ग्लोबम वार्मिंग का प्रत्यक्ष असर अब हिमालय और हिमालय बेसिन के रिहायशी इलाकों में दिखने लगा है। जिन इलाकों में आज से लगभग सौ साल पहले हिमपात होता था, वहां अब हिमपात नहीं हो रहा है! इसके चलते जैव विविधिता में भी बदलाव हुआ है। इन सौ सालों का अगर वैज्ञानिक और सामाजिक रूप से अध्ययन किया जाये, तो नतीजे बेहद चौंकानें वाले मिलते हैं।
हिमालय में ग्लोबम वार्मिंग के असर को व्यापक रूप से समझने के लिये हम इस रिपोर्ट को तीन हिस्सों में बांट रहे हैं। मसलन, इन इलाकों में दशकों से रह रहे मूल निवासियों के अपने अनुभव, दूसरा सौ साल पूर्व उन इलाकों में जाकर यात्रा करने वाले ट्रेवलर्स व शोधकर्ताओं की रिपोर्ट और तीसरा मौजूदा वैज्ञानिक आधार।
पहला खंड-पुरानों लोगों के अनुभव
टिहरी जिला कभी पंवार वंश की रियासत की राजधानी हुआ करती थी, जो कि एक घाटी थी। यह घाटी तीन ओर से भागीरथी और भिलंगना नदी से घिरी हुई है। पुराने टिहरी शहर की समुद्र तल से उंचाई 600 मीटर थी। इसके उत्तरी छोर पर एक पर्वत श्रंखला है, जिसके 2200 मीटर की उंचाई पर स्थित है प्रतापनगर। टिहरी के राजा प्रताप शाह ने प्रतापनगर को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था और ऐसा इस जगह के तापमान को देखकर किया गया था।
प्रतापनगर के रहने वाले जगदीश सिंह रावत की उम्र 82 साल है। वो बताते हैं कि उन्हें अब भी याद है जब वो बहुत छोटे थे, तब उनके सेब के बगीचे हुआ करते थे। तकरीबन तीन फीट की बर्फ हर साल सर्दियों में कई दफा गिरती थी और ये सामान्य घटना थी।लेकिन, आज स्थितियां उलट गई हैं। जहां पहले हर साल हिमपात होता था, वहीं अब कई सालों के अंतराल में हल्का हिमपात होता है। मौसम में आए इस बदलाव के चलते सेब के बगीचे खत्म होते गये और सेबों में वो मिठास भी नहीं रह गई।
ऐसे ही कीर्तिनगर से कुछ ही किलोमीटर पहले 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है मगरों गांव। यहां के रहने वाले यशपाल सिंह नेगी बताते हैं कि पिछले साल 2019 में उनके गांव में पहली बार पानी का टैंकर मंगवाया गया। इससे भी मौसम में आए बदलाव को समझा जा सकता है। यशपाल बताते हैं— 'कभी गांव में जल धारायें और झरने हुआ करते थे, लेकिन धीरे—धीरे झरने सूख गये और हालात इतने गंभीर हो गये कि पिछले साल पानी का टैंकर मंगवाना पड़ा। मेरी उम्र 50 साल है और पूरी जिंदगी में मैंने पहली बार पानी का टैंकर मंगवाया। गांव के लिये ये बिल्कुल नई बात थी।'
टिहरी जिले के निवासी 78 साल के कमल सिंह महर बताते हैं कि हमारे दौर तक नई टिहरी से बहुत नीचे की पहाड़ियों में भी हिमपात होता था। पानी के श्रोत 12 महीने रिचार्ज रहते थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। उनके 48 साल के बेटे संजय सिंह महर टिहरी हाइड्रो कॉरपोरेशन लिमिटेड में कार्यरत हैं। वो बताते हैं कि उन्होंने बचपन में पहाड़ों में ऐसी जगह देखी थी, जहां अब बिल्कुल भी हिमपात नहीं होता। मसलन टिहरी के पास ठुंगीधार और कुठ्ठा गांव, जहां कभी बर्फवारी हुआ करती थी।
