'कसेंड्रा क्रासिंग' पर भारत

'कसेंड्रा क्रासिंग' पर भारत

उबैद अख़्तर

उबैद अख्तर साहब की पैदाइश हिन्दुस्तान के आजाद होने के एक दशक बाद मुल्क के सबसे जीवंत शहर बनारस में हुई। 1986 में वो पत्रकारिता के पेशे से जुड़े और ताउम्र इसी के होकर रह गए। इस बीच कथा-कहानी में भी हाथ मारा, लेकिन बकौल उबैद साहब ग़म-ए-रोज़गार यानी कि अखबारों की नौकरियों ने उनके अंदर आकार ले रहे कहानीकार को क़लम उठाने की फुरसत ही नहीं दी। उन्होंने दैनिक जागरण, स्वतंत्र चेतना, संध्या प्रहरी, अमर उजाला, हरिभूमि और राष्ट्रीय सहारा जैसे संस्थानों में काम किया है।

1976 में एक अंग्रेजी थ्रिलर मूवी ने बॉक्स ऑफिस पर काफ़ी धूम मचाई थी। फ़िल्म का नाम था 'द कसेंड्रा क्रासिंग'। बर्ट लैंसेसटर, सोफ़िया लोरेन और रिचर्ड हैरिस जैसे दिग्गज़ कलाकारों वाली इस फ़िल्म के  विषय-वस्तु ने उस दौर के दर्शकों को चौंकाया था। फ़िल्म एक ऐसी यात्री ट्रेन की कहानी बयां करती है, जिसमें जेल से भागा एक स्वीडिश आतंकवादी सवार हो जाता है। दरअसल यह शख्स एक जैविक मानव बम है। उसे प्लेग है और उसका मक़सद पूरी ट्रेन को संक्रमित करना है। वह ट्रेन की डाइनिंग कार में जाता है और यात्रियों को परोसे जाने वाले खाने में प्लेग का वायरस डाल देता है। जिनेवा से स्टॉकहोम जा रही इस ट्रेन के बारे में अधिकारियों को जब ट्रेन में संक्रमण का पता चलता है तो वे ट्रेन के सारे स्टॉपेज निरस्त कर देते हैं। कमांडो चलती ट्रेन में घुसकर आतंकी को मारने का भी प्रयास करते हैं, लेकिन विफल रहते हैं।

ट्रेन के यात्रियों को लेकर दो अधिकारियों में मतभेद हो जाता है। एक अधिकारी चाहता है कि ट्रेन को रोककर सारे यात्रियों को क्वारंटाइन किया जाए, जबकि दूसरा ट्रेन को कहीं सुदूर भेजने पर आमादा है। अंत में फैसला होता है कि ट्रेन को पोलैंड के जोनोव की ओर जाने वाले उस रेल ट्रैक पर डाल दिया जाए जहां कभी पूर्व नाज़ी कंसन्ट्रेशन कैंप हुआ करते थे। इस रूट पर आगे कासनद्रव पुल ( कसेंड्रा क्रासिंग) है जो इस्तेमाल नहीं होता और काफ़ी जर्जर हालत में है। इस बीच एक वीरान-सी जगह ट्रेन को रोककर सेना के जवान ट्रेन के सारे दरवाज़े और खिड़कियों पर लकड़ी के मोटे तख़्ते जड़ देते हैं, ताकि कोई भी संक्रमित यात्री बाहर न आ सके। अंत में ट्रेन को कसेंड्रा क्रासिंग वाले ट्रैक पर डाल दिया जाता है।

बाद में ट्रेन पर सवार फ़िल्म के हीरो (रिचर्ड) और उसकी पूर्व प्रेमिका (सोफ़िया) कुछ अन्य यात्रियों की मदद से ट्रेन पर तैनात कर दिए गए गार्ड्स पर काबू पाते हैं। सब मिलकर ट्रेन को बचाने की कोशिश करते हैं, लेकिन कसेंड्रा क्रासिंग जब एकदम करीब आ जाता है तो हीरो ट्रेन के अगले कुछ  बोगियों को काटकर अलग कर देता है, जिन में संक्रमित यात्री थे. ट्रेन का अगला हिस्सा कसेंड्रा क्रासिंग से गिर जाता है। बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। हाफ हैप्पी एंडिंग!

