राजेश जोशी दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार और हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय, जयपुर में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। वो बीबीसी हिंदी रेडियो के संपादक रह चुके हैं।
राजनीति के पंडित अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं कि हुआ क्या! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत मेहनत से बनाई गई महामानव की अपनी छवि ख़ुद ही क्यों तोड़ दी, क्यों उन्होंने अचानक तीन कृषि क़ानूनों को वापिस लेने का ऐलान कर दिया और किसानों के सामने हार मान ली?
पिछले एक साल से दिल्ली के दरवाज़ों पर धरना दिए बैठे किसानों को परास्त करने का कौन सा तरीक़ा सरकार ने नहीं आज़माया- उन्हें ऐयाश किसान कहा गया, ख़ालिस्तानी और विदेशी ताक़तों के हाथों में खेलने वाले आतंकवादी कहा गया। उन्हें दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए हाईवे पर लोहे की तीखी कीलों का क़ालीन बिछा दिया गया, सड़कों में गहरी खाइयां खोद दी गईं, सीमेंट के ऊंचे-ऊंचे ब्लॉक खड़े करके उन पर कांटेदार तार फैला दिए गए जैसे किसी दुश्मन देश की हमलावर फ़ौज को रोकने के लिए तैयारी की जा रही हो।
जब इससे भी किसानों को रोकने में सरकारें सफल नहीं हुईं, तो शरारती तत्वों को किसानों पर हमला करने के लिए भेजा गया, ताकि हिंसा हो और पुलिस-प्रशासन को धरने उजाड़ने का मौक़ा मिल जाए। इस साल गणतंत्र दिवस के मौक़े पर पहले दिल्ली पुलिस ने किसानों के ट्रेक्टरों को लालक़िले के कड़ी सुरक्षा वाले इलाक़े तक पहुंचने दिया, और फिर कहा गया कि ख़ालिस्तनी तत्व लालक़िले पर क़ब्ज़ा करना चाहते थे।
इस सबके बावजूद किसान टस से मस नहीं हुए। वो दृढ़संकल्प थे कि या तो तीनों कृषि क़ानून वापिस लिए जाएंगे या फिर वो दिन-रात सड़कों पर डेरा डाले पड़े रहेंगे। मगर बहुत सारे राजनीति विश्लेषक, पत्रकार, विशेषज्ञ और राजनीतिक पार्टियों के लोग इसे खोखली घुड़की से ज़्यादा कुछ नहीं मान रहे थे। उनकी ये समझ ग़लत नहीं थी, क्योंकि किसान उस नरेंद्र मोदी के फ़ैसले का विरोध करने की हिम्मत कर रहे थे जिसने एक झटके में जम्मू कश्मीर को भारतीय संघ से जोड़े रखने वाले अनुच्छेद 370 को बेकार कर दिया, राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया और तमाम विपक्षी पार्टियों को लाचार और लाजवाब कर दिया।
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किसान उस नरेंद्र मोदी के फ़ैसलों का विरोध कर रहे थे, जिसने अपने भीतरी और बाहरी दुश्मनों को रौंदकर गांधीनगर से लुटियंस की दिल्ली तक का सफ़र पूरा किया था। वो नरेंद्र मोदी जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने आज तक अपना कोई फ़ैसला वापस नहीं लिया। वो एक बार जो तय कर लेते हैं फिर दुनिया की कोई ताक़त उसे बदल नहीं सकती। तीन तलाक़ पर पाबंदी लगाना हो, नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) हो, आधी रात को लागू की गई नोटबंदी हो या फिर पूरे देश में हठात् लॉकडाउन की घोषणा करके लाखों प्रवासी मज़दूरों को पैदल घर लौटने पर मजबूर कर देना हो - नरेंद्र मोदी अपने इन तमाम विवादास्पद फ़ैसलों पर अडिग रहे।
यही नहीं, आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार मोदी के शासन में ही भारतीय फ़ौज ने ऐलानिया कहा कि उसने पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करके आतंकवादी कैंपों को तबाह कर दिया। कश्मीर के पुलवामा में सुरक्षा बलों पर हमले के बाद पाकिस्तान के बालाकोट पर हवाई हमले करके “300 आतंकवादियों को मार डालने” का दावा किया।