संजय महर की 18 साल की बेटी महक बताती हैं कि अब तो नई टिहरी में भी बहुत गर्मी होने लगी है। महक ने अपने दादा से बर्फवारी के वो किस्से सुने हैं, जब टिहरी की पहाड़ियों में बहुत हिमपात होता था।
पुरानी टिहरी जल विद्युत परियोजना के चलते पुराना टिहरी शहर डूब गया और इस शहर के बाशिंदों के लिए नई टिहरी शहर बसाया गया। टिहरी हाइड्रो डवलेपमेंट लिमिटेड के अधिकारी बताते हैं कि टीएचडीसी ने एक पूरा नया शहर का निर्माण दो हजार मीटर की ऊँचाई पर किया। इतनी ऊँचाई पर न तो कभी पंखे चलते थे और ऐसी तो दूर की बात थी, लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। नई टिहरी में किसी भी सरकारी कार्यालय या आवासीय परियोजना में किसी भी भवन में पंखों के लिये हुक लगाया ही नहीं गया। मौसम बदला तो लोग अपनी छतों को ड्रिल कर पंखे लगाने लगे। पिछले बीस सालों में ही तापमान में दस डिग्री तक का अंतर आ गया है।
ऐसे ही उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से गंगोत्री की ओर बीस किलोमीटर आगे बढ़ने पर मल्ला गांव आता है। यहां के रहने वाले 65 साल के रवींद्र सिंह रावत जंगलात से रिटायर्ड अधिकारी हैं। वो बताते हैं कि पहले उनके गांव में हिमपात होता था, लेकिन पिछले तीस सालों से बिल्कुल भी हिमपात नहीं हुआ। वो कहते हैं हिमपात तो हमारे लिये अब बहुत बड़ी बात हो गई है। पहले कभी पंखों और कूलर किसी ने देखा भी नहीं था, लेकिन आज इस इलाके में घर—घर में कूलर लगने लगे हैं।
नैनीताल के सत्तर वर्षीय होटल व्यवसायी और समाजसेवी राजीव लोचन शाह बताते हैं कि आज से तकरीबन तीस साल पहले तक नैनीताल में मई और जून में भी कोट और स्वेटर पहने जाते थे। राजीव अपनी जवानी के दिनों की यादों को साझा करते हुये बताते हैं- 'पहले अधिकांश लोग गर्मियों में कोट पहनकर बाहर निकला करते थे। घरों में स्वेटर पहनी जाती थी। सर्दियों का ये हाल था कि जिला प्रशासन को पेयजल लाइनों के पाइपों पर एक विशेष प्रकार की घास लगानी पड़ती थी, क्योंकि उन दिनों सर्दियों में पानी की पाइपलाइन जम जाती थी। कई जगह बड़े पाइपों के नीचे आग जलाई जाती थी, लेकिन आज मैं नैनीताल के मौसम में भारी बदलाव देखता हूं। पहले होटलों के कमरों में एयर कंडीशन तो बहुत दूर की बात है, पंखे भी नहीं होते थे। अब हर होटल में आपको पंखे मिल जायेंगे और कई होटल संचालकों ने ऐसी भी लगा लिये हैं। नैनीताल में भी गर्मी महसूस होने लगी है।' शाह बताते हैं सबसे ज्यादा मौसम में फर्क अस्सी के दशक से आना शुरू हुआ है।
मसूरी में किताबघर चौक के पास विजेंद्र सिंह नेगी लक्ष्मी पैलेस नाम से अपना होटल चला रहे हैं। विजेंद्र सिंह नेगी बताते हैं कि उनके होटल में तकरीबन 22 साल पहले पंखे लग गये थे, जबकि इस समय मसूरी में कई ऐसे होटल हैं, जहां पर ऐसी लग गये है। वो बताते हैं कि बीस साल पहले तक मसूरी में सर्दियों के मौसम में कई बार हिमपात होता था, लेकिन अब बहुत आंशिक होता है। कई साल तो बर्फवारी इतनी कम होती है कि वो गिरते ही पिघल जाती है।
दूसरा खंड- क्या कहते हैं महान घुमक्कड़?
