कमलेश जोशी श्रीनगर गढ़वाल में हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं। इससे पहले कमलेश ने बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। कभी-कभार वो अपने शोध से फुर्सत लेकर, ‘हिलांश’ के लिए लिख मारेंगे।
कभी-कभी यूं लगता है मानो भीतर ही भीतर कहीं एक स्वप्न सा दौड़ रहा है, एक महामारी पूरी दुनिया को अपने आगोश में लेकर जोर-जोर से मूर्खताओं पर हंस रही है, लोगों में इतनी दहशत भर गई है कि वह घरों से बाहर निकलने में खौफ खाने लगे हैं। एक अजीब सा डर हर जेहन में तारी है। ऐसा लगता है जैसे अभी सपना टूटेगा, आंख खुलेगी और एक गहरी सांस भरते हुए दिल के किसी कोने से आवाज आएगी उफ़्फ क्या भयानक सपना था, सपने में कई-कई बार तो यही होता है, हम खुद को बचाने के लिए छट-पटा रहे होते हैं और आँख खुलते ही राहत महसूस करते हैं कि यह हकीकत नहीं है। काश कि यह महामारी सपना होती! लेकिन सपनों सी यह बीमारी आज की जानलेवा हकीकत बन गई है।
भारत जैसे बड़े मुल्क में जिस ढंग से सरकारों ने कोविड को लेकर निष्क्रियता और लापरवाही दिखाई है, उसी का नतीजा है कि आज लखनउ, दिल्ली, भोपाल, सूरत,मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कानपुर, आगरा, बनारस, जयपुर और तमाम कई सारे शहर कराह रहे हैं। जिंदगी ऑक्सीजन के होने न होने के सवाल पर ही निपट जा रही है। दुनिया के सबसे मशहूर मेडिकल जर्नल द लैंसेट ने अपने आठ मई के अंक के संपादकीय में पीएम की आलोचना करते हुए लिखा कि नरेंद्र मोदी ध्यान ट्विटर पर अपनी आलोचना को दबाने पर ज़्यादा और कोविड - 19 महामारी पर काबू पाने पर कम है। जर्नल ने अपने संपादकीय में लिखा— 'ऐसे मुश्किल समय में मोदी की अपनी आलोचना और खुली चर्चा को दबाने की कोशिश माफ़ी के काबिल नहीं है।' रिपोर्ट में कहा गया है कि इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के अनुमान के मुताबिक भारत में एक अगस्त तक कोरोना महामारी से होने वाली मौतों की संख्या 10 लाख तक पहुंच सकती है।
देश में कोविड-19 वैश्विक महामारी लगातार भयावह रूप लेती जा रही है। भारत में समर्थ लोग तक अपने लोगों के लिए अस्पतालों में बेड की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में अंदाजा लगा लीजिये कि जो दिल्ली में 100-200 रुपये प्रतिदिन कमाने वाला मजदूर तबका था, उसके कितने बुरे और बदहाल दिन चल रहे होंगे। हाल ही में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से एक महिला के अपने बेटे की लाश को ई-रिक्शा में ले जाने का वीडियो सामने आया था। क्या हाल है पीएम के संसदीय इलाके का, ये इस वीडियो से समझ आ जाता है।
ये वही बनारस है जिसे क्योटो बनाने की लफ्फाजी ये देश मंच से सुन चुका है! उस महिला का जो वीडियो है वो भारत के इतिहास में काला धब्बा बनकर दर्ज हो गया है। ऐसा लगता है, मानों सरकार को कोई सुध ही ना हो! केन्द्र सरकार को अब तक शर्म आनी होती तो वह पिछले साल सूटकेस पर अपने बच्चे को लिटाकर ले जाती हुई घटना या फिर ऐसी ही हजारों दर्दनाक कहानियों को देखकर आ चुकी होती।
भारत में कोरोना वायरस संक्रमण के कुल मामलों की आंकड़ा बढ़कर 24,046,809 हो गया हैं, जबकि मृतक संख्या बढ़कर 262,317 हो गई है। ये लगातार 22वां दिन है, जब देश में बीते एक दिन में तीन लाख से अधिक नए मामले दर्ज किए गए हैं। विश्व में संक्रमण के 16.11 करोड़ से ज़्यादा मामले सामने आए हैं, जबकि 33.44 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है इन आंकडों में भी कितना झोल है, इस पर भी अब संदेह की आदत डाल लेनी चाहिये। ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं, क्योंकि हाल ही में मध्य प्रदेश समेत कई इलाकों से अलग-अलग रिपोर्ट सामने आई थी, जिनमें सरकारी मौत के आंकडों से अलग, तथ्यों का खुलासा किया गया था। यूपी और बिहार में गंगा में सैकडों लावारिश लाशें तैर रही हैं और श्मसान में दफ्न शवों को कुत्तो के आहार बनाने के वीडियो अब आम देखने को मिल रहे हैं।
इधर सरकारों के अघोषित प्रवक्ता पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि महामारी में बदइंतजामी का जामा ‘सिस्टम काॅलेप्स’ के माथे बांध दिया जाये, लेकिन लोग भी पूछ रहे हैं कि ‘सिस्टम था ही कब दुरुस्त!’। जिस सिस्टम की पोल रोज ही मामूली बीमारियों में खुल जाती रही हो, वो तो अब नंगा ही खड़ा दिखाई देगा ना बाबा! हां, ये सुखद पहलू है कि इस मुल्क के लोगों ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया है और फिलहाल धर्म के नाम पर लोगों को भड़काने वाले तत्व अंडरग्राउण्ड हो गये हैं।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के मुताबिक, 13 मई तक 311,324,100 नमूनों की जांच की गई है जिनमें से 1,875,515 नमूनों की बृहस्पतिवार को जांच की गई। बीते 24 घंटे के दौरान जिन 4,000 लोगों की मौत हुई है उनमें सर्वाधिक 850 मौत महाराष्ट्र में हुई है। देश में अब तक 262,317 लोगों की मौत हुई है, जिसमें से 78,857 मरीजों की मौत महाराष्ट्र में, कर्नाटक में 20,712, दिल्ली में 20,618, तमिलनाडु में 16,768, उत्तर प्रदेश में 16,646, पश्चिम बंगाल में 12,857, पंजाब में 11,297 और छत्तीसगढ़ में 11,289 लोगों की मौत हुई है।
अस्पताल तीमारदारों और मरीजों के घुप्प सन्नाटे के बीच स्टेचर खिंचने की आवाजों से गूंज रहे हैं। सड़कों पर एंबुलेंस का शोर दिल की धड़कने बढ़ा रहा है। कोरोना वायरस संक्रमण के लिहाज से बात करें तो देश में अप्रैल का महीना अब तक सबसे घातक साबित हुआ है। इस महीने में संक्रमण के नए मामलों ने सिर्फ एक या दो दिन ही गिरावट दर्ज की, वरना लगभग हर दिन रिकॉर्ड मामले दर्ज किए गए। बीते 24 घंटे के दौरान नए मामलों की सर्वाधिक संख्या बीते 30 अप्रैल को 386,452 दर्ज की गई और इस अवधि में जान गंवाने वालों की सर्वाधिक 3,645 संख्या 29 अप्रैल को रही है। इस मुश्किल वक्त में सोशल मीडिया पर लोग गृहमंत्री के गायब होने पर मीम शेयर कर ही अब अपनी खीझ उतार रहे हैं।
