मुझे नहीं लगता कि भारत का कॉमन मैन किसी प्राकृतिक या अप्राकृतिक आपदा में अपनी असामयिक मौत के लिए किसी सरकार को ज़िम्मेदार मानने की प्रवृति भी रखता है। उसका धार्मिक चरित्र उसे, उसके कर्मों पर गहरी नज़र टिकाए रखने को कहता है, किसी सरकार पर नहीं। उसकी मौत सिर्फ़ ईश्वर की 'इच्छा' का नतीजा होती है। वायरस भी ईश्वर की इच्छा ही है! इस बार भी उसका जानी नुकसान नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की नाकामी की वजह से नहीं हुआ है। मुझे नहीं लगता है कि ये 'कॉमन मैन' नरेंद्र मोदी सरकार और केंद्रीय सत्ता के ख़िलाफ कोई निर्णायक सोच या समझ भी रखता है। मोदी विरोधी कुछ 'अल्पसंख्यक स्वरों' को यदि कॉमन मैन की आवाज़ समझने की भूल न की जाए, तब अधिकांश भारतीय ईश्वर की 'इच्छा' का आभाषी खोल ओढ़कर ही महामारी से लड़ रहे हैं।
कोरोना वायरस ने प्लेग और इन्फ़्लुएंज़ा के बाद शायद पहली बार लाखों भारतीयों की जान छीनकर उन्हें विचलित किया है। इसमें भी गुजरी महामारियों की भयानक स्मृति अब डेढ़ सौ साल पुरानी बात हो चुकी है और बहुसंख्य भारतीय पूर्व में आई इन महामारियों के बारे में जानते तक नहीं हैं। न उन्होंने कभी इतनी 'इच्छा' ही खुद के भीतर पैदा की कि वो मुल्क के इतिहास में झांकने की जहमत उठाएं। उनके लिए कोरोना वायरस भी महज एक दैवी आपदा है। चूंकि इतिहास के सबक़ में दिलचस्पी नहीं है, लिहाजा उसे इसमें भी दिलचस्पी नहीं कि महामारियों से बचने के लिए विज्ञान ने क्या किया था और क्या कर सकता है। कॉमन मैन की हिम्मत नहीं है कि वह सत्ता से सवाल पूछे कि उसके लिये ऐसा क्या किया गया जो ज़रूरी था। उसका विश्वास है- 'कुछ भी स्थायी नहीं' और रवैया कि 'यह भी गुज़र जाएगा' (This too shall pass!)।
क्या भारत का कॉमन मैन इस वायरस के बारे में सत्ता से सीधे प्रश्न पूछने की हिम्मत करेगा? क्या वह पूछेगा कि तमाम अवैज्ञानिक बातों के प्रसार के अलावा इस सरकार ने उसे वायरस के आउटब्रेक से अब तक क्या दिशा दी? क्या वह वायरस के बहाने इस अहंकारी और लालची सत्ता चरित्र से यह कहने की हिमाकत करेगा कि वह उन कुर्सियों से उतरे, जो उसे बड़े मान से दी गई थीं? मेरे विचार में इनमें से हर सवाल का जवाब एक ही है- नहीं! तो क्या भारत का आम जन इस वायरस प्रलय के साथ जीने (और मरने) के लिए अभिशप्त है? बहुत से मायनों में, हां।
मुझे नहीं लगता कि अचानक 2014 के बाद से हमारे चुनाव दोषपूर्ण हो गए हैं, बल्कि इतिहास और आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि आज़ादी से पहले से लेकर अब तक पूरे समय भारत का कॉमन मैन ही इस लोकतंत्र की कहानी का असल खलनायक है। ऐसा भी नहीं कि कॉमन मैन लोकतंत्र में अपना विश्वास खो रहा है, बल्कि यह कहना सही होगा कि इस कॉमन मैन का कभी लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं था। उसे जहां अवसर मिला, उसने ख़ुद का दुरुपयोग होने की अनुमति दी है।
सत्ता के पिछले दो ढांचों ने इसे उजागर किया और वो फ़ॉल्टलाइंस सामने रखीं। इसके लिए भारत के कॉमन मैन का चरित्र समझना और ज़रूरी हो जाता है। भारत के कॉमन मैन को अथॉरिटी के नीचे रहना पसंद है। सदियों से वह राजतंत्रीय ढांचे का पोषक रहा है। लोकतंत्र में उसकी दीक्षा कभी ठीक से नहीं हुई। आज़ादी के बाद उसने लोकतांत्रिक सत्ताओं के ज़रिए सत्ता के आपराधिक ऑथोरिटेरियन चरित्र को मैंडेट दिया है। एक आबादी के बतौर हिंदुस्तान के आम जन का चरित्र हमेशा से स्वकेंद्रित, अनुदार, संकीर्ण, सांप्रदायिक, अवैज्ञानिक, अर्धशिक्षित, रूढ़िवादी बहुसंख्यक हिंदू, सत्ता से तटस्थ, ख़ुदगर्ज़ या उदासीन रहा है। भारतीयों के लिए लोकतंत्र का अर्थ है अराजकता।
