अतुल सती ने पत्रकारिता की पढ़ाई की और फिर राजनीतिक कामों में मशगूल हो गये। हिमालय में होने वाली घटनाओं पर अतुल करीब से नजर रखते हैं और नियमित तौर पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। फिलहाल अतुल हिमालयी कस्बे जोशीमठ में रह रहे हैं।
6 फरवरी को मजदूरों से भरी हुई हिमगिरी की एक बस भारत के उस सीमांत हिस्से की ओर बढ़ रही थी, जहां ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट का काम चल रहा था। ये वो इलाका है, जहां जंगलों को बचाने का एक लंबा आंदोलन 70 और 80 के दशक तक जिंदा रहा। गौरा देवी का इलाका। काम की तलाश में मीलों पीछे अपना घरबार छोड़ भारत की इस महत्वपूर्ण विकास परियोजना का हिस्सा बनने पहुंच रहे इन मजदूरों को शायद ही पता हो कि अगले दिन इनमें से कई लोग उस मलबे के ढेर के नीचे दफ्न होंगे, जो घाटी में बड़ी तबाही लेकर आ रहा है।
अगले दिन यानि कि 7 फरवरी की सुबह ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट का कहीं नामों निशान नहीं था। बिलखते-चीखते लोग बचाव दलों के इंतजार में थे। ग्लेशियर के एक हिस्से के टूटने से इलाके में भारी तबाही आई थी और कई लोग मौत के मुंह में समा गये थे। ...और पीछे जो इस आपदा के गवाह पहाड़ पर जिंदा बच गये, वो अब अपने गांव के विस्थापन की मांग कर रहे हैं। अपने पूर्वजों की जमीन, अपने हक-हकूक और सदियों की स्वर्णिम स्मृतियों को भुलाकर आखिर क्यों एक पूरा गांव विस्थापन के पक्ष में आकर खड़ा हो गया! ये सवाल, धीरे-धीरे एक जिंदा सवाल में तब्दील हो रहा है, जिसकी उत्पति उन निर्माण परियोजनाओं की वजह से हुई, जिन्होंने हिमालय को 'तबाही के पहाड़ों' में बदल दिया है।
रिणी में क्या बदला है!
7 जुलाई को मैं उस रैणी गांव में दोबारा पहुंचा, जहां पांच महीने पहले तबाही का मंजर पसरा हुआ था। पहाड़ से आई आफत ने इस छोटे से ऐतिहासिक गांव के भीतर डर को पसार दिया है। पिछले 5 माह में इस इलाके में क्या बदलाव आये! असल में ऋषि गंगा तटों के किनारे जमा हुआ हजारों टन मलवा अब नजर नहीं आता। यही बदलाव हुआ है। बारिश के बाद अधिकांश जगहों से मलवा साफ हो गया। इसी मलवे में लापता लोगों के दबे होने की आशंका थी, जिन्हें ढूंढने की लोग कई दिनों तक गुहार लगाते रह गए। घाटी में फैला मलवा जून महीने में पहाड़ों पर लगातार तीन दिनों तक हुई बारिश के चलते बहकर निचले इलाकों में पहुंच गया। इस बारिश के चलते नदी में पानी अचानक से बढ़ गया और एक बार फिर से 7 फरवरी को बह गये पुल की जगह बने नये पुल पर भी खतरा पैदा हो गया। इस बारिश के चलते रैणी गांव के नीचे भारत-तिब्बत सीमा को जोड़ने वाली 40 मीटर सड़क भी बह गई।
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तीन रातों ने गांव के अस्तित्व पर उठाए सवाल
15, 16 और 17 जून को हुई भयानक बारिश के चलते रैणी गांव में एक बार फिर से दहशत और भय का माहौल पैदा हो गया। आखिर पहाड़ के एक छोटे कोने में टंगे हुये जिस गांव ने चंद महीनों पहले अपनी आंखों से एक बड़े हिस्से को मलबे के ढेर के नीचे दबते हुये देखा हो, वो डरे भी तो क्यों ना! तीन दिन और तीन रात तक हुई लगातार बारिश से ऋषिगंगा में पानी खतरे के निशान से ऊपर बहने लगा था। गांव का एक ऊपरी हिस्सा इसके चलते धंसने लगा। गांव के ही निचले हिस्से में बनी भारत-तिब्बत सीमा को जोड़ने वाली सड़क भी धंस गई, जिससे लोगों के घरों पर खतरा मंडराने लगा। इन तीन दिनों में लोग रात भर घरों से बाहर दूसरे ठिकानों पर जाकर बारिश के रुकने की जगवाली करते रहे।
पहले हुआ गौरा का विस्थापन
