सुमित मिश्रा की यात्रा बीएचयू से शुरू हुई और अब मुंबई पहुंच गई है। वो कला के पारखी भी हैं और खुद एक कलाकार हैं। कैनवस पर उनके स्ट्रोक्स की अपनी दुनिया है, अपने रंग हैं। कैनवस पर रंगों के अलावा वो फिल्मों का निर्देशन इन दिनों कर रहे हैं। 'हिलांश' में वो अपने कॉलम 'आज रंग है' के जरिये पाठको को कला की 'महीन' और खूबसूरत दुनिया तक ले चलेंगे।
हो रहा है जो जहाँ सो हो रहा, वही हमने कहा तो क्या कहा
किन्तु होना चाहिए कब, क्या, कहाँ, व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ
- मैथलीशरण गुप्त
कला की समकालीन उपयोगिता और कला की दूरदर्शिता को समझने के लिए मैथलीशरण गुप्त की इस कविता से ज्यादा तर्कसंगत शायद ही कुछ हो सकता है। जब हम कला को पौराणिकता से आधुनिकता तक के फ्रेम में देखते हैं, तो अपने-अपने कालखंड को पूरी पारदर्शिता के साथ प्रतिबिम्बित करने में हर कालखण्ड की कला समुचित रूप से सक्षम नजर आती है। इसके उलट जैसे ही वर्तमान परिवेश में कला, कलाकार और कला जगत की बात करते हैंए तब कला में एक विशेष स्वछंदता देखने को मिलती है, जो प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान परिवेश को परिभाषित तो नहीं कर पाती है लेकिन अप्रत्यक्ष और अमूर्त रूप से वेदना और संवेदना को परिलक्षित करती है।
सामाजिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण की वजह से कला, खास तौर पर चित्रकला और मूर्तिकला अब अमूर्त अभिव्यक्ति को ज्यादा सहजता से स्वीकार करती दिखती है। अब कला कथानक न होकर भावनात्मक ज्यादा हो गई है। किसी भी संवेदना विशेष के लिए विशेष रंग और विशेष आकार द्वारा अपनी बात सम्प्रेषित करना समकालीन कला की नयी परंपरा बन चुकी है, जो दर्शक के मस्तिष्क को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित भी करती है और प्रत्यक्ष रूप से पसंद भी की जा रही है।
सबसे पहले समकालीन और सम-सामयिक में भेद जानना आवश्यक है। एक खास काल खंड में वैचारिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवेश को समकालीन कहते हैं, जबकि स्थितिजन्य मुद्दों को सम-सामयिक कहते हैं। कला इन दोनों के प्रभाव से वंचित नहीं रह सकती है। वर्तमान परिस्थिति में कला के लिए दोनों पहलू महत्वपूर्ण है। समकालीन रूप से विश्व एक वैचारिक कट्टरता से गुजर रहा है, जबकि सम-सामयिक रूप से एक महामारी के आतंकित माहौल के अंधेरे में भी कला प्रस्फुटित होने के लिए प्रयासरत है।
वैश्विक रूप से समाज में बाजारीकरण के हावी होने के असर से कला जगत भी अछूता नहीं रहा। कला 'साधना' के साथ ही व्यवसाय के रूप में भी सुचारु रूप से चल ही रही थी कि तभी कोरोना महामारी एक वैश्विक दुर्घटना की तरह सामने आ खड़ी हुई। अब जबकि यह एक शारीरिक महामारी के साथ ही भावनात्मक और सामाजिक एकांत के रूप में सामने आई तो इसका असर कला पर भी देखने को मिला। बेशक इस आरोपित एकांत के सकारात्मक और नाकारत्मक दोनों स्थितियों से कलाकार को रूबरू होना पड़ता है।
