अशोक पांडे साहब सोशल मीडिया पर बड़े चुटीले अंदाज में लिखते हैं और बेहद रोचक किस्से भी सरका देते हैं. किस्से इतने नायाब कि सहेजने की जरूरत महसूस होने लगे. हमारी कोशिश रहेगी हम हिलांश पर उनके किस्सों को बटोर कर ला सकें. उनके किस्सों की सीरीज को हिलांश डी/35 के नाम से ही छापेगा, जो हिमालय के फुटहिल्स पर 'अशोक दा' के घर का पता है.
सत्तर-अस्सी के दशक में बड़े हुए लोगों को ‘स्टार ट्रेक’ की मुंडे सर वाली बेहद खूबसूरत लेफ्टिनेंट आइलिया की याद जरूर होगी. तब तक भारत से निकलकर चुनिन्दा लोग ही हॉलीवुड में अपनी जगह बना सके थे. 1965 की मिस इण्डिया पर्सिस खम्बाटा उनमें से एक थीं जिन्होंने यह रोल निभाया था.
पर्सिस खम्बाटा की याद आज इसलिए आई कि वे बंबई के एक पारसी परिवार में पैदा हुई थीं. संत जरथुस्ट्र के चलाये अग्निपूजक धर्म को मानने वाले पारसी समुदाय के दुनिया भर में बमुश्किल एक लाख अनुयायी बचे हैं. हमारे देश की जनसंख्या के हिसाब से उनकी संख्या हमेशा बहुत ही कम रही है लेकिन हर क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति हैरत में डालती है.
जितने भी टाटा, वाडिया, सेठना, नरीमन, कामा और नौरोजी के नाम इतिहास की कक्षाओं में रटाये जाते थे, सब के सब पारसी थे. इनके अलावा फील्ड मार्शल मानेकशॉ, फाली नरीमन, जमशेदजी टाटा, होमी भाभा, पॉली उमरीगर, फारुख इंजीनियर, नारी कांट्रेक्टर, कारन बिलीमोरिया, फीरोज गांधी, जुबिन मेहता, रोहिंटन मिस्त्री, फिरदौस कांगा, बोमन ईरानी, सोली सोराबजी, बाप्सी सिधवा, डायना एडुलजी, अरुणा ईरानी - सब इसी समुदाय से निकले. रॉक स्टार फ्रेडी मरकरी भी दुनिया भर में मशहूर हो जाने से पहले एक पारसी परिवार का बेटा फारूख बलसारा था.
एक समुदाय के तौर पर ये लोग भारत के सबसे संपन्न लोग हैं. 2012 में हुई बॉम्बे पारसी पंचायत में फैसला किया गया कि संस्था अपने निर्धन सदस्यों को घर बनाने के लिए आर्थिक सहायता देगी. निर्धन पारसी से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से माना गया जिसकी मासिक आमदनी उस वक्त नब्बे हजार रुपये से कम हो. उस समय देश की गरीबी रेखा 870 रूपये मासिक पर तय थी. इसके अलावा पारसी देश के किसी भी समुदाय से अधिक शिक्षित हैं - उनमें शिक्षा की दर 97.9% है.
उनकी संख्या अलबत्ता दिन-ब-दिन घटती जाती है. आंकड़े बताते हैं जहाँ देश की आबादी में हर दस साल में 21% की बढ़ोत्तरी देखी गयी, पारसियों की संख्या 12% की दर से कम होती गयी है. इस पसमंजर में यह भविष्यवाणी सच होती दिख रही है कि एक दिन इस बेहद सभ्य, पढ़े-लिखे शहरी समुदाय को विलुप्त हो रही प्रजाति घोषित कर दिया जाएगा.
एक जमाने में देश के हर छोटे-बड़े नगर में व्यापार करने वाले पारसियों की निशानियाँ मैंने अपने और आसपास की हल्द्वानी, बरेली, रानीखेत और लैंसडाउन जैसी जगहों पर देखी हैं. धीरे-धीरे उन पर प्रॉपर्टी डीलरों का कब्जा हो रहा है.
पारसी लोगों और उनके धार्मिक विश्वासों के बारे में पढ़ना बहुत दिलचस्प होता है - अच्छाई और बुराई दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व करने वाला उनका देवता अहूरा माजदा, उनके पैगम्बर जरथुस्ट्र की कथाएँ, उनके मिथक और उनके तीर्थ. यह सब जानने लायक होता है बशर्ते आप जानने की इच्छा रखते हों.
यह सब सोचते हुए मुझे अपने बंबई के दोस्तों खुशरू लाकड़ावाला, साइरस सेपॉय और वायोला दिनशॉ की याद आ रही है, जिनके बेहद साफ़-सुथरे और सुरुचिपूर्ण घरों में न जाने कितनी दावतें उड़ाईं मगर एक बार भी नहीं पूछा कि तुम लोग ये ड्राइंग रूम में दिया क्यों जलाए रखते हो. उनसे एक बार माफी मांगना बनता है.
बताता चलूँ आज पारसियों का नया साल नवरोज मनाया जा रहा है. वैसे आज सोशल मीडिया पर गौरैया दिवस की धूम है. इसमें भी एक विडम्बना है. हमारी करतूतों के चलते गौरैया भी जल्द ही विलुप्त हो रही प्रजाति घोषित कर दी जाने वाली है. हमें अपनी बेपरवाही, अपना अज्ञान और गौरैया डे मुबारक हो! और हाँ नवरोज की बधाई!
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