंकाने वाली है। खासकर शहरी इलाकों में यह गिरवाट चिंतनीय है। सभी क्षेत्रों में बांज वन के मुकाबले औसत प्रजातियों की संख्या भी निराश करने वाली है। बांज वन की तुलना में कृषि में 50 फीसदी व शहर के आसपास केवल 48 फीसदी प्रजातियां ही पायी गयी।
(Rufous Bellied Woodpecker)
चीड़ भी निगल रहा पक्षियों का संसार
सीधे तौर पर कहा जाए तो जंगलों का भू-प्रयोग शहरीकरण व कृषि के कारण बदलने का दुष्परिणाम पक्षियों की प्रजातियों की घटती संख्या के तौर पर साफ़ दिखाई देता है। यह आम समझ है कि शहरीकरण व खेती बढ़ने से पक्षियों की संख्या घटेगी पर उनकी विविधता व प्रजातियों का इस हद तक गिरावट देखना अप्रत्याशित है। आंकड़ों से यह भी साबित होता है कि चीड़ के जंगल पक्षियों की जैवविविधता को बढ़ावा देने में असफल हैं। पूर्व में भी तमाम वैज्ञानिक बढ़ते चीड़ वन के क्षेत्र और उसके खतरों से आगाह कर चुके हैं। दूसरे वनों की कीमत पर चीड़ क्षेत्र का बढ़ना पक्षियों की संख्या व विविधता के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। सीमित रूप में प्रयोग में लाये जा रहे (मध्यम) जंगल जरूर इस सब में आशा की किरण के रूप में सामने आये हैं। इन क्षेत्रों ने तुलनात्मक रूप से काफी अधिक प्रजातियों व समूहों (Guilds) को संरक्षित रखा है।
बांज वन की तुलना में अन्य तरह के जंगल जिसमें आस-पास के लोग बहुत अधिक चारा, पत्ती, ईंधन लेने आते हैं वहां 75 फीसदी तक ऐसी प्रजातियां कम हो गयी हैं, जो केवल बांज (Specialist species) वन पर ही निर्भर हैं। शोध के नतीजो से पता चलता है कि जहां जंगलों में इंसानों का अत्यधिक दखल है और जहां वन के भू-उपयोग में बड़ा बदलाव लाया गया है, वहां पक्षियों का भविष्य गंभीर खतरे में है। ऐसे पक्षी जो वन पर पूर्णतः निर्भर न रहकर (Generalist species) अन्य स्रोतों /क्षेत्रों (खेती) से भी भोजन व रहने का जुगाड़ करते हैं, उनपर भू-प्रयोग में बदलाव का अधिक असर नहीं पड़ा है। हालांकि, शहर में इनकी प्रजातियों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई है।
ऐसा नहीं है कि शोध में सिर्फ खतरे ही नजर आये हैं, बल्कि कुछ प्रजातियां (Open Country species) शहरीकरण व खेती वाले इलाकों में बढ़ती हुई भी दिखी हैं। इन्होंने खुद को यहां के मुताबिक़ ढाल लिया है। इन प्रजातियों में है Grey Bushchat, Black Francolin, Russet Sparrow, Streaked Laughing Thrush, Himalayan Bulbul।
शोधकर्ताओं के अनुसार हमें केवल इस ओर ध्यान नहीं देना कि पक्षियों की कितनी प्रजातियां कम हुई हैं बल्कि इस ओर भी नज़र रखनी होगी कि आखिर कौन से व किस तरह के समूह मसलन (Specialist, Generalist, Open country species) ज्यादा गिरावट दर्ज कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर विकास व वृद्धि के नाम पर वनों के भू-प्रयोग में बदलाव कर शहर, व्यापार हेतु एकल प्रजाति जंगलों (monoculture) व कृषि के लिए भूमि बनाई जा रही हैं, जो कि पक्षियों की प्रजातियों व जंगलों के भीतर मौजूद समूहों (Guilds) के नष्ट होने के कारण हैं। जिस तरह Specialists की संख्या/प्रजातियों में भारी गिरावट देखने को मिली है, उसके कई निहितार्थ हैं। इनकी जगह अब Generalists लेंगे, जिससे Specialists पर प्रतिस्पर्धा बढ़ने से अधिक दबाव पड़ेगा और जो अंतत: इन्हें विश्व भर में लुप्त होने की दिशा में धकेलता चला जाएगा।
(Black Faced Warbler & greater yellownape)
पश्चिम हिमालय खासकर उत्तराखंड कीबात करें तो यहां बांज के वनों को बचाने की जरूरत है। उत्तराखंड के बांज के वनों से पक्षियों का अस्तित्व सीधे रूप में जुड़ा हुआ है, जिन्हें अनावश्यक रोड कटिंग/चौड़ीकरण, बड़े निर्माण, कृषि भूमि विस्तार के लिए लगातार खत्म किया जा रहा है। उत्तराखंड के वन वर्तमान में बहुत दबाव झेल रहे हैं, जिसका सीधा असर उत्तराखंड के पक्षियों की जैव विवधता पर पड़ता नजर आ रहा है।
एक जंगल में अनेकों तरह के पक्षी पाए जाते हैं पर उसी जंगल में हर अलग प्रजाति की एक अलग भूमिका होती है। इन्ही भूमिकाओं के कारण ये अलग समूह (Guilds) बन जाते हैं। अपनी आदतों के कारण कुछ फूलों के बीच पॉलेन (परागकणों) का आदान प्रदान करते हैं, कुछ जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र में इंजीनियर का कार्य करते हैं, मसलन कठफोड़वा (Woodpecker)। इससे अन्य कीट भक्षियों को भोजन (कीड़े-मकौड़े) आपूर्ति हो जाती है, वहीं कीड़े-मकौड़ों की जनसंख्या भी नियंत्रित रहती है।
Specialists और Generalists
पक्षी समूहों में कुछ तो पूर्णतः जंगलों पर ही निर्भर हैं, जिन्हें कहा जाता है Specialists। ये पक्षियों की वो प्रजातियां है, जो जंगलों को नुकसान होने पर मुश्किल में पड़ जाती हैं। मसलन Rufous Bellied Woodpecker, Greater Yellownape, Rufous Sibia, White Throated Laughing Thrush, Black Faced Warbler ऐसे ही पक्षी हैं। इसके इतर कुछ पक्षी ऐसे भी हैं, जो जंगलों पर आंशिक रूप से ही निर्भर होते हैं और इन्हें कहते हैं Generalists। ये प्रजातियां जंगलों पर खतरा आने पर भी काफी हद तक सर्वाइव कर जाती हैं। मसलन Blue Whistling Thrush, Red Bellied Blue Magpie ऐसी ही प्रजातियां हैं, जो जंगलों पर आंशिक रूप से ही निर्भर होती हैं।
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