रचनाशीलता एक प्रक्रिया है, जिसके लिए विषय, भाव, रंग और आकार को आत्मसात करना होता है। हर क्षण परिवर्तित होते हुए आसमान को देखना होता है। हवाओं के घटते-बढ़ते दबाव को महसूस करना होता है। हंसी और अट्टहास, शोर और कोलाहल के फर्क़ को समझना होता है। सच कहूं तो कॉफ़ी हाउस में बैठ कर एक ही प्याली के हर घूंट का फर्क़ भी समझना होता है। असल में इतना संवेदनशील और इतना अनुभवी बनना होता है, एक रचनाकार को तब जाकर कोई भी कला मूर्त रूप ले पाती है। ये सभी अनुभव सिर्फ एकांत में और खास तौर पर आरोपित एकांत में मिलना मुमकिन नहीं है। ये अनुभव किसी भी कलाकार को खुले आसमान के नीचे, रेत या ज़मीन पर नंगे पांव चलते हुए मिलते हैं।
नेशनल हाईवे पर ड्राइव करते हुए, जितनी रफ़्तार से आप आगे जा रहे होते हैं उतनी ही रफ़्तार से पीछे की तरफ भाग रहे लहलहाते पेड़ो के हरे-पन से मिलता है। जीवन के अनुभव आमतौर पर विपरीत दिशा में ही भागते हैं। इसी के मध्य कोई एक बिंदु, कोई एक रेखा, कोई एक रंग, कोई एक आकार, हमारे सृजन के लिए ठिठका हुआ रहता है। हम कभी समय चुराते हैं और उसे अपनी रचनात्मकता में दर्ज कर देते हैं। इन्हीं चुराये हुए समय और अनुभव को एकत्रित करके मनचाहे एकांत में अपनी-अपनी विधा और हुनर के अनुरूप अभिव्यक्त करते हैं।
बेशक कलाकर्म एकांत में होता है, लेकिन इसकी अवचेतन प्रक्रिया प्रकृति और भीड़ के बीच उन्मुक्त भटकने से ही संभव है। मेरे लिए भीड़ का मतलब होता है, भीड़ का हर एक चेहरा, एक मुकम्मल किताब और भटकना... यही मेरे लिए एक अनुभव भी बनता है। अनुभव ख़ुद से खुद तक पहुंचने का। एकांत और अकेलेपन के फ़र्क़ को समझने की एक लंबी यात्रा है। रचनाशील बने रहने के लिए एकांत चाहिए। अकेलापन अवसाद की तरफ़ ले जाता है और एकांत साक्षी भाव की तरफ़।
सच कहूं, अगर पांव के नीचे ज़मीन और सर के ऊपर आसमान ना हो, तब ख़ुद के होने का एहसास ही नहीं होता। शहर के होने का एहसास भी शहर में ही होना है। किसी के सर के ऊपर और किसी के पैरों के नीचे बने कमरे को मैं शहर नहीं मानता। अफ़सोस इन दिनों शहर में नहीं हूँ। अपने कमरे में हूँ और इस आरोपित एकांत की अवहेलना भी नहीं कर सकता। मेरे लिए एकांत एक मानसिक अवस्था है, जिसे मैं हमेशा अपने साथ लिए घूमता हूं, भटकता हूं।
मैं कलाकार हूं, शिल्पी नहीं
सोच हमेशा समग्र होनी चाहिए, किश्तों में नहीं। जैसे चित्र और धारावाहिक में फ़र्क़ होता है। वही फ़र्क़ समूचे आसमान को निहारने में और अलग-अलग कमरे की खिड़की से उस खिड़की भर के आसमान को निहारने में होता है। मेरे लिए लॉक डाउन या सामाजिक दूरी बिल्कुल रचनात्मक नहीं है, क्योंकि मैं कलाकार हूं, शिल्पी नहीं। ऐसे में सबसे पहले हमें हुनर और कला के फ़र्क़ को समझना जरूरी हो जाता है। कला एक स्वभाव है, जबकि हुनर एक तकनीक है। स्वभाव को बचाए रखने के लिए स्वभाव में ही बने रहना होगा। स्वभाव से अलग होना मतलब 'स्व' का अभाव। इस अभाव में रचना नहीं हो सकती है!