पहले खंड में हमने स्थानीय लोगों के अनुभव साझा किये। अब हम उन प्रसिद्ध यात्रियों के स्मरण और शोध रिपोर्ट पर बात करेंगे जो आज से सौ साल पहले उत्तराखंड के हिमालय से लगता हुये गढ़वाल क्षेत्र में भ्रमण पर आये थे। महान घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन और बाबा नागर्जुन 1943 में उत्तरकाशी होते हुये तिब्बत की यात्रा पर गये थे।
इसमें बाबा नागार्जुन तो गंगोत्री तक ही गये, लेकिन राहुल सांकृत्यायन नेलांग होते हुये तिब्बत पहुंचे। उन्होंने बाद में हिमालाय की यात्रा के नाम से एक यात्रा वृतांत भी लिखा, जिसमें वो लिखते हैं कि वो अप्रैल माह के आखिरी दिनों में उत्तरकाशी बाजार पहुंचे। तब बाजार बंद था। स्थानीय लोगों ने मंकी कैप, मफलर, भेड़ों की ऊन के शाॅल आदि पहने हुये थे। कुछ जगह बर्फ अभी भी दिख रही थी। राहुल सांकृत्यायन ने जब बाजार बंद होने का कारण पूछा, तब स्थानीय लोगों ने उन्हें बताया कि सर्दी के कारण मई आखिरी तक बाजार बंद ही रहेगा। राहुल ने लिखा कि उस समय उत्तरकाशी में जबरदस्त हिमपात होता था। मई के आखिरी दिनों में जब उन्होंने आगे का सफर तय किया तो, तब भी पूरी तरह बर्फ नहीं पिघली थी। उत्तरकाशी 1100 मीटर की उंचाई पर स्थित एक कस्बा है। जहां अब हिमपात नहीं होता है।
1910 में प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री एचजी वॉल्टन उत्तराखंड आये थे। बाद में उन्होंने उत्तराखंड के इतिहास पर गढवाल हिमालय का गजेटियर भी लिखा। वो हिमालय गजेटियर में लिखते हैं कि गढवाल में 1200 मीटर की उंचाई पर हर साल सर्दियों में हिमपात होता है। वो लिखते हैं कि गढवाल में सर्दियों में 1410 मीटर में हिमरेखा शुरू हो जाती है, जो पूरे छह से आठ माह तक रहती है। वॉल्टन की लिखी बात की अगर आज के वक्त से तुलना करें तो अब गढवाल में हिम रेखा सर्दियों में 2500 मीटर से पीछे खिसक गई है।
इसी तरह टिहरी रिहासत के राजा कतिशाह के वजीर पंडित हरिकष्ण रतूडी अपनी 1920 में लिखी किताब भूगोल ऑफ टिहरी गढवाल में लिखते हैं कि पुरानी टिहरी में हर साल एक इंच हिमपात होता है। बता दें टिहरी की समुद्र तल से उंचाई 720 मीटर थी। मौसम विज्ञान केद्र के अनुसार, पिछले सत्तर सालों में पुरानी टिहरी में कोई हिमपात दर्ज नहीं हुआ है। मसूरी में जहां पहले तीन फीट हिमपात दर्ज होता था, वहीं अब यहां भी कुछ इंच ही हिमपात होता है। आश्चर्य की बात यह है देहरादून घाटी में राजपुर के इलाके में 1941 तक हिमपात होता था, जो आज की पीढ़ी के लिए चौंकाने वाली बात भर रही गई है। राजपुर भी लगभग 700 मीटर की उंचाई पर स्थित है।
तीसरा खंड- क्या कहता है विज्ञान ?
गढवाल के इतिहासकार और शोधकर्ता महिपाल नेगी बताते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग का असर पक्षियों और वनस्पतियों पर भी पड़ा है। वो बताते हैं कि उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल काफी ऊंचाई वाले इलाकों में रहता है, लेकिन वो सर्दियों में 1000 मीटर तक भी आ जाता था। इसके पीछे वजह थी बफ, जो कि मोनाल को निचले हिस्सों तक मिलती थी।
हालांकि, अब पिछले 40 सालों में मोनाल 2000 मीटर से नीचे नहीं देखा गया है। इसी तरह उत्तराखंड की ऊंचाई वाले इलाकों में देवदार होता है और निचले इलाकों में चीढ़ का जंगल पाया जाता है, लेकिन अब चीढ़ 2500 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों तक में पहुंच गया है।
मुख्य उद्यान अधिकारी मीनाक्षी जोशी बताती हैं कि उत्तराखंड का राज्य वृक्ष बुरांश पर फूल पहले मार्च में बसंत आने पर खिलते थे, लेकिन अब जो तापमान मार्च में बुरांश का फूल खिलने के लिये मुफीद होता है, वो जनवरी में मिल रहा है। लिहाजा, पिछले कई सालों में हिमालयी क्षेत्रों में बुरांश जनवरी में ही खिल जा रहे हैं।