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इस पूरी महामारी के दौरान सबसे अचंभित करने वाली बात, स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर प्रधानमंत्री और केन्द्र में उनके मंत्रियों की लापरवाही रही है। सरकार से ज्यादा सक्रियता सोशल मीडिया पर दिख रही है, जहां बिखरते, डरते और टूटते नागरिक मदद की गुहार लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री महामारी से बेखबर चुनावी सभाओं में ममता बनर्जी पर चुटकी लेने से ही फुर्सत नहीं पा रहे थे। बहुत छीछालेदारी हुई तो रैलियां रद्द करने की बात भी हो गई। कुछ दिन पहले तक ही गृहमंत्री पार्षद की तरह कलकत्ता की गलियों में राम-नाम की माला जपकर वोट मांगते हुए भटक रहे थे। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की ओर से ही जब लापरवाही का संदेश लगातार आ रहा था, तब भारत के उन नागरिकों को भी क्या दोष देना जो किसी सांप्रदायिक दंगाई नेता के उकसावे पर असभ्यों की तरह मारने-काटने पर उतारू हो जाते हैं।
कोविड महामारी के आंकड़ों पर गौर करें तो देश में 15 अप्रैल से लगातार नौवें दिन संक्रमण के दो लाख से अधिक मामले प्रतिदिन सामने आए हैं। 11 अप्रैल के बाद यह लगातार 13वां दिन है, जब देश में एक दिन में 1.5 लाख से अधिक मामले सामने आए हैं। इसके अलावा सात अप्रैल के बाद यह लगातार 16वां दिन है, जब एक लाख से अधिक नए मामले दर्ज किए गए हैं। शहर दर शहर डर फैलता जा रहा है।
आपको शायद याद न हो लेकिन जब चीन में महामारी फैलने की चटकारेदार खबरें भारतीय मीडिया परोस रहा था, उस वक्त चीन इस महामारी से लड़ने की जद्दोजहद कर रहा था। वुहान शहर में चीन की सरकार ने 10 दिन के अंदर ही 1000 बेड का अस्पताल तैयार कर कोरोना से जंग जीतने के अपने इरादों को जगजाहिर कर दिया था। इधर पीएम मोदी एक साल गुजर जाने के बाद चंद दिनों पहले कह रहे हैं, हम कोविड से मुकाबले के लिए अस्पताल बनाएंगे। इससे आप अंदाजा लगा लीजिए केन्द्र सरकार कितनी दूरदर्शी है! ठीक भी बात है, जब बादलों की आड़ में रड़ार से बचकर दुश्मन मुल्क की बखिया उधेड़ी जा सकती हैं, तब प्रधानमंत्री के लिए किसी भी सवाल की गंभीरता कितनी होगी, स्वतः अंदाजा देता है। मीडिया को जब सरकार पर नकेल कसनी चाहिये थी, तब न्यूजरूम में पीएम के कटआउट सजाकर उन्हें महानायक की तरह पेश किया जा रहा था। संकट की घड़ी में अब यही महानायक, किसी 'फुस्सी सुतली बम' की तरह धमाका करने में चूक गया! क्या कहा जाये...
