इतिहास के पन्नों पर नई इबारत लिखते 'किसान आंदोलन' की जड़ें कितनी गहरी हैं!

Explainedइतिहास के पन्नों पर नई इबारत लिखते 'किसान आंदोलन' की जड़ें कितनी गहरी हैं!

रनी

रनी ने दिल्ली के जामिया मीलिया इस्लामिया से 'जेंडर स्टडीज' में मास्टर्स किया है। रनी देश के भीतर भीतर मची हुई उथल-पुथल पर आ रही अलग-अलग रिपोर्ट्स को करीब से देख रहे हैं और लगातार अलग-अलग मुद्दों को लेकर 'हिलांश' की खिड़की पर हाजिर होते रहेंगे। 

इस बीच कितना कुछ बदल गया। सर्दियां बीत गई और गर्मियों की दस्तक को भी एक लंबा वक्त बीत गया। इस दौरान आंधी-तूफान, सरकारी विरोध, धरना स्थलों पर बिजली-पानी की कटौती के साथ ही आंदोलनकारियों को बदनाम करने की सत्ता की मुहिम के बाद अब कोरोना महामारी के बीच भी किसान नेता, तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ अपनी लड़ाई को लगातार धार दे रहे हैं। इस बीच छिटपुट खबरें सरकार से बातचीत की भी आई, लेकिन जब तक बात न बने तब तक ये कोई चर्चा वाली बात ही नहीं है। 1 मई को धरना स्थलों पर 'मजदूर दिवस' मना रहे किसानों के आंदोलन को 156 दिन हो गये हैं। धरना स्थलों पर ऐसा लग रहा है कि मानों किसानों ने अब परमानेंट डेरा ही डाल लिया हो और वो तब तक घर नहीं लौटने वाले तब जक कि उनके आंदोलन से उपजी आवाजों को सरकार सुन ना ले।

किसानों ने साफ कर दिया है कि वो खाली हाथ वापस नहीं लौटेंगे और सरकार कोरोना की आड़ में आंदोलनकारियों को खदेड़ने का काम न करे। देश के कई हिस्सों में किसान नेता महापंचायतें कर अपने हक-हकूक की बातों को लेकर किसानों के बीच जा रहे हैं। इस आंदोलन ने न केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में राजनीतिक समीकरण बदल दिये हैं, बल्कि देश के एक बड़े हिस्से पर व्यापक असर भी छोड़ा है। इस बीच किसानों ने सिर्फ खोया नहीं है बल्कि अपनी राजनीतिक विरासत को और ज्यादा मजबूत किया है।

किसानों ने अपनी लड़ाई के बीच आपसी लड़ाइयों को दरकिनार कर दिया है। पंजाब और हरियाणा के किसानों की पानी की लड़ाई पीछे छूट गई है और अब मसला अपनी फसलों और जमीनों को बचाने की लड़ाई का रूप ले चुकी है। किसानों ने 26 जनवरी के दिन दिल्ली में किसान परेड निकालकर अपने राजनीतिक संघर्ष के इतिहास में जो चैप्टर दर्ज किया है, उसे आने वाली किसान पीढ़ियां गर्व से देखेंगी।

'किसान आंदोलन' इसे दो शब्द कहें या अपने आप में एक पूर्ण वाक्य है। इसे भाषाशास्त्र की किसी भी श्रेणी में रखें, लेकिन भारतीय समाज को आज इस आंदोलन ने जितने व्यापक रूप में प्रभावित किया है, वहां समाज का हर तबका खड़ा नजर आता है। बाजार पर एकाधिकार की लड़ाई के खिलाफ इस आंदोलन ने हिन्दुस्तान में जनांदोलनों को नई धार देने का काम किया है।

2020 के अक्टूबर महीने से चल रहे इस आंदोलन ने लोगों को बहस तकरार के लिए एक मुद्दा जरूर दिया, लेकिन साथ ही सरकार की मंशा और उसके खिलाफ एक मजबूत विपक्ष भी खड़ा किया। यूं तो हर रोज ही अनगिनत आंदोलन भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए होते ही रहते हैं, लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन ने आंदोलन के विज्ञान को एक नई राह दिखाई है। इसकी मजबूती, नेतृत्व, अनुसाशन, एकता, सहनशीलता और भाईचारे ने जो संदेश आज पूरी दुनिया को दिया है, ऐसा संदेश इस सदी का कोई अन्य आंदोलन आज तक नहीं दे सका।

अपने इतिहास से सीख कर ही कोई भी समाज अपने आज को समृद्ध करता है। भारतीय किसान आंदोलन का इतिहास भी कुछ ऐसा ही है। इस रिपोर्ट में हम इतिहास के पन्नों में झांककर यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर  किन-किन चुनौतियां को पार कर हमारा मौजूदा किसान आंदोलन आज यहां पहुंचा है! ...और कैसे पूरे भारतीय समाज में इस आंदोलन ने उथल-पुथल पैदा कर, विरोध की आवाज का प्रतिनिधित्व किया है।

बात सन् 1857 की है जब असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने संभाल लिया। अंग्रेजों और देशी रियासतों के शोषण से इस दौर में आंदोलन जन्म ले रहे थे, जो एकाकार होकर आजादी के आंदोलन में बाद के वर्षों में बदलने लगे। उस दौर में वास्तव में जितने भी 'किसान आंदोलन' हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ हुए थे। उस दौर के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया, हालांकि इनमें कुछ 'डरपोक' प्रकाशक भी थे, जो तब भी अंग्रेजों की सत्ता की 'बूटलिकिंग' (चाटूकारिता) में मशगूल थे।

आंदोलनकारी किसान चाहे तेलंगाना के हों या नक्सलवाड़ी के हिंसक लड़ाके, सभी ने आंदोलन को आगे बढ़ाने में अहम योगदा‍न दिया है। साल 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा तो दिया, लेकिन देश में कई स्‍थानों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में धधकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन हुए। 

इनमें प्रमुख तौर पर नील पैदा करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह, प्रमुख किसान आंदोलन के रूप में जाने जाते हैं। इन आंदोलनों का न केवल समृद्ध इतिहास रहा है, बल्कि इन्होंने मौजूदा भारत की पुख्ता नींव रखने में भी बड़ा योगदान दिया है। किसान आंदोलनों के इतिहास में झांके तो इसकी जड़ें 1860 के दशक में 'नील आंदोलन' पर जाकर व्यवस्थित रूप में दिखनी शुरू होती है।

नील आंदोलन यानी कि अंग्रेजों के जमाने की 'कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग'
किसानों का सबसे प्रभावी और व्यापक आंदोलन 1859-1860 के दशक में ही शुरू हो गया था। यह आंदोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में किया गया था। किसान एकजुट होकर अपने संघर्ष को तब एक छतरी के नीचे ला रहे थे। अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर, बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे। नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी अग्रिम रकम देकर उनसे करारनामा लिखवा लिया जाता था, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था। इसे ही आप आज 'कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग' की तरह देख सकते हैं, जहां किसान और व्यापारी के बीच कॉन्ट्रैक्ट तो पहले ही हो जाएगा, लेकिन फसल खराब हुई तो दाम नहीं मिलेगा।

अंग्रेजों की नींद उड़ाने वाला कूका विद्रोह
कूका विद्रोह साल 1871-72 में पंजाब के कूका लोगों (नामधारी सिखों) द्वारा किया गया एक सशस्त्र विद्रोह था, जो मूलतः अंग्रेजों द्वारा गायों की हत्या को बढ़ावा देने के विरोध में किया गया था। बालक सिंह तथा उनके अनुयायी गुरु रामसिंह ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था। कूका विद्रोह के दौरान 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे। साल 1872 में राम सिंह ने इस आंदोलन को अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक तौर पर फैलाना शुरू कर दिया। अंग्रेज इस आंदोलन से इतना घबरा गये थे कि उन्होंने राम सिंह को कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहां पर साल 1885 में उनकी मृत्यु हो गई। आंदोलन धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगा था।

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रामोसी किसानों का विद्रोह
महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो साल 1879 से लेकर साल 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।
 
जब पाबना के नंगे-भूखे किसानों ने जमींदारों की ईंट हिला दी
इसी तरह का विद्रोह पाबना आंदोलन के दौरान बंगाल में भी देखने को मिला, जब छोटी जोत वाले किसानों और भूमिहीन किसानों ने जमींदारों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। बंगाल के पाबना जिले के काश्तकारों को साल 1859 में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, लेकिन इसके बावजूद जमींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी जमीन के अधिकार से वंचित किया। जमींदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए सन् 1873 में पाबना के यूसुफ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभाएंआयोजित करना होता था, ताकि किसान आधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के लिए सजग हो सकें।

दक्कन का विद्रोह
साल  1875 के मई और जून में महाराष्ट्र में पुणे, सतारा जिलों में किसानों ने कृषि संकट को बढ़ाने के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया। विद्रोह का एकमात्र उद्देश्य साहूकारों के कब्जे में बंधों, फरमानों और अन्य दस्तावेजों को प्राप्त करना और उन्हें नष्ट करना था। दक्कन के किसानों ने अपने विद्रोह को मुख्य रूप से मारवाड़ी और गुजरात के साहूकारों की ज्यादतियों के खिलाफ खड़ा किया। दिलचस्प बात यह है कि यह आंदोलन दक्कन से निकलकर देश के विभिन्न भागों में फलाफूला।

बिजोलिया किसान आंदोलन
यह 'किसान आन्दोलन' भारत भर में प्रसिद्ध रहा जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन साल 1897 से प्रारंभ 1915 तक पहले चरण में चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।

उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन
होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय की अगुवाई में साल 1918 की फरवरी में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। इसके बाद साल 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आ गया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने भी अपना समर्थन दिया, जिससे इस आंदोलन को नई धार मिल सकी। इधर उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आंदोलन' नाम से अपना अलग आंदोलन शुरू कर दिया। ये सब उस दौर में हो रहा था, जब भारत में इन आंदोलनों के समानांतर आजादी की लड़ाई भी लड़ी जा रही थी।

गांधीजी का चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह
साल 1918 में जब महात्मा गांधी ने 'खेड़ा सत्याग्रह' शुरू किया, तब उन्हें बड़े पैमाने गुजरात के बाहर भी देश के किसानों का साथ मिला। ये 1917 में हुये 'चंपारण सत्याग्रह' के बाद दूसरा बड़ा आंदोलन था, जो गांधी को भारत का एक बड़ा नेता बनाने में भी अहम रहा। 'मेड़ता बंधुओं' (कल्याणजी तथा कुंवरजी) ने इसके बाद साल 1922 में 'बारदोली सत्याग्रह' शुरू किया। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल के हाथों में आ गया। 

केरल का मोपला विद्रोह
केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा साल 1920 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था, लेकिन बाद में यह किसानों के मुद्दों पर केंद्रित हो गया। इस आंदोलन को महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे उस दौर के बड़े नेताओं का सहयोग भी मिला। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' बेहद चर्चित हुए थे। हालांकि, साल 1920 में ही इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और कमजोर पड़ते आंदोलन को कुचल दिया गया।

ताना भगत आंदोलन
इस आन्दोलन की शुरुआत साल 1914 में बिहार में हुई। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे, जो कि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे। 'मुण्डा आन्दोलन' की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद 'ताना भगत आन्दोलन' शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।

अखिल भारतीय किसान सभा
साल 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया और किसानों के मुद्दे पर संघर्ष और गोलबंदी शुरू कर दी। इसी के बाद के सालों में साल 1928 में 'आंध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एनजी रंगा ने की और किसानों के मुद्दों पर लोगों को एकजुट करना शुरू किया। इधर इन्हीं वर्षों में उड़ीसा में मालती चौधरी ने 'उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। 

बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर सन् 1929 में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई और यहां भी किसान आंदोलनों को गति मिलने लगी। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई और इसी साल एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई और इसकी नींव रखकर किसानों के मुद्दों की छतरी को बहुत बड़ा कर दिया। 

बारदोली सत्याग्रह जिसने जातियों को संघर्ष के पटल पर कर दिया इकट्ठा
सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुका में साल 1928 में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया।

50 लाख किसानों की मौजूदगी वाला तेभागा आन्दोलन
किसान आन्दोलनों में साल 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक
तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का 'तेभागा आंदोलन' फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।

साहूकारों के खिलाफ बिगुल बलाने वाला तेलंगाना आंदोलन
आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ साल 1946 में शुरू किया गया था। साल 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलनों से बिल्कुल अलग था। किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाईयां लड़ना सीख चुके थे। इन आंदोलनों की अधिकांश मांगें आर्थिकहितों वाली होती थी। इस बीच किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव जरूर था।

पिछली पीढ़ी का नक्सलबाड़ी आंदोलन
1967 में चारु मजूमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में चीनी मॉडल की नकल करके मुक्ति आंदोलन शुरू किया गया था। आंदोलन के दौरान, कई किसान समितियों का गठन किया गया और भूमि का पुनर्वितरण किया गया। गांव-गांव खेतिहर मजदूरों के साथ ग्राम रक्षा दल स्थापित किए गए। मुख्यत: यह जमीनदारों के खिलाफ आंदोलन था, जिसने भूमिहीन किसानों को जमीनें दिलवाने का काम किया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का आंदोलन
बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने साल 1987 में बिजली के बढ़े हुए दामों के खिलाफ दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया और उनके साथ हजारों किसान दिल्ली के वोट क्लब पर आकर बैठ गये। सरकार को झुकना पड़ा और किसान लौट गये। बाद के वर्षों में हालांकि महेन्द्र सिंह टिकैत की भारतीय किसान यूनियन का 'अराजनैतिक' हो जाना ही इसके पतन का कारण बना। बिना राजनीतिक विचारधारा के अभाव में भारतीय किसान यूनियन बाद के सालों में ढुलमुल ही नजर आती रही। हालांकि देश में चल रहे मौजूदा किसान आंदोलन में 'भारतीय किसान यूनियन' को नई संजीवनी मिली है और इसने आंदोलन को मजबूत करने में अहम भूमिका अदा की है। राकेश टिकैत जो कि मौजूदा किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा हैं, महेन्द्र टिकैत के ही बेटे हैं।

इन आंदोलनों के सिवाय भी भारत में कई छोटे-बड़े किसान आंदोलन वक्त-वक्त पर चलते रहे हैं। किसान आंदोलन के दौरान हर रोज संघर्ष के किस्से और सेवा की कहानियां इतिहास के पन्नो पर दर्ज हो रही हैं। भारत में किसान इस दौर की अपनी अलग कहानी लिख रहे हैं। ऐसे में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि राजनीतिक चेतना से लबालब, यह आंदोलन इतिहास के पन्नों पर कौन सा नया मुकाम आगे हासिल करेगा।

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