इससे पहले जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री बने, तब तक गोधरा कांड और 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगे नहीं हुए थे। तब उन्होंने ख़ुद को सुपर-गवर्नमेंट समझने वाले आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं को बर्फ़ में लगा दिया था। हालांकि वो ख़ुद संघ के प्रचारक रह चुके थे और संघ में ही उन्होंने राजनीति की दीक्षा ली, लेकिन प्रशासनिक फ़ैसलों में उन्हें किसी सुपर-गवर्नमेंट की दख़लंदाज़ी पसंद नहीं थी। यहां तक कि संघ और विहिप के नेताओ की भी नहीं। मोदी और विहिप नेताओं की पहली टक्कर तब हुई जब मोदी ने शहर के सुंदरीकरण के लिए अहमदाबाद की सड़कों पर अवैध धार्मिक क़ब्जों को तोड़ने का अभियान चलाया। सड़क किनारे रातों-रात बना दिए गए मंदिर भी इसकी चपेट में आ गए और विश्व हिंदू परिषद को ये मंज़ूर नहीं था, लेकिन मोदी ने किसी की एक नहीं सुनी।
फिर 2012 के विधानसभा चुनावों में जब उनके नेतृतव में भारतीय जनता पार्टी तीसरी बार राज्य की सत्ता पर क़ाबिज़ हुई तो लगभग तय हो गया था कि मोदी अब गुजरात की पारी खेल चुके, लेकिन तब भी उनके लिए दिल्ली दूर थी। इस बार उन्हें अपने ही धृतराष्ट्रों और भीष्म पितामहों को रास्ते से हटाना था। एक मायने में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे बीजेपी के क़द्दावर नेताओं के सामने मोदी बच्चे थे। आडवाणी ने तो उन्हें अपनी छांव में रखकर राजनीतिक परवरिश दी थी।
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गुजरात दंगों के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने खुली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मोदी को “राजधर्म” पालन करने की याद दिलाई थी। ये कहा जा रहा था कि वाजपेयी मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे पर आडवाणी ने उन्हें बचा लिया। फिर भी नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए बीजेपी की ओर से अपनी दावेदारी इस पुरज़ोर तरीक़े से रखी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक को बाक़ायदा बयान जारी करके उनका समर्थन करना पड़ा। इस फ़ैसले के बाद आडवाणी कोपभवन में चले गए और आज तक वहां से निकल नहीं पाए हैं।
मोदी समर्थकों ने अपने नेता की ऐसी छवि गढ़ी जिसमें कहीं बालक नरेंद्र मगरमच्छों से लड़ते हुए नज़र आता तो कहीं रेलगाड़ी में चाय बेचते हुए, कहीं वो एक महामानव की तरह भीतरी और बाहरी दानवों का नाश करते हुए दिखता तो कहीं केदारनाथ की गुफ़ा में कैमरों के सामने ध्यानस्थ योगी की तरह।
किसानों ने ऐसे महाबली प्रधानमंत्री के फ़ैसले को चुनौती देने की हिम्मत की थी। भला किसको यक़ीन होता कि एक दिन आएगा जब ख़ुद नरेंद्र मोदी विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने राष्ट्रीय टेलीविज़न के ज़रिए राष्ट्र को संबोधित करेंगे और राष्ट्र से माफ़ी मांगते हुए कहेंगे कि वो अपनी बात किसानों के एक वर्ग को समझा नहीं पाए और यही उनकी तपस्या में कमी रह गई।
एक बार लोकसभा में किसी बहस के दौरान मोदी ने विपक्ष, ख़ासतौर पर कांग्रेस पर, कटाक्ष करते हुए कहा था - 'आप लोग कहते हैं मोदी लिखा-पढ़ा नहीं है, उसे ये नहीं आता, उसे वो नहीं आता, पर एक बात तो आप लोग भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि मोदी को राजनीति की बहुत अच्छी समझ है।' उनके इस वाक्य को दंभोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो व्यक्ति संघ के एक सामान्य प्रचारक की हैसियत से शुरुआत करके देश के प्रधानमंत्री पद तक की यात्रा सफलतापूर्वक कर सकता है, उसमें राजनीति की समझ ही नहीं बल्कि राजनीति को अपने हिसाब से मोड़ लेने की क़ुव्वत होगी ही।
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तो फिर आख़िर क्या हुआ कि राजनीति के पंडित समझ नहीं पा रहे हैं कि मोदी को ख़ुद झुकने की क्या ज़रूरत थी। वो चाहते तो कृषि मंत्री से एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करवाकर तीनों कृषि क़ानूनों को वापिस लेने का ऐलान करवा सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्यों? इस सवाल का आसान जवाब कई बार दिया जा चुका है कि मोदी ने उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के कारण ये फ़ैसला किया है।
चुनाव के नतीजे बताएंगे कि किसानों को पहले से ज़्यादा ताक़त जुटाकर फिर से दिल्ली के दरवाज़े पर दस्तक देनी होगी या प्रधानमंत्री की ये शिकस्त स्थायी है।
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