खैर, कोरोना महामारी फैलने को लेकर चीन की दुनिया भर में जबरदस्त आलोचना हुई, लेकिन चीन ने बावजूद इसके सबसे कारगर और प्रभावी तरीके से इस महामारी पर नियंत्रण पा लिया है। वुहान पहले की ही तरह खुल गया है, उस बेरंग हो चुके शहर की रौनक वापस लौट आई है। भारतीय मीडिया के स्वनामध्न्य पत्रकार जब चीन को गरियाने और सनसनीखेज खबरों को परोस थे। अब स्थितियां उलट हैं। पत्रकारों के सोशल मीडिया हैंडल मदद की गुहार से भरे हुए हैं।
तब जिन पत्रकारों को कोरोना और बाकी भारत के असल मुद्दों पर बात करनी चाहिये थी, तब वो मीडियाकर्मी एक ऐसे नेता की तारीफों के प्रायोजित पुल बांध रहे थे, जिसकी महत्कांक्षा और नासमझी भारत में लाशों के ढ़ेर लगाती जा रही थी। लोग अस्पतालों में दम तोड़ दे रहे थे। ऑक्सीजन न मिल पाने से इस इतने बड़े मुल्क में लोग मर जा रहे हैं, इससे शर्मनाक बात किसी भी प्रधानमंत्री के लिए क्या होनी चाहिये।
यह पहला मौका था हमारे पास अपने हेल्थ सिस्टम की खामियों को समझने और ऐसी किसी भी महामारी के आने पर उससे निपटने के लिए तैयार होने का, लेकिन हमने महामारी को सिर्फ चीन की समस्या समझकर आंखें मूंद ली। भारत में महामारी आई तो हमने पाकिस्तान की लाचारगी की कहानियां सुनानी शुरू कर दी। महामारी को लेकर अपनी सरकार से सवाल पूछने, उसे जनता की मुश्किलों के बारे में बताने के बजाय स्टूडियो में बैठकर भारत के मीडियाकर्मी ताली-थाली बजाने का उत्सव मना रहे थे। व्यापार गुरू रामदेव जिस दौर में अपनी तथ्यविहीन दवा को कोराना का मारक इलाज बताकर दुकान सजा रहे थे, उस वक्त भी मीडिया ने इस तमाशे को जारी रखा ना कि वैाानिक तथ्यों को तवज्जो देने के। असल में महामारी के खिलाफ तनी ही थी भारतीय मीडिया की भूमिका।
भारत में सबसे पहला केस 27 जनवरी, 2020 को केरल में आया, लेकिन इसके बावजूद भारत ने ना तो अपनी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों से आने वाले यात्रियों की किसी तरह की टेस्टिंग की और न ही उड़ानें ही रद्द की। इसी दौरान महामारी ने यूरोप में पैर पसारने शुरू किये, इटली व स्पेन जैसे विकसित देशों में महामारी ने हाहाकार मचा दिया। यह दूसरा मौका था जब हमें इस महामारी की गंभीरता को समझते हुए अपने हैल्थ सिस्टम को दुरुस्त करने के काम पर लग जाना चाहिये था और समस्त अंतरराष्ट्रीय उड़ानों को रद्द कर विदेशों से भारत आए तमाम यात्रियों को तुरंत ट्रेस और ट्रैक कर उनको टेस्ट कर आइसोलेट करना चाहिये था, लेकिन एक बार फिर सरकार बहादुर चूक गई।
महामारी जब भारत में तेजी से अपने पॉंव पसारने लगी और पूरे यूरोप में हाहाकार मचने लगा, तब इसे देखकर हमारी सरकार को खतरे का एहसास हुआ। बिना पूर्व तैयारियों के प्रधानमंत्री ने फिर से अकुशलता का परिचय दिया और मार्च के अंतिम सप्ताह में देश भर में पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। इसी बीच महामारी की लहर अमेरिका को भी अपने जद में ले चुकी थी। अमेरिका जैसा ताकतवर देश कोरोना महामारी के आगे घुटने टेक चुका था।
यूएस का पूरा हेल्थ सिस्टम चरमरा गया था और हजारों लोग मरने लगे थे, यह तीसरा मौका था हमारे पास खुद को सतर्क कर अपने हेल्थ सिस्टम को दुरुस्त करने का, लेकिन भारत के पीएम ने दंभ में ही समय गुजार दिया। पूरी सरकार मानो सिर्फ चुनाव लड़ने, जीतने और देश के चंद कारोबिारियों के हितों के लिये चलाई जा रही हो। अमेरिका जैसे देश की हालत को देखकर हमें अपनी पूरी ताकत अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने में लगा देना चाहिये था, लेकिन हमारी सरकार ने अपनी पूरी ताकत विरोधियों को कुचलने और चुनाव लड़ने में ही खपा दी। आज अमेरिका मुश्किल दौर से अपने नागरिकों को खींच रहा है, वैक्सीनेशन की प्रक्रिया आसान बना दी गई है, इसके उलट भारत में लोग हाहाकार की स्थिति में हैं। अनजाना डर सबको अपने आगोश में ले रहा है।
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2020 का पूरा साल कोरोना से लड़ते हुए गुजर गया। इस दौरान पहले से गर्त में गई अर्थव्यवस्था चरमरा गई, लेकिन भारतीय मीडिया को एक महाअसफल वित्त मंत्री के ‘देवीरूपी’ कंम्प्यूटर ग्राफिक्स बनाने और भ्रामक खबरों के प्रचार से ही फुरसत नहीं मिल पाई। लाखों लोग जिस दौर में मौत से बचकर अपने घरों को लौट रहे थे, उस दौर में प्रधानमंत्री मोर को दाना खिलाकर न जाने कौन सी दूरदर्शिता का परिचय दे रहे थे। अजब हाल बना रख है मुल्क का, न सिस्टम कहीं दिखता है न सरकार। हां हर वक्त हुंकार भरते हुए नकली महानायक जरूर दिख जाते हैं।
भारत में चल रही लापरवाही को लेकर विशेषज्ञ बहुत पहले से चेता रहे थे, लेकिन हम आपदा के गुजर जाने के बाद मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले नेताओं के दौर में हैं, क्या करें! विशेषज्ञ कहते रहे कि दूसरी लहर कभी न कभी लौटकर जरूर आएगी और पहली लहर से ज़्यादा घातक होगी, लेकिन तैयारियों के नाम पर भारत सरकार ने क्या किया, ये भी सामने आ गया है। लोग रेमेडेसिविर जैसे मामूली इंजेक्शन के लिए हजारों रुपया खर्च कर रहे हैं, जिनके पास नहीं है वो चुपचाप दम तोड़कर मौतों की संख्या में आंकड़ों का काम कर रहे हैं।
शहरों के श्मसान चिताओं के धुएं के बीच सांस लेने की फुर्सत नहीं पा रहे हैं, तब प्रधानमंत्री क्या कह रहे हैं ऐसे दौर में? यही कि ‘भरोसे' से जंग जीतेंगे! किसके भरोसे से महामारी की यह जंग जीती जाएगी! क्या उन न्यूज एंकर्स के जो आपको मसीहा ठहराते नहीं थक रहे... मुझे नहीं लगता इस बार मीडिया कर्मियों को भी आप पर भरोसा है, उनकी टाइमलाइन उनके अपनों के उखड़ती सांसों के बीच कराह रही हैं।
आम आदमी की तो बिसात ही क्या, खुद सत्ताधारी भाजपा के नेता मदद की गुहार लगा रहे हैं। राज्य सरकारों संसाधन न होने की बात कहकर अपने हाथ लगभग खड़े कर दिये हैं। पहाड़ों तक में जहां लोग की आबादी ही गिनने के दायरे में है, वहां तक कर्फ्यू लगा दिया गया है। सामान्य मरीजों की तो कोई सुध भी ले तो भला कैसे! दिन रात सड़कों पर एंबुलेंस के दौड़ने की आवाजें दिल को धक्क से बिठा दे रही हैं, जो जा रहा है उसके लौटने की उम्मीद ही बाकी है, भरोसा नहीं।
इकॉनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में एशियन हार्ट इंस्टीट्यूट के डॉक्टर रमाकान्त पांडा कहते हैं कि कोरोना महामारी ने देश में प्राइवेट स्वास्थ केंद्रों की नाकामी को उजागर कर दिया है। अव्वल तो नागरिकों का स्वास्थ्य निजी हाथों में सौंपा ही क्यों जाना चाहिए, जहां सरकार का नियंत्रण ही नहीं। पांडा आगे कहते हैं- ‘सरकार को पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम में ज़्यादा निवेश कर उसे मज़बूत करने की ज़रूरत है। अधिक से अधिक सरकारी अस्पताल बनाए जाने चाहिये। रोग प्रबंधन से ज़्यादा, स्वास्थ्य प्रबंधन? रोगियों की समझ व रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। वर्तमान में न सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य सेवा प्रबंधन को दुरुस्त व मज़बूत करने की ज़रूरत है बल्कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधन को बढ़ाने की भी ज़रूरत है। कोविड व नॉन-कोविड रोगियों के बेहतर ईलाज के लिए अस्पतालों में अलग.अलग ब्लॉक बनाए जाने की ज़रूरत है, ताकि नॉन-कोविड रोगी खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें।’