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) के ताजा शोध में ये बात सामने आई है। इस शोध में पचास के करीब वैज्ञानिकों ने योगदान दिया है। शोध में पता चला कि, हिमालयी बेसिन और मध्य हिमालय के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, जिस कारण गर्म मौसम में रहने वाले जानवर व जंतु ऊपरी ऊंचाई वाले स्थानों तक पहुंच गये हैं।
डब्ल्यूआईआई के निदेशक डॉ. वीबी माथुर बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन में भारी फेरबदल हो रहा है। मसलन, जो लंगूर गर्म इलाकों में रहता था, वो अब लेह लद्दाख के साथ ही केदारनाथ में दिखने लगा है। यहां तक की कई जगह तो 4,876 मीटर या 16 हजार फीट तक भी दिखा है। इसी तरह कई जंतु हैं, जो पहले निचले इलाकों में ही पाये जाते थे, उनमें से कुछ अब ऊंचाई वाले इलाकों में पहुंच चुके हैं। लगभग पचास वैज्ञानिक 10 जानवरों और जंतुओं पर सघन निगाह रखे हुये हैं।
सेब पर संकट
उधर, हिमालय रेंज में पिछले कुछ सालों में हुए शोध में सामने आया है कि ‘स्नो लाइन’ (हिमरेखा) लगभग पचास मीटर पीछे खिसक गई है। इसकी मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग ही है। स्नो लाइन पीछे खिसकने का सबसे बड़ा खामियाजा सेब की दो प्रजातियों को उठाना पड़ रहा है। ‘गोल्डन डिलीसियस’ और ‘रेड डिलीसियस’ सेब की दो ऐसी प्रजाति हैं, जो जम्मू कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में लगभग खत्म होने की कगार में पहुंच गई है। अपने किन्नौर जिले के दौरे के दौरान जब मैंने कई काश्तकारों से बात की तो उन्होंने इसे गंभीर स्थिति बताया। उन्होंने बताया, सेब की क्वालिटी में भी फर्क आया है और उत्पादन पहले की अपेक्षा कम हुआ है।
हिमालय में ऊपर की ओर खिसक रहे हैं जीव-जंतु और पौधे
जलवायु परिवर्तन का असर हिमालयी क्षेत्र में वनस्पतियों, वन्य जंतुओं और जलीय जीवों में दिखने लगा है। भारतीय वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि जीवों, वनस्पतियों में धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।
भारतीय वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिक हिमाचल के ब्यास बेसिन, उत्तराखंड के भागीरथी बेसिन और सिक्कम के तीस्ता बेसिन में पिछले ढाई सालों से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने में जुटे हैं। सीनियर साइंटिस्ट-जी एस सत्याकुमार कहते हैं कि हिमालय के इन क्षेत्रों में वनस्पतियों के विकास क्रम में परिवर्तन आ रहा है और इसके चलते जीव जंतुओं में भी बदलाव देखे जा रहे हैं।
पक्षियों से लेकर कुछ जलीय जीवों के प्रजनन काल में बदलाव पाया गया है, तो पेड़ पौधों पर समय से पहले फूल खिलना भी हिमालय के तापमान में बढ़ोत्तरी के संकेत दे रहा है। अभी इस पर शोध रिपोर्ट जारी नहीं हुई है। सत्याकुमार इसके लिए व्यापक अध्ययन की जरूरत बताते हैं। वह कहते हैं कि ढाई साल के इस शोध से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी।
इंटरनेशनल सेंटर आफ इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट काठमांडू में प्रोग्राम कोआर्डिनेटर डॉ. नकुल क्षेत्री इस पर शोघ पत्र जारी कर चुके हैं। उनकी रिपोर्ट के अनुसार हिमालयन बेल्ट बेहद नाजुक है। यही वजह है कि यहां विविधता आने लगी है। फ्लोरा एंड फौना पर अब तक किए गए अध्ययन के अनुसार वह कहते हैं कि जैवविविधता काफी बदली है। सन् 1700 से अब तक की शोध रिपोर्ट बताती है कि हिमालय में 70 से 80 फीसद वनस्पतियां व जीवजंतुओं में कमी आई है। डॉ. नकुल के शोधपत्र के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण जीवन उच्च हिमालय की ओर जगह तलाश रहा है। यानी कि वनस्पतियां, जीव जंतु तापवृद्धि से बचने को ऊपर की ओर खिसक रहे हैं। फल व फूल आने का चक्र गड़बड़ाने लगा है। समयपूर्व फूल खिलना व फल आना इसका बड़ा उदाहरण है।
एक डिग्री तक बड़ा है हिमालय का तापमान
ग्लोबल वॉर्मिंग का हिमालय पर वितरीप प्रभाव पड़ रहा है। पिछले 20 से 25 साल में हिमालय में ज्यादा तापमान और नमी रिकॉर्ड की गई। औसत तापमान में 0.65 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई। इससे ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा बढ़ गया है। इसके चलते हिमालय में बड़े पैमाने पर एवलॉन्च की घटनाएं हुई। यह बात जलवायु पर रिसर्च करने डीआरडीओ की चंडीगढ़ लैबोरेटरी के वैज्ञानिकों की रिसर्च में सामने आई है।
इलाहाबाद विवि के भूगर्भीय विभाग ने भी इस पर शोध रिपोर्ट जारी की है। इलाहबाद विवि के भूगर्भीय विभाग के जियोलाॅजिस्ट आशुतोष मिश्रा का एक शोधपत्र 'चेजिंग टेम्परेचर एंड रेनफाॅल पेटर्न ऑफ़ उत्तराखंड' 2018 में 'इंटरनेशनल जरनल ऑफ़ इनवॉयरमेंट साइंस एंड नेचुरल रिसोर्स' में प्रकाशित हो चुका है। इसमें वो लिखते हैं— 'उत्तराखंड में मुक्तेश्वर में तापमान माइनेस 17 डिग्री सेल्सियस से लेकर पंतनगर में 42 डिग्री सेल्सियस रहता है। दोनों तापमान में बडा अंतर है। जलवायु परिवर्तन में ये भिन्नता भी राज्य को संवेदनशील बनाती है। सौ सालों की बात करें तो 1950 के बाद तापमान ज्यादा बढ़ने लगा, लेकिन 1970 में इसमें गिरावट दर्ज हुई, हालांकि फिर भी ये सामान्य से ज्यादा था। 1990 के बाद भी ये तापमान बढने लगा जो अभी तक जारी है। कुछ मिलाकर औसतन 0.46 डिग्री सेल्सियस तापमान में वद्धि हुई है।
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व वरिष्ठ ग्लेशियर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि औसतन एक डिग्री तक की बढोतरी दर्ज की जाती है, जो कि चिंता का विषय है। इस एक डिग्री से ही कई बडे इलाके बर्फहीन हो गये है।
चार साल में नहीं बन सका राज्य का स्टेट एक्शन प्लान
उत्तराखंड में स्टेट एक्शन प्लान आन क्लाइमेट चेंज्स को केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की ओर से 18 अगस्त 2016 को मंजूरी दी गई थी। लेकिन राज्य में जलवायु परिवर्तन विभाग न होने से इसे अभी तक लागू ही नहीं किया गया। 2020 में राज्य ने पर्यावरण संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग का गठन किया। जिसके बाद अब राज्य सरकार ने स्टेट एक्शन प्लान पर काम शुरू किया है।
पूरे हिमालय परिक्षेत्र में सबसे ज्यादा ग्लेशियर उत्तराखंड में मौजूद है। भूकंपीय गतिविधि के लिहाज से भी यहां की पर्वत श्रंखलायें संवेदनशील हैं। बावजूद इसके राज्य में इसके लिये गंभीरता इस कदर है कि केंद्र द्वारा स्टेट एक्शन प्लान के लिये आठ हजार करोड रूपये जारी होने के बाद भी राज्य सरकार इसे अभी तक धरातल पर नहीं ला पाई है, जबकि हर साल एक बडी आबादी हिमालय में आ रही आपदाओं के चलते हताहत हो रही है।
हालांके, राज्य ने अब इस ओर सोचना शुरू किया है। उत्तराखंड के एक्शन प्लान के लिए राज्य में 12 क्षेत्रों का चिह्नीकरण किया गया है। इसमें विकास के लिए एक्शन प्लान में हर तरह के प्रावधान रखे जाने हैं, ताकि इनमें चलने वाली योजनाओं को इसी एक्शन प्लान के अनुसार पूरा किया जा सके। निदेशालय की संयुक्त सचिव नेहा वर्मा की ओर से इसके लिए टेंडर किए गए हैं। पर्यावरण सरंक्षण एवं जलवायु परिवर्तन निदेशक एसपी सुबुद्धि ने बताया कि एक्शन प्लान वैसे तो पहले भी बनाया गया था, लेकिन कुछ कमियों की वजह से उसमें संशोधन कर नए सिरे से तैयार किया जाना है।
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