फरवरी में आई आपदा के बाद से ही गांव के लोगों ने मुखरता से विस्थापन की मांग शुरू कर दी थी, लेकिन भारत जैसे मुल्क में जहां आपदाओं के बाद सरकारें खानापूर्ति करने जमीन पर उतरती हैं, गांववालों की यह मांग पूरी नहीं हो सकी। पिछले दिनों गांव के अलग-अलग हिस्सों में हुये भूस्खलन के बाद एक बार फिर से ग्रामीणों ने विस्थापन की मांग की, लेकिन इनकी सुनवाई कब होगी यह उत्तराखंड की उस सरकार पर निर्भर है, जो मुखिया बदलने और नये मुखिया का चेहरा प्रचारित करने में ही ज्यादा मशगूल दिख रही है।
रैणी गांव के नीचे सड़क के धंसने से तिब्बत-चीन सीमा से ही संपर्क नहीं कटा है, जहां सिर्फ फौज को जाना है। असल में इस सड़क के धंसने से नदी के दूसरी ओर के 22 गांवों से भी पूरे इलाके का सम्पर्क कट गया है। सड़क का जो हिस्सा धंसा है, उसके ठीक ऊपर 'चिपको आंदोलन' की नेता गौरा देवी का स्मारक और उनकी मूर्ति लगी हुई थी। अब इस सड़क को पुनः जोड़ने के लिए स्मारक को वहां से हटाना पड़ा है। यह भी कम नाटकीय घटनाक्रम नहीं था। स्मारक के रहने व हटने को लेकर चार-पांच दिन तक गतिरोध बना रहा।
...ऐसे गौरा के वंशजों ने मान ली बात
आखिरकार प्रशासन पुलिसबल के साथ स्मारक को हटाने व गौरा देवी की मूर्ति को निकालने के लिए पहुंचा। पहले यह कहा गया कि गांव वाले खुद मूर्ति निकाल लें, लेकिन गांव वाले मूर्ति को हटाने को तैयार नहीं हुए। गौरा जिसने इस गांव को ही नहीं इस पूरे इलाके को दुनिया में एक नई पहचान दी थी, ये उस नेता के प्रति गांववालों की श्रद्धा थी। मूर्ति निकालने को गांव वाले शुभ संकेत के तौर पर नहीं देख रहे थे। इस बीच प्रशासन के लोग गांववालों को समझाते रहे। प्रशाशन ने सड़क न बनने पर सुरक्षा व शेष कट गए गांवों की नाराजगी की जिम्मेदारी के तर्क के साथ रैणी की महिलाओं को समझाने की आखिरी कोशिश की और यह तर्क चल निकला। महिलाओं के लिए अपने अस्तित्व के साथ-साथ यह भावनात्मक सवाल भी था। प्रशाशन के जोर, विस्थापन के आश्वासन और रिणी गांव के खतरे की जिम्मेदारी सीमा सड़क संगठन पर डालते हुए आखिरकार गतिरोध टूट गया। गौरा की मूर्ति को हटा लिया गया था और सड़क बनाने का काम शुरू हो सका। ये वो क्षण था, जब कई महिलाओं के हाथा गौरा के लिये जुड़े हुये थे और उनकी आंखों में अपनी इस पूर्वज के लिये आंसू थे।
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सर्वे करने पहुंची टीम के सामने हुई पत्थरों की बारिश
गांववालों को दिये गये विस्थापन के आश्वाशन के क्रम में 24 जून को भूगर्भ विभाग की एक टीम ने गांव का सर्वे किया। टीम यह देखने के लिए पहुंची थी कि गांव पर मंडरा रहा खतरा कितना गम्भीर है! दिलचस्प बात यह है कि सर्वे के दरमियान ही धंसाव वाली जगह में पुनः पत्थर गिरने लगे। इस दौरान सर्वे करने पहुंची टीम के लोग पत्थरों की चपेट में आने से बाल-बाल बच गये। सर्वे करने पहुंची टीम की रिपोर्ट गांव के विस्थापन के पक्ष में थी।
इंस्टेंट 'न्याय' पर उपजी प्रतिक्रिया
टीम ने अपनी रिपोर्ट सौंपी तो आनन-फानन में प्रशासन ने ऐलान कर दिया कि रैणी के पास में ही सुभाईं गांव में भूमि का चयन कर लिया गया है और वहीं पर ग्रामीणों को विस्थापित किया जाएगा। रैणी के 50 परिवारों के विस्थापन को लेकर अब प्रशासन हरकत में था। विस्थापन जैसी जटिल प्रक्रिया को लेकर इतना इंस्टेंट समाधान लोगों को चौंका रहा था। प्रशासन ने जब रैणी के विस्थापन की बात कही, तब इसकी प्रतिक्रिया भी तत्काल सामने आ गई। दूसरे ही दिन सुभाईं गांव के लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। सुभाई में विस्थापन का मतलब था हर किस्म के संसाधन पर अब रैणी के विस्थापित लोगों का भी अधिकार। असल लड़ाई की वजह यही बनने जा रही थी। गांववालों ने अपनी भूमि पर रैणी के लोगों के विस्थापन पर आंदोलन की चेतावनी दे डाली। जाहिर सी बात है कि प्रशासन के अधिकारी खानापूर्ति के इरादे से सुभाईं गांव का नाम ले रहे था और इसके लिये उन्होंने विमर्श भी आपस में ही किया था।
क्यों नाराज हुए ग्रामीण
इस मसले को लेकर मैंने जब गांववालों से बात की तो जो बात सामने निकलकर आई, वह बेहद व्यावहारिक थी। एक शख्स ने बेहद मासूमियत से कहा कि विस्थापन का मतलब सिर्फ 100 स्क्वायर मीटर (आधा नाली) भूमि व दो कमरों का घर नहीं होता। जल, जंगल, जमीन, चरागाह, मरघट-पनघट समेत हक हकूक सभी इसमें शामिल होता है। यह वाकई कमाल की बात थी। एक पूरा गांव जो अपनी विरासत अपने चारागाहों, अपने खेतों और अपने जगंल-नदी को छोड़कर कहीं और बसने जा रहा था, वह केवल एक घर के भरोसे नहीं जा सकता। इन सबके बगैर विस्थापन सिर्फ खाना पूर्ति व गम्भीर स्थाई समस्या का तात्कालिक व चलताऊ हल ही होगा। पहाड़ों पर सीमित संसाधनों वाली बसावट वाले जिस भी गांव में रिणी का विस्थापन होगा, वहां रहने वाले लोग अपने हक-हकूक भला किसी के साथ क्यों बांटना चाहेंगे! यह ऐसा सवाल है, जो घाटी में एक लंबे आंदोलन और आपसी रंजिश को पैदा कर सकता है। एक तथ्य यह भी है कि जमीन, जंगल और चरागाह सभी आबादी के अनुपात में सिकुड़ रहे हैं।
विस्थापन के इंतजार में पहाड़ों पर टंगे हैं ढाई सौ से ज्यादा गांव
दैवीय आपदाओं की पहचान बन चुके उत्तराखण्ड में ढाई सौ से ज्यादा गांवों का विस्थापन होना है। अकेले जोशीमठ ब्लॉक में ही 2007 से अब तक 17 से अधिक गांव विस्थापन के इंतजार में हैं, लेकिन सरकार की ढुलमुल नीतियों के चलते अब तक विस्थापन की प्रक्रिया ही शुरू नहीं हो सकी है। इस मसले पर सरकार को 'जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति' की ओर से एक रचनात्मक सुझााव पेश किया था, जिसके मुताबिक सरकार को उन गांवों के अधिग्रहण के बारे में सोचना चाहिये जो पलायन के चलते खंडहर में तब्दील हो गये हैं। इन खाली हो चुके गांवों में विस्थापित होने वाले गांवों को बसाने पर विचार करने की बात इस प्रस्ताव में की गई थी। इससे होता यह कि विस्थापित लोगों के पास अपने हक-हकूक होते और खंडहर पड़ चुके गांव भी आबाद हो जाते। ये विचार एक लंबी और जटिल प्रक्रिया से होकर ही पूरा हो सकेगा, लेकिन ऐसा न हो पाये यह असंभव भी नहीं।
समिति ने आपदा के विभिन्न पहलुओं व रैणी के विस्थापन के साथ ही विस्थापन के सभी पहलुओं पर व्यापक नीति हेतु नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की है। उत्तराखण्ड राज्य जो विस्थापन की गम्भीर चुनौतियों से पिछले कुछ सालों से जूझ रहा है, उसके पास विस्थापन नीति लचर और अव्यावहारिक है। एक्सपर्ट की मानें तब सूबे में विस्थापन के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर नई विस्थापन नीति बनाए जाने की जरूरत है, जिसमें केवल लोगों को घर दिलाने तक की ही बातें न सिमटकर रह जाएं।
...और अंत में
और अंत में बात वापस उसी रैणी गांव की जो 1974 में चिपको आंदोलन के जरिये पर्यावरण व जंगलों पर हक-हकूक का प्रतीक बन गया था। आपदा के बाद विस्थापन की मांग के साथ उजड़ने की तरफ बढ़ रहा रिणी गांव नए सन्दर्भों में विकास के प्रकृति विरोधी मॉडल के खिलाफ बहस, विचार और नीति का प्रस्थान बिंदु बन सकेगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलवक्त इस गांव ने एक बार फिर से इस बहस को तो जन्म दे ही दिया है कि हिमालय पर निर्माण परियोजनाओं से पहले लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता में रखना होगा। चिपको की लगभग आधी सदी बाद पर्यावरण संरक्षण की मार झेलते, अपने हक हकूकों से वंचित हुए लोग आज अपनी जमीन को स्वेच्छा से छोड़ने को आखिर क्यों मजबूर हो हैं, इस सवाल की भी गहराई से पड़ताल जरूरी है। देहरादून से लेकर तिब्बत से सटे हुये दर्रों तक भारत के निर्माण कार्य हिमालय पर आफत बनकर टूट रहे है।, लेकिन सरकारें इससे दूर बेपरवाह उस खेल में मशगूल हैं, जो किसी के लिये भी स्थाई नहीं।
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