हाल ही में 24 देशों के 235 अस्पतालों में किये गए एक अध्ययन से यह सामने आया है कि यदि नॉन-कोविड रोगी को अस्पताल में ऑपरेशन के दौरान कोरोना होता है, तो उसके मरने के चांसेज 800 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। इस भयावह दौर में जबकि भारत के अस्पताल पहले ही रोगियों से ओवरलोडेड हैं, कोरोना ने कोढ़ पर खाज का काम किया है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश में 1950 से चली आ रही स्वास्थ्य बीमा तथा पेंशन योजनाओं में ढांचागत बदलाव की ज़रूरत है। कोरोना महामारी के दौरान इन दोनों योजनाओं ने अपने धारकों को निराश ही किया है। कर्मचारी राज्य बीमा स्कीम के तहत 13 करोड़ कर्मचारी आते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश इस स्कीम से असंतुष्ट हैं। इस स्कीम की नाकामी को इसी बात से समझा जा सकता है कि इसके कुल राजस्व में से खर्च न किया गया राजस्व भी केंद्र सरकार के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित बजट से ज्यादा है। बीमा कंपनियां सिर्फ अपने हिस्से मुनाफा चाहती हैं और संकट उपभोक्ताओं के माथे पर ही छोड़कर फरार हो गई हैं।
मैं इसे जानबूझकर फरार लिख रहा हूं... संकट के वक्त भागना, फरार होना ही है। खैर, जब सरकारों का उद्देश्य ही बीमा कंपनियों के जाल में लोगों को फंसाना हो गया हो, तब किससे भारत उम्मीद करे। यहां तो सरकार ही पीएम केयर फंड में जुटाये रुपयों का हिसाब देने से भाग रही है, तब किसी कंपनी के मालिक या बोर्ड से नागरिक अपना पैसा वसूल सकेंगे, यह सोचना ही खुद की मूर्खता में इजाफा करना होगा।
कर्मचारी भविष्य निधि, भारत की सबसे बड़ी पेंशन स्कीम है, जिसका कोष 12 लाख करोड़ है। इस स्कीम 6.5 करोड़ अंशदाता हैं, लेकिन फिर भी इसकी सेवाएं बहुत ही औसत व निम्न दर्जे की हैं। बीमा कंपनी की स्कीमों के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वो है नागरिकों को इनकी सही समझ न होना, छिपी हुई शर्तें, स्कीमों का महंगा होना और अनुभव की कमी होना।
कोरोना की इस भयावह स्थिति के बाद भी अगर हमारी सरकारें स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे पर काम करने को तैयार नहीं होती हैं तो हमारा हश्र भविष्य में भी यही होगा जो आज है। सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं में सुधार के साथ ही भारतीय राजनीति को आम जनमानस के मुद्दों पर केंद्रित किये जाने की जरूरत है। भारत को बतौर नागरिक अब सरकार से कड़े सवाल पूछना शुरू कर देना चाहिये। टीवी के नायक की छवि ढह चुकी है, सरकार का हाल हर मार्चे पर सिवाय असफलता के कोई उपलब्धि नहीं समेटे हुये है। लोगों को ही अब इस महामारी से खुद को और अपने परिचितों को बाहर निकालना होगा... सब कुछ डरने जैसा है भी नहीं। इस बीच कई ऐसे हाथ समाज के लोगों के बीच मजबूती से बढ़े हैं, जो मददगार साबित हो रहे हैं। ख्याल रखिये, ये वक्त भी गुजर जाएगा।
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