वर्तमान आरोपित एकांत और महामारी के तथाकथित आतंक के दौर में कला और कलाकार जहां एक तरफ रचनात्मक विपन्नता से गुजर रहा है, वहीं दूसरी तरफ व्यावसायिक किल्लत का भी सामना करना पड़ रहा है। 'Mint' में प्रकाशित एक लेख में देश के कुछ कलाकारों ने अपने अनुभव साझा किये हैं, जो रचनाकार के सम-सामयिक रचनात्मक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस लेख में वड़ोदरा की रेखा कहती हैं- 'इतिहास में इस तरह की प्रबल घटना किसी को अछूता छोड़ दे, ये असंभव है। यह मेरी चेतना को परिलक्षित करती है और उस घटना के वास्तविकता का एक हिस्सा बनने के लिए बाध्य करती है, जो मैं जी रही हूं।' रेखा की इस कलाकृति “Home is Wherever You Are” में रचनात्मक मन पर लॉक डाउन का असर साफ तौर पर परिलक्षित हो रहा है।
महामारी के इस आंतक के बीच कुछ ऐसा ही कलकत्ता के चित्रकार जोगेन चौधरी व्यथित होते हुए कहते हैं- 'पिछले कुछ महीने से घटित हो रही घटनाओं से मैं अंदर तक सिहर चुका हूं।' इस लॉक डाउन में बनाई गई उनके कृति 'Couple' में एक विशेष अवसाद को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। कला असल में अपने दौर का प्रतिबिंब ही है।
एक और भारतीय कलाकार ध्रुवी आचार्या ने भी अपने चित्रों में वर्तमान महामारी के डर और निराशा को व्यक्त किया है। ध्रुवी का मानना है कि ये रचनायें वर्तमान अवसादित परिस्थिति पर मेरे व्यक्तिगत विचार और डर की दृश्य व्याख्या है। ध्रुवी का मानना है की हमेशा कला संकटकाल में प्रेरित होने और प्रेरित करने का एक सशक्त माध्यम रहा है। मैं कला के शक्ति में पूरे दृढ़ता से विश्वास करती हूँ, फिर चाहे वो संगीत हो, कविता हो, नृत्य हो या कोई अन्य दृश्य कला।
इस महामारी के आतंकित वक़्त में रचनात्मक विपन्नता इसलिए भी व्याप्त है क्योंकि की कला के लिए स्वछंदता चाहिए, अनंत उड़ान चाहिए, हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी की कार्य प्रणाली या कला साधना का तरीका एक ही है। जिस किसी की एकांत में सोचने और एकांत में कला प्रजनन करने की आदत है, जो सामाजिक परिप्रेक्ष्य के बदले मनोवैज्ञानिक और खास तौर पर स्वमनोविज्ञान की कला पद्धति से संबंध रखते हैं, बेशक उनके लिए यूं बंद होना, इस तरह का एकांत लाभप्रद होगा। कलाकार का एक वर्ग ऐसा भी है, जो विषय और शिल्प की विभिन्नता के लिए भटकाव को महत्व देता है। उसके लिए ये एक गैर रचनात्मक काल है। ये तो बात हुई रचनात्मक विपन्नता की, लेकिन जो सबसे ज्यादा असरदायक रहा वो है व्यावसायिक किल्लत।
वर्तमान माहौल में बाजार सिर्फ अतिआवश्यक आवश्यकता तक सीमित हो चुका है। हमेशा से ही कला (कला की हर विधा) एक विलासिता की वस्तु रही है और इसी वजह से कला का व्यवसाय इन दिनों महामारी के कारण देश भर में अपने न्यूनता पर है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि दुनिया भर के लोगों को अपनी कला और हुनर से जागरूक करने वाले लोग अपने अधिकारों के लिए कभी आगे ही नहीं आये। वो अपने आप ही सब कुछ ठीक हो जाने वाली सोच से संतुष्ट रहे, जबकि सच यह है कि हम में से किसी को भी नहीं पता की ये दौर और कितना लम्बा चलेगा। अनंतकाल तक जब सिर्फ अंधेरा हो, तब भूखे रहकर कला का सृजन चलता रहेगा, ऐसा मुश्किल है।
आशंकाओं के इस दौर में बस फ़िलहाल यही कहना चाहूंगा की स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें, सकारात्मक रहें... यही वक्त की मांग है। अगले अंक में कला के अन्य पहुलुओं के साथ दस्तक दूंगा।
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