देश के मौजूदा हालात कुछ-कुछ 'द कसेंड्रा क्रासिंग' जैसे ही हैं। पूरा देश ऐसी ट्रेन में सवार है, जो संक्रमण का शिकार है और नियंता उसे झूलते-हिलते-कांपते पुल वाले ट्रैक (यानी हमारा सेहत सिस्टम) पर डाल कर कुर्सियां छीनने या बचाने के खेल में व्यस्त हैं।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली महामारी है, जिसमें देश के हुक्मरानों ने सारी शर्म-ओ-हया बेच खाई है। अपनी 35 साल की पत्रकारिता में मैंने ऐसा निर्लज्ज, बेहिस और बेगैरत नेतृत्व नहीं देखा। इंदिरा गाँधी का काला आपातकाल और संजय गाँधी की राष्ट्रीय गुंडागर्दी देखी। नक्सलबाड़ी देखा। बाबरी कांड और गुजरात दंगे देखे। मुंबई धमाके देखे। संसद पर हमला भी देखा। कंधार हाईजैक देखा, कारगिल देखा और कश्मीरी पंडितों का नरसंहार देखा, लेकिन शांतिकाल में पुरसुकून ढंग से पूरे देश को मकतल (वधस्थल) बना दिया जाएगा, यह देखना बदा है, यह नहीं सोचा था। लोग सड़कों, अस्पतालों और घरों में मर रहे हैं। ऑक्सीजन के लिए तीमारदार अफसरों के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं और सरकारें लोगों को धमका रही हैं। बीमारों और मरने वालों के आंकड़े छिपा रही है।

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एक सियासी शोमैन की सनक ने देश को वहां लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ अर्थ-व्यवस्था को चलाने के लिए दूसरे देशों से 'भीख' मांगनी पड़ रही है। हमें अपनी राजनीतिक पार्टियों का मूल चरित्र समझने का इससे अच्छा मौक़ा नहीं मिलेगा। चुनाव और कुर्सी उनके लिए अव्वल है, देश के नागरिक और उनकी तकलीफ़ दोयम। साहब ने पहले अमेरिका जाकर और फिर ट्रम्प को भारत नोत कर अमेरिकी चुनाव कराए। फिर राज्यों में सरकार गिराने-बनाने का खेल खेला। तीन महीने पहले पांच राज्यों के चुनाव और कोरोना की जानलेवा दूसरी वेव ने आगे-पीछे एंट्री ली। फिर भी नहीं चेते और महाराष्ट्र में बढ़ते कोरोना मामलों की खिल्ली उड़ाते रहे। पिछली बार 'नमस्ते ट्रम्प' में  बिजी थे। इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में व्यस्त हो गए। भीड़ देखकर गदगद। सब जीत लिया, बंगाल कैसे रह जाएगा।

यह तो इलाहाबाद और मद्रास हाईकोर्ट का ज़मीर जाग गया और कुत्ते-बिल्लियों की तरह मर रही जनता के दुखों की बात चली। केंद्र, राज्य सरकारों के साथ ही चुनाव आयोग से कैफियत तलब की गई। सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान के ज़रिये कई एंगल से केंद्र और राज्य सरकारों को घेरा।

सवाल यह है कि चुनाव ज़रूरी थे या लोगों जान! पूरी दुनिया में 2020 से लेकर अब तक 69 देशों और उनकी आठ टेरिटरीज ने आम चुनाव से लेकर लोकल बॉडीज के 116 तरह के चुनाव टाल दिए। कुछ ने 2024 तक कोई चुनाव नहीं कराने का फैसला लिया है। कई देशों को इसके लिए अपने संविधान में संशोधन तक करने पड़े, लेकिन हमारे देश में सरकारें और उनका तंत्र पूरी ताक़त पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में झोंककर रैलियां और रोड शो करता रहा। हमारे संविधान प्रमुख भी चुप्पी साधे 'खैला' और 'ओ दीदी-दीदी' होता देखते रहे। इससे शर्मनाक एक मुल्क के लिये और भी कुछ हो सकता है, मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था, लेकिन अब ऐसा होते हुये देख रहा हूं।

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  1. Waah... Kamal ki lekhni hai sahab
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