अपने व्यापक चरित्र में इस आम जन ने आज़ादी और लोकतंत्र के सभी पक्षों का दुरुपयोग किया है। बहुसंख्य भारतीय देश के 'ग्रेटर गुड' के लिए या जर्जर व्यवस्था को बदलने के लिए चुनाव में हिस्सा नहीं लेते, बल्कि निजी क्षुद्र आकांक्षाएं पूरी करने के लिए शामिल होते हैं, जो सामूहिक तौर पर उनका भविष्य बना या बिगाड़ सकते हैं। वह आराम से बरगलाये जा सकते हैं। बड़े पैमाने पर भारतीयों की लोकतंत्र में भागीदारी इन सभी 'राइडर्स' के साथ ही देखी जानी चाहिए। आदर्श पश्चिमी लोकतांत्रिक परंपराओं के आधार पर भारतीय जनभागीदारी के मूल्यांकन की कोशिशें असल में इस समाज के चरित्र के बारे में अतिश्योक्तिपूर्ण निष्कर्ष ही होगा।
सत्ता के साथ इस कॉमन मैन का रिश्ता भी अजीब सा रहा है। 'क्वालिटी ऑफ लिविंग' को लेकर आग्रह और विज्ञान में कोई यक़ीन, भारतीय कॉमन मैन का शुरू से ही नहीं रहा है। वह तथाकथित स्वर्ण युग को मिस करता है। बहुसंख्य भारतीय कॉमन मैन असल में रूढ़िवादी हिंदू है, जो अपने पड़ोसियों पर तब तक भरोसा नहीं करता, जब तक कि वो उसके धर्म, संप्रदाय, आस्था या विश्वास के न हों। कोई भी हिंदू नेतृत्व उसका शोषण कर सकता है। सावरकर, हेडगेवार, गांधी से लेकर आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक ढांचे में चुनकर आए सैकड़ों नेताओं और मोदी तक, वह हर सॉफ़्ट या हार्ड हिंदू के हाथों खेलने को तैयार बैठा रहता है।
आज़ादी के बाद से वह अपने भीतर एक बदबूदार घृणा पालता रहा है, जो उसे न केवल अपने से भिन्न लोगों, संस्कृतियों, मनुष्यों के प्रति नफ़रत बोध कराती है, बल्कि अपने ही भीतर मौजूद पुरुष से इतर सभी जेंडर्स और पांचवें वर्ण यानी दलित को आशंका और नफ़रत से घूरती है। उसका धर्म उन्हें नष्ट करने का आह्वान नहीं करता, इसलिए प्लूरल संस्कृतियों के साथ उसका संबंध हमेशा से उदासीनता का या फिर दामन बचाने का ही रहा है। भारत के बहुसंख्य आम जन ने प्लूरल संस्कृतियों के साथ एक्सचेंज में दिया ज़्यादा है, पाया कम।
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पहले चुनाव से लेकर आज तक किसी भी राजनीतिक संगठन या सत्ता ने कभी भी भारत की विशाल आबादी को लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सचेत या शिक्षित करने के लिए अभियान नहीं चलाया। सभी सरकारों का एक ही काम रहा- 'नियमित समय पर चुनाव'। चुनावों को समय पर कराने के पीछे भी उनकी सत्ता की निरंतरता की चाह ज़्यादा थी, लोकतंत्र की निरंतरता नहीं! ऐतिहासिक तौर पर भारतीय कॉमन मैन के 'अपर स्ट्राटा' की चुनावों में भागीदारी लगभग न के बराबर है, क्योंकि उसका यक़ीन है कि वह धनबल से सत्ता की बांह मरोड़ सकता है। उदार और अल्पसंख्यक भारतीय 'इंटेलीजेंशिया' को भरोसा रहा है कि कोई भी सत्ता हो, ज्ञान का उसका कारोबार चलता रहेगा। इसके बाद जो बचता है और असल में वही है जो चुनाव की बाट जोहता है- बहुसंख्य कॉमन मैन।
2014 के बाद आए बीजेपी नेतृत्व ने तय किया कि ऊपर के पायदान पर बैठे लोगों को ख़रीद लिया जाए। अब बचा इंटेलीजेंशिया जिससे निपटना था, मोदी सरकार ने उस पर चौतरफ़ा हमला बोला और उनसे राजनीतिक दुश्मनों की तरह सुलूक किया। इंटेलीजेंशिया के लोगों की गिरफ़्तारियां, उनकी फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच पर पाबंदियां, यूनिवर्सिटी या शिक्षण संस्थानों पर निगरानी और उन्हें तोड़ने-बदलने जैसी घटनाएं इसका प्रमाण हैं। अब बहुसंख्य वोटर या आम जन भारत के चापलूस मीडिया, कॉर्पोरेट, सरकारी संस्थानों, एनफ़ोर्समेंट और अदालतों आदि में बैठकर उसे सरकार के निर्देशानुसार चला रहा है।
आज़ादी के बाद उदारवादी और लोकतंत्र में दीक्षित अल्पसंख्य नेतृत्व जानता था कि भारत में लोकतंत्र को आम आदमी के कंधों पर नहीं छोड़ा जा सकता। लिहाजा उन्होंने व्यवस्था की कि अगर आम जन उसे कलंकित भी करने की कोशिश करे तो भी लोकतंत्र ज़िंदा रहे। लोकतