शिवानी पांडे गढ़वाल विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विषय में पीएचडी कर रही हैं। शिवानी छात्र राजनीति के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी सक्रिय हैं।
अंग्रेज जब भारत आए तो उनका उद्देश्य केवल व्यापार करना था। अंग्रेजों की पूरी सीमा जलमग्न थी, इसलिए अपनी नौसेना को बेहतर बनाना उनके लिए मजबूरी और जरूरत दोनों थी। उस दौर में इंग्लैंड की नौसेना दुनिया की सबसे मजबूत नौसेना थी। अंग्रेज इसी मजबूत नौसेना की मदद से कई देशों को अपना उपनिवेश बना चुके थे। उपनिवेश बनाने के इस दौर में में नौसेना को नावों की जरूरत थी और अंग्रेजों को अपने उपनिवेश देशों में व्यापार के लिए अच्छी सड़कें, रेलवे के विस्तार और नए शहरों की आवश्यकता थी। इन के लिए जरूरत थी, अच्छे और घने जंगलों की।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पहली जरूरत कच्चा माल और बाजार थी। उपनिवेशों में उसे कच्चा माल, सस्ता श्रम (अनेक बार मुफ्त श्रम यानी बेगार भी) और पर्याप्त बाजार एक साथ मिला। इस व्यापारिक इच्छा में पहले प्रच्छन्न और बाद में प्रत्यक्ष राजनीतिक इरादे जुड़ गए। उपनिवेश के समस्त संसाधन मूलतः जमीन, जंगल या जल से जुड़े थे। खेती हो या खनन, कस्तूरी मृग हो या मछली, जड़ी-बूटी हो या पेड़, नहर हो या तालाब, गीत हो या उत्सव, रोजगार हो या व्यापार, कुटीर उद्योग हो या युद्ध। यह सभी इन्हीं आधार संसाधनों के चारों दिशाओं में मौजूद थे।
इन्हीं जरूरतों के लिए अंग्रेजों ने नयी जगहों को खोजना शुरू किया। भारत में अंग्रेज व्यापार के उद्देश्य से ही आये थे, लेकिन जब अपने देश मे इमारती लकड़ियों की जरूरत पड़ी तो, उनका इरादा बदल गया। ब्रिटिश अपने दूसरे उपनिवेशों आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के जंगलों का विनाश भारत से काफी पहले कर चुके थे। व्यापार और कच्चे माल की जरूरतों के हिसाब से अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य विस्तार का लक्ष्य बनाया।
अंग्रेजों के साम्राज्य विस्तार का खास पहलू था कि जहां-जहां इमारती लकड़ी की आपूर्ति के लिए जंगल दिख रहे थे, वहां-वहां ब्रिटेन अपना साम्राज्य विस्तार करता गया। उनकी जरूरतों ने उन्हें भारत के घने जंगलों की तरफ आकर्षित किया। इसी का नतीजा था कि अंग्रेजों का साम्राज्य विस्तार उतरी भारत, सिंध और हिमालई क्षेत्रों तक फैला।
अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में ही भारत के जंगलों को चिन्हित करना और विनाश करना शुरू कर दिया था। 1853 में जब रेल भारत आई तो जंगलों के विनाश में और तेजी आई। रेलवे का विस्तार वहां तक हुआ जहां जंगल थे या इमारती लकड़ियों की पहुंच थी। मसलन उत्तराखंड में तराई काठगोदाम या कोटद्वार तक रेल आयी, क्योंकि यहां तक पहाड़ से कटी लकड़ी नदी के रास्ते तैर कर आ सकती थी। इन जगहों से ऊपर पहाड़ो में सड़के बनाई गई, ताकि जंगलों को चिन्हित करने और सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने में आसानी हो।
चूंकि ये सारा विनाश अव्यवस्थित ढंग से तेजी से हो रहा था और यहां के स्थानीय लोग भी अपने पारम्परिक अधिकारों का उपभोग कर रहे थे, जंगलों पर सरकार का नियंत्रण नहीं था। तब जरूरत पड़ी स्थानीय निवासियों को जंगलों से खदेड़ने के लिये एक ऐसे महकमे की, जिसके नियत्रंण में जंगल हों और ऐसे 1864 में वन विभाग अस्तित्व में आया। इस विभाग के बनने के बाद से सरकार का नियंत्रण जंगलों पर स्थापित हो गया। अब जंगल गांव के नही थे, बल्कि सरकार के थे। इन जंगलों में नागरिकों का कोई अधिकार नही था, बल्कि उन्हें जो कुछ चराई, जलाऊ लकड़ी का अधिकार मिल रहा था वो सरकार की खैरात थी।
सरकार के नियंत्रण को मजबूत करने के लिए 1865 का पहला वन अधिनियम बना, जिसने गांव की सीमा से लगे जंगल के अलावा सारे जंगल सरकार के कंट्रोल में ला दिये। इसमें लोगों को गांव के आस-पास के कुछ सीमित क्षेत्रों में चराई और जलाऊ लकड़ी के उपयोग का अधिकार मिला था। इस वन अधिनियम में कुछ कमी रह गयी थी, तब 1878 का वन अधिनियम बना। इस अधिनियम ने लोगों से उनके जंगलों पर अधिकार को छीन लिया। अब उन्हें जंगलों में अधिकार नहीं, सुविधाएं मिलती थी। जिनकी अवधि पूरी तरह सरकार पर निर्भर थी। जंगलों को आरक्षित, संरक्षित और ग्राम वनों की श्रेणी में बांट दिया गया।
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आरक्षित (रिजर्व) वन वो थे जो कीमती इमारती लड़कियों से भरपूर थे, ताकि इनका व्यापारिक इस्तेमाल अंग्रेज कर सकें। ये पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में थे। स्थानीय लोगों को इसमे कोई अधिकार नही था। संरक्षित (प्रोटेक्टेड) वन वो थे जो सरकार के नियंत्रण में थे, लेकिन जिनमें कुछ-कुछ सुविधाएं ग्रामीणों को दी गयी थी। इसके साथ यह भी व्यवस्था कर दी गई कि अगर भविष्य में संरक्षित वनों में कीमती इमारती लकड़ियों की स्थिति सुधरेगी तो वन विभाग इन्हें आरक्षित (रिजर्व) वनों में परिवर्तित कर सकता है। इसके पीछे जंगलों पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने की मंशा थी। इस नियम के कारण 1878 में जो राज्य नियंत्रण में 14,000 वर्ग मील जंगल थे, वो 1890 में बढ़ कर 81,000 वर्ग मील हो गया।
साल 1947 में केवल आरक्षित वनों का क्षेत्र 99,000 वर्ग मील हो गया था। इन आरक्षित वनों ने शुरुआत में रेलवे विस्तार में बहुमूल्य योगदान दिया और बाद में दो विश्व युद्धों में साम्राज्यवादी हितों को पूरा किया। ग्राम वन, वो थे जो गांव के आस-पास के जंगल थे। इन पर स्थानीय लोगों को कुछ अधिकार दिए गए थे, लेकिन सरकार का नियंत्रण इतना था कि उन अधिकारों का उपयोग करना मुश्किल हो गया। नतीजतन कई जगह जंगलों में अधिकारों के लिये बगावत भी हुई और सरकार को कम वक्त के लिये ही सही, घुटने टेकने पड़े।
इस अधिनियम ने लोगों के जीवन को सामाजिक और आर्थिक रूप से खासा प्रभावित किया। जैसे-जैसे जंगलों पर नियंत्रण बढ़ता गया, वैसे-वैसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन तेज होने लगे। मौजूदा उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके देश की आजादी में उस हद तक शामिल नहीं थे, जिस कदर देश के अन्य हिस्सों में आंदोलन चल रहा था। अब जब जंगलों पर लोगों के अधिकार खत्म होने लगे, यहां के लोग देश की आजादी की लड़ाई में शामिल होने लगे। लोगों के प्रतिरोध की आवाजें अलग-अलग तरीकों से बाहर आने लगी। 1904, 1906, 1916, 1921, 1930, और 1942 में देश के अलग-अलग हिस्सों में जंगलों पर अधिकार के लिए आंदोलन हुए। उत्तराखंड के सुदूरवर्ती इलाकों में तो जंगल का सवाल आग की तरह फैल गया।
1916 से 1920-21 में कुमाऊं में लोग जंगलों में आग लगा कर प्रतिरोध करने लगे। ये घटनाएं इतनी ज्यादा हो गयी थी कि सरकार को एक कुमाऊं फारेस्ट ग्रीवांस कमेटी बनानी पड़ी। इस कमेटी ने गांव-गांव जा कर, पहाड़-पहाड़ चढ़ कर लोगों से बात की। इसमें हर गांव के पास जंगल के एक खंड की पहचान की गई, जहां से ग्रामीणों को ईंधन और चारे, निर्माण के लिए लकड़ी, हल के लिए लकड़ी, टोकरियां बनाने के लिए बांस और इसी तरह की चीजों के लिए विशेष अधिकार हासिल हो सके। इसी दौरान ऐसे प्रस्ताव भी सामने आये जिनमें गांव वालों को जंगलों पर पूरे अधिकार दिए जाने की बात हुई। इन जंगलों का प्रबंधन ग्राम पंचायतों के जरिए होने का प्रस्ताव रखा गया।
तब अपने द्वारा जुटाए गए साक्ष्यों के आधार पर कमेटी ने निष्कर्ष निकाला कि वन कानूनों को शक्ति से लागू करने की किसी भी कोशिश का नतीजा दंगा और खून खराबा होगा। इसमें मौजूदा आरक्षित वनों को दो श्रेणियों में बांटा गया। पहला, जिनका प्रबंधन नागरिक प्रशासन के जरिए, थोड़ा संवेदनशील हो कर वन अधिकारियों को करना था और दूसरे में व्यावसायिक रूप से वो मूल्यवान वनक्षेत्र थे, जो वन विभाग के पास बने रहते। इसमें यह भी सिफारिश की गई थी कि सरकार को गढ़वाल और कुमाऊं की जनता की मांग के मुताबिक ग्राम वनों के निर्माण पर विचार करना चाहिए। 1930 में जाकर ऐसे कानून स्वीकार किए गए, जिसमें संयुक्त प्रांत के पहाड़ी जिलों में वन पंचायतों के निर्माण की इजाजत दे दी गई। यह देश मे अनोखी व्यवस्था थी।
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ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा के दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे। इसी क्रम में टिहरी रियासत ने वर्ष 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की थी। वर्ष 1927 में रवाईं घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया। इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हक-हकूक समाप्त कर दिए गए। वन के प्रयोग पर टैक्स लगाया गया और पारंपरिक त्योहारों पर रोक लगा दी गई। एक गाय, एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपये वार्षिक टैक्स लगाया गया, जिससे स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा। इन करों और वन अधिकारों की मांग के लिए लोग 30 मई 1930 को उत्तराखंड के तिलाड़ी में इकट्ठा हो गये।
तिलाड़ी में जंगलों पर अपने नैसर्गिक अधिकारों का दावा करने वाले इन लोगों को सबक सिखाने के लिए टिहरी के राजा नरेंद्र शाह ने अपने दीवान चक्रधर जुयाल के साथ मिलकर क्रूर हत्याकांड को अंजाम दिया।उस दौर में राजशाही के इस क्रूर दमन के कारण सैकड़ों लोग मारे गए। यह घटना इतनी भयावह और रक्तरंजित थी कि इसे गढ़वाल का जलियांवाला हत्याकांड कहते हैं।
उत्तराखंड में जंगलों की लड़ाई का लंबा और संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। संघर्षों के बाद नागरिकों को कुछ थोड़े से अधिकार मिले। आजादी के बाद लगा कि अब तो देश में जल, जंगल, जमीन के संसाधनों पर लोगों का अधिकार होगा, लेकिन आजादी के बाद के कानूनों ने जंगलों पर लोगों के अधिकारों को छीनने का काम और ज्यादा तेजी और ज्यादा असंवेदनशील तरीके से किया। इसी का नतीजा था कि 70 के दशक में देश के कई हिस्सों में वन और पर्यावरण आंदोलन हुए। चिपको आंदोलन इसी कड़ी का हिस्सा था, जिसने जंगलों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों की मांग को प्रबल तरीके से सामने रखा। बदले में सरकार ने 1980 की वन नीति में स्थानीय लोगों के अधिकारों पर और बड़ी चोट कर दी।
अकेले उत्तराखंड में ही जंगलों को बचाने की लड़ाइ नहीं लड़ी गई, बल्कि इन लड़ाइयों का इतिहास झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के जंगलों तक विस्तार लेता चला जाता है। मध्य भारत और दक्षिण के जंगलों में खनिज पदार्थों के भंडार ने आदिवासियों को अपनी ही जमीन से कई-कई बार उजाड़ा है, जो सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। वेदांता जैसी कंपनी की स्याह कहानी में सरकार ने कई आदिवासियों की जान ली है, जबकि वो अपने जंगलों को बचाने और अपनी जमीन पर से न निकाले जाने के लिए लड़ रहे थे। हालांकि, अंत में जीत गांववालों की हुई और सैकड़ों दफा दमन की कोशिशों के बावजूद गांववाले आज भी अदालतों में वेदांता के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, जिनमें कई मामलों में उनकी जीत हुई है।
आज भी जंगलों को बचाने की लड़ाई जारी है
ऐसे ही जंगलों को बचाने की एक लड़ाई इन दिनों मध्यप्रदेश के बक्सवाहा में भी लड़ी जा रही है। सरकार ने बक्सवाहा के जंगल में 2 लाख से ज्यादा पेड़ों को हीरों की खदान के लिये काटने की अनुमति दे दी है, जिसका बड़े स्तर पर विरोध चल रहा है। हीरों के चक्कर में केवल बक्सवाहा में पेड़ ही नहीं कटेंगे, बल्कि सालों की जैव-विविधता भी खत्म हो जाएगी। हजारों पक्षियों, जलीय जीवों का घर बर्बाद होगा। ये ऐसी तबाही होगी जो तमाम कोशिशों के बावजूद फिर से ठीक नहीं की जा सकेगी। इससे पहले मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट कहे जा रहे ऑल वेदर रोड़ प्रोजेक्ट के लिए नियमों में चालाकी से फेरबदल कर 50 हजार से ज्यादा पेड़ काट दिये गए थे। ये उस संवदेनशील हिमालय में हुआ जहां आपदाएं ही पहचान बनती जा रही हैं। अलग-अलग परियोजनाओं के लिए देशभर में लाखों पेड़ों का खात्मा किया जा रहा है, जबकि बिना पेड़ों को गवाएं और बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाये भी विकास संभव है।
बहरहाल, ये बेहद दयनीय स्थिति और सरकारों का नैतिक पतन ही कहलाएगा कि पिछली सदी के गुजरे सालों में हमारे जंगल रेलवे और विश्व युद्धों के लिए तबाह हो रहे थे और आज हीरे के लिए। ब्रिटिश इंडिया से हम 'अपने' इंडिया तक तो पहुंच गये, लेकिन जंगलों को लेकर हमारी सरकारों की मानसिकता अभी भी पिछड़ी ही ज्यादा दिखती है। जंगलों को बचाने की लड़ाई का एक दु:खद हिस्सा यह भी है कि इस तरह के आंदोलनों में समाज का एक बड़ा तबका गैरजिम्मेदार ढंग से हर दफा गायब नजर आता है।
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