'इंडिया टुड़े' की 'राम भजो' पत्रकारिता की अर्थी के बीच 'आउटलुक' ने रख ली 'जर्नलिज्म' की लाज

Mediagiri'इंडिया टुड़े' की 'राम भजो' पत्रकारिता की अर्थी के बीच 'आउटलुक' ने रख ली 'जर्नलिज्म' की लाज

NEWSMAN DESK

इस दौर में जब सत्ता के शीर्ष पर 'आरामदेह कुर्सियों पर तौलिये' डाले बैठे जिम्मेदारों से सीधे सवाल पूछने का वक्त है, 'इंडिया टुडे' ने उस सुस्त कुत्ते की तरह गलत दिशा में भौंक कर मालिक को आगाह भर कर लेने की इतिश्री कर ली है, जिसे खतरे में भी खुद को सुरक्षित रखने की चिंता ज्यादा है। 'इंडिया टुडे' के पत्रकारों को शायद अपने मालिक अरुण पुरी से सरकार पर 'हल्के' हाथ रखने के 'सख्त' निर्देश हैं। उन्होंने बीच का रास्ता चुना है और अभावों में दम तोड़ रही भारत की जनता को 'मूर्ख' समझ 'क्रांतिकारी पत्रकारिता' का ढोंग करना ज्यादा मुनासिब समझा है। 'इंडिया टुडे' के हालिया कवर को लेकर जितनी लानत-मलामत हो रही है, ठीक उसी बीच 'आउटलुक' ने अपना क्लियर स्टैंड लेकर भारत सरकार के महामारी से लड़ने के दावों पर करारा तमाचा जड़ दिया है।

पहले 'इंडिया टुडे' की ही बात कर ली जाए और उसके बाद हम 'आउटलुक' पर लौटेंगे। 'इंडिया टुडे' ने बेहद शातिराना ढंग से सरकार का बचाव करते हुए स्टेट को ही विफल घोषित करने की मुनादी अपने मई अंक में कर दी है। 'इंडिया टुडे' स्टेट के शीर्ष पर बैठे जिम्मेदार लोगों से व्यवस्थाओं पर वाजिब सवाल पूछने के बजाय उनकी विफलताओं का ठीकरा स्टेट पर फोड़ रहा है। ये हास्यास्पद है कि जिन लोगों को स्टेट को दुरुस्त बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी, अब जब संकट आया तो उनके बजाय भारत की आम जनता को ही कारण बताने की चाल चल दी गई है।  'इंडिया टुडे' ने अपनी कवर स्टोरी का शीर्षक दिया है- ‘विफल स्टेट’। ..और इस 'विफल स्टेट' का प्रतीक है जलने की प्रतीक्षा में जमीन पर बिखरी हुई अर्थियों की लंबी कतार। इस बीच यह सवाल गायब कर दिया गया है कि इस 'विफल स्टेट' को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी किसकी है! अर्थियों से पटे हुये देश में व्यवस्थाएं बनाने की जिम्मेदारी किसकी थी! क्या भारत के उन लोगों की जो भीड़ बनकर हर पांच साल में 'आरामदेह कुर्सियों' तक नेताओं को उनकी पसंद का 'तौलिया' डालने के लिये पहुंचा रहे हैं? महामारी के वक्त इस 'विफल स्टेट' की जिम्मेदारी जब नागरिकों पर डाल दी गई है, तब क्या यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि सामान्य समय में लुटियंस में बैठकर गुलदस्ते सरकाते नेता आखिर इस 'विफल स्टेट' को सुधारने के लिये क्या कर रहे थे!

यह भी पढ़ें : एक डॉक्टर का खत- 'मेरे पास एक ही बेड था और मैंने जिंदगी और कोरोना दोनों को चुना'

असल में स्टेट को विफल घोषित करने से पहले 'इंडिया टुडे' को उन चमकदार विज्ञापनों में झांक लेना चाहिये था, जहां इस 'विफल स्टेट' के 'मसीहा' कुछ महीनों पहले तक कोरोना से जंग जीत लेने का खम भरते हुए नजर आ रहे थे। अब जबकि इस 'विफल स्टेट' के उस नायक पर सवाल दागे जाने चाहिये थे, जो अब तक विकास की रेवडियां बांटकर इसी 'विफल स्टेट' को 'विश्वगुरू' बताने का लॉलीपॉप बांट रहा था, इस नामी मैगजीन ने शीर्षक के नीचे सब हेड लगाया है- 'हू इज टू ब्लेम' यानी कि किसे जिम्मेदार माना जाए! अब आप या तो अपना माथा फोड़िये या डंडा उठाकर अपने कुत्ते को ही जख्मी कर दीजिये, जिसे शायद बहुत पहले ही भौंककर आपको खतरे के बारे में आगाह कर देना चाहिए था! 

'इंडिया टुडे' का ये कवर स्टेट या स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलताओं से दो कदम आगे बढ़कर 'पत्रकारिता' के दम तोड़ चुके चरित्र की तस्वीर ज्यादा है। ऐसा लग रहा है कि महामारी में मोदी सरकार की विफलता को, स्टेट की विफलता घोषित करने की 'इंडिया टुडे' को जल्दी है। महामारी में अपनी सरकार की अव्यवस्थाओं को ढंकने की इतनी मेहनत तो बीजेपी के तमाम मंत्री और आईटी सेल, कुतर्क देते भक्तों की भीड़ के साथ मिलकर भी नहीं कर पा रहे हैं, जितने शातिर ढंग से इस काम को 'इंडिया टुडे' ने कर दिखाया है। 'इंडिया टुडे' की कवर स्टोरी भारत के लोगों के आक्रोश की धार को मोड़ने की कोशिश के साथ ही यह भी बताना चाह रही है कि इस महामारी के असल जिम्मेदार तो भारत के ही लोग हैं। ये बीजेपी समर्थकों के उसी तर्क का विस्तार है, जिसमें वो हर अव्यवस्था का ठीकरा भारत की जनसंख्या के माथे पर फोड़कर बच निकलते हैं या फिर कहते हैं- 'सरकार कर भी क्या सकती है!'

असल में स्टेट का मतलब सिर्फ वो नेता नहीं होते जो सुखद वक्त में गरीब भारतीयों की टूटती हुई कमर के उपर बने अपने हरमों में सुविधाएं भोग रहे होते हैं, बल्कि स्टेट के अंग वो अधिकारी, कर्मचारी भी होते हैं, जिन्हें लगातार कमजोर किया गया है। इस वक्त जब डॉक्टर, पैरा मेडिकल स्टॉफ, पुलिस के जवान, शिक्षक और अन्य सरकारी महकमे के कर्मी बड़ी संख्या अपने प्राणों को हथेली पर रखकर इस महामारी से लोगों को बचाने के लिए जूझ रहे हैं, 'इंडिया टुडे' शीर्ष पर बैठे लोगों की अक्षमता को ढंकने का काम कर रहा है। इस आपदा में यदि लोगों को उम्मीद की थोड़ी भी राह कोई दिखा रहा है, तो वह भारत सरकार का शीर्ष नेतृत्व नहीं बल्कि वो कर्मी हैं, जो दिन-रात लोगों के बीच काम कर रहे हैं।

यह भी पढ़ें : 'लाला' रामदेव का कुतर्क और मरीजों की सिकुड़ती छाती में अटकी ऑक्सीजन का मजाक!

चमकीले विज्ञापनों में लिपटी कॉरपोरेट की अक्षम सरकार इस वक्त में जिस तेजी से बेनकाब हुई है, उसका ठीकरा आम लोगों के माथे फोड़ना 'इंडिया टुडे' की पक्षधरता को ही ज्यादा दिखाती है, जो कि कहीं से भी पत्रकारिता या भारत के लोगों के पक्ष में तो कतई खड़ी नहीं है। भारत को बचाने में इस वक्त यदि कोई खड़ा है तो वह हैं इस मुल्क के वैज्ञानिक और इस 'विफल स्टेट' के 'सफल और जुझारू' डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टॉफ जो दम तोड़ते भारत को सांसें देने की जद्दोजहद में फंसे हुये हैं। इस 'विफल स्टेट' का पुलिस महकमा, अदालतें और वो रिपोटर्स जो अवसाद में घिरकर भी श्मसान से लाशों की गिनती कर सच को सामने ला रहे हैं, वो भी असल में इस 'विफल स्टेट' के बीच सकारात्मक काम कर रहे हैं।। ये सब उसी 'विफल स्टेट' का हिस्सा हैं, जिस पर 'इंडिया टुडे' ने अपनी दम तोड़ती पत्रकारिता की खीझ उतारी है।

अब इसके इतर 'आउटलुक' के मई अंक के उस कवर की ओर चलते हैं, जिसने आते ही व्यापक चर्चाएं बटोर ली हैं। 'आउटलुक' ने अपने मई के अंक के कवर को सफेद रंग से बैकग्राउंड दिया है, जिस पर लाल रंग से मोटे हर्फ में लिखा है- 'मिसिंग'। इसके ठीक नीचे लिखा है- 'नाम-  भारत सरकार, उम्र-  सात साल और सूचित करें भारत की जनता को'। जिस दौर में 'इंडिया टुडे' ने मोदी सरकार के कारनामों पर पर्दा डालकर घुटने टेकने का काम किया है, ठीक उसी वक्त 'आउटलुक' ने सरकार का कॉलर पकड़कर सही और वाजिब सवाल दाग दिया है। महामारी के दौर में जब ट्विटर से लेकर आम बातचीत तक गृहमंत्री और पीएम के गायब नजर आने की चर्चा जोर पकड़ रही है, तब 'आउटलुक' ने आम जनमानस के सवाल को प्रमुखता से अपने मई अंक में जगह देकर भारत में 'पत्रकारिता' की लाज बचा ली है।

यह भी पढ़ें : अभी-अभी तो पीएम ने कोरोना की जंग जीत लेने की डींगे हांकी थी, फिर क्यों ओढ़ना पड़ा ‘आईटी सेल’ का खोल!

'आउटलुक' ने 2016 के बाद शायद इतनी व्ययापक चर्चाएं अब जाकर वापस पाई हैं। अगस्त 2016 में 'आउटलुक' ने नेहा दीक्षित की एक पड़ताल करती हुई रिपोर्ट छापी थी, जिसका शीर्षक था 'आॅपरेशन बेबी लिफ्ट'। ये आरएसएस के उस कारनामे का खुलासा करती हुई रिपोर्ट थी, जिसमें यह तथ्य निकलकर सामने आए थे कि कैसे संघ परिवार ने कानूनों को ताक पर रखकर असम की 31 आदिवासी लड़कियों को गुजरात और पंजाब 'हिंदू' बनाने के लिये लाया गया। इसके बाद नेहा दीक्षित तो फिर कभी 'आउटलुक' में नहीं छप सकी, एडिटर को भी इस्तीफा देना पड़ा। संघ परिवार ने न केवल इस रिपोर्ट पर गुस्सा जाहिर किया, बल्कि 'आउटलुक' को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इसके बाद दफा नेहा दीक्षित को कई दफा जान से मारने की धमकियां भी मिली और पिछले दिनों उनके दिल्ली स्थित आवास पर हमले की खबरें भी आई। ये सब मैं इसलिये बता रहा हूं कि आप खबरों को सामने लाने की चुनौतियों के बारे में भी जान सकें। खैर, ऐसे वक्त में जब ​विदेशी मीडिया तक भारत सरकार की लापरवाहियों और अव्यवस्थाओं को महामारी के लिये जिम्मेदार बता रही है, भारतीय मीडिया का 'भक्ति काल' जारी है। 

मेरे एक सहयोगी से जब मैं 'इंडिया टुडे' के कवर की चर्चा कर रहा था तब उसने कहा- 'अब इतना बड़ा साम्राज्य अरुण पुरी ने भारतीय भूखी-नंगी जनता को खबरें परोसने के नाम पर जो तैयार किया है, उसे वो किसी 'सनकी' शासक के हाथों भला क्यों बर्बाद करवाना चाहेंगे!' सही भी है खबरों का क्या है, हवा बदलेगी तो फिर 'क्रांतिकारी' हो जाएंगी। वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार के कपड़े फाड़ने के दिनों में नजर आती थी, जब 'इंडिया टुडे' के कवर पर सीधे प्रधानमंत्री से नाकामी पर जरूरी सवाल दागे जाते थे और सत्ता के श्रर्ष पर बैठे लोगों को कटघरे में खड़ा करने की हिम्मत दिखाई देती थी। फिलवक्त तो 'इंडिया टुडे' की पत्रकारिता को 'रेस्ट इन पीस' कहने का वक्त आ चुका है।

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols