उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।
विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद राज्यसभा से रिटायर हुए तो सुना प्रधानमंत्री भावुक हो गये, उनके आंसू निकल आये। हालांकि, गुलाम नबी देर-सबेर पुनः संसद में आ सकते हैं। कौन जाने कभी ईद मिलने सात लोक कल्याण मार्ग पर ही चले आयें। पर आंसुओं का क्या, वो निकल आते हैं आंखों के रस्ते। हम ये भी ना समझें कि मौसम ही टसुवे बहाने का है; आंदोलनजीवी, चुनावजीवी, परजीवी सभी बहा रहे हैं। ये तो दिल के मुलायम होने की पहचान है। प्रधानमंत्री हुए तो क्या, उनके पास भी दिल है, वो भी आदमी का.. 'पत्थर के सनम' थोड़े हैं।
कुछ दिन पहले वो तिरंगे के अपमान से बहुत आहत हो गए थे। उनका पशु-पक्षी प्रेमी कोमल हृदय दुखाया गया था। चाहे वो गुलाम नबी हों या दीप सिद्धू या राकेश टिकैत, मुसलमान, सिख, इसाई या हिन्दू ही क्यों न हो, उनको दुखी करें ये अच्छी बात नहीं है। विधर्मी और विदेशी थोड़ा-बहुत करें तो चलेगा, जैसा बॉर्डर पर चीन ने किया हुआ है। कभी ज़मीन का टुकड़ा हथिया कर ईडब्लूएस कॉलोनी सी बना देता है, तो कभी धक्का-मुक्की करके जवानों को खरोंचें लगा देता है। पर एक बात तो माननी पड़ेगी, उसने तिरंगे का अपमान नहीं किया। उसे पता है, ऎसी हरक़तों पर दो-चार आंसू बहा कर चुनाव के कामों में बिजी हो जाएंगे पर तिरंगे का अपमान किया तो मोदी घर में घुस कर मारेगा। ये बात चीन ही नहीं, उसका मित्र पाकिस्तान और हमारे आर रिपब्लिक वाले मित्र भी अच्छे से और बहुत पहले से जानते हैं। है ना सर!
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कलाकार दीप सिद्धू का इरादा भी उनको आहत करने का नहीं था शायद। उनकी पार्टी के एमपी पाजी सनी, उनकी मम्मी, गृहमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री के साथ सौहार्द छलकाती फ़ोटुओं के आलोक में देखा जाए तो आदमी, सिद्धू, घर का ही लगता है। लेकिन एक तर्क उसके पक्ष में दिया जा सकता है कि अगर वो सन्नी पाजी का आदमी था तो उसने उनकी प्रसिद्ध 'हैंडपंप उखाड़ टेक्नीक' से काम क्यों नहीं लिया? लेना चाहिए था! झंडे के साथ ऊपर चढ़कर पोज़ देने के बजाय पोल उखाड़ कर आराम से झंडा लगाता। न तस्वीरें कैमरे में क़ैद होती, न अंजना देखती न पीएम दुखी होते। ख़ैर, क्या किया जाए, हर इंसान अपना सुख-दुख ऊपर से लिखा कर लाता है। है ना सर ?
पत्थर से याद आया, जिस वक़्त तिरंगे का कथित अपमान हो रहा था मैं ख़ुद लाल क़िला प्रांगण में नहीं था। प्रधानमंत्री भी नहीं थे। हमको 'टीं वीं' द्वारा ही अपमान का समाचार मिला। मैं घर में बैठा उन्हीं के जैसे 'ए से ज़ी तक' चैनल बदल-बदल कर देख रहा था। मुझे जे आदत तब्लीग़ी जमात और रिया वाले एपिसोडों से पड़ी है। अब आपसे क्या छुपाना, मैं क़तई आहत-वाहत नहीं हुआ और किसान से ज़्यादा मज़ा मुझे तब्लीग़ी में आया था। आईटीओ का ‘ट्रैक्टर करतब’ और पुलिस के बर्ताव को छोड़कर ट्रैक्टर रैली में कुछ ख़ास नहीं रहा। तब्लीग़ी में भी.. बस गोल टोपी वालों को परेशान देख कर सुख मिला। एंकरों की सरोकारी भंगिमाओं के अलावा कोई ग्लैमर भी नहीं था उसमें। मगर सबसे ज़्यादा ज़िन्दगी का मज़ा रिया वाले में आया।
रिया के केस में पुलिस एक्शन, जासूसी, वक़ीलों के दांव-पेच, मौत की गुत्थी, नशे का जाल, इमोशन-डिवोशन, राजनीति का राग..! पूछो क्या नहीं था सर..! वो 'टीं वीं' पत्रकारों का गाड़ियों से रिया का पीछा करना, गेस्ट हाउस के अहाते में एक्सक्लूसिव बाइट के प्रयास में रिया की ग्रीवा के पास माइक का करंट लगाना, स्टूडियो से एंकर की यलग़ार पर रिया की झलक सबसे पहले फ़्लैश करवाने को एक हथेली पर जान और दूसरी पर कैमरा लिए मैन का दीवार पर चढ़ जाना इत्यादि, जैसी जो रोमांचक झांकियां प्रस्तुत की गईं, उसके लिए मीडिया और सरकार दोनों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। सरकार को इसलिए कि अगर वह दिल्ली- पटना के बीच तेज़ी से कार्य करते ड्रग्स कनेक्शन बेपर्दा करने को दिल्ली की टीम मुम्बई न भेजती तो टेम्पो धीमा हो जाता.. कौन जाने अपराधी पाकिस्तान ही भाग जाते। परिश्रमजीवी मीडियामैन से जिस सर्वांगीण कवरेज की उम्मीद थी, उस पर वह खरे उतरे। पत्रकारिता का हर अंग प्रयोग किया..उनकी पगार बढ़ाई जानी चाहिए, क्या कह्ते हो सर?
'टीं वीं' का यह भी फ़ायदा है कि बिना कोविड संक्रमण या चोट-पटक का रिस्क लिए हम ऐतिहासिक क्षणों का हिस्सा बन जाते हैं। बाद में बच्चों को इम्प्रेस करने को इसे राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका की तरह रेखांकित कर सकते हैं। लाल क़िले में डंडे-झंडे का प्रदर्शन यदि आंदोलन की श्रेणी में आये तो मैं उसके साथ हूं, बशर्ते आगे एफआईआर या एनआईए जांच का ख़तरा न हो। है क्या सर?
बॉर्डर सील होने के बाद दिल्ली वाले किसान अपनी छत पर ही परमिशन लेकर किसानी और धरना करें। जब से ग़लत काम करने की परमिशन लेना ज़रूरी हो गया है मुझे इस प्रकार के सही विचार आते रहते हैं। आप अधिक आहत हों तो 'टीं वीं' वाले अग्रज श्वेता, प्रियंका या देवगन, रजत ही काम आएंगे पर तीन बट्टा चार आहत हों तो सोशल मीडिया पर मेरी कलमतोड़ सच्चाई भरी पोस्ट फॉलो करते रहें। पेलता रहूंगा जब तक कीबोर्ड पर कीलें न उभर आयें। ठीक सर!
(वैसे लाल क़िले वाले तिरंगे मामले में आहत होने जैसी कोई बात थी नहीं; किसी ने कहा भी है ‘लड़के हैं..ग़लती हो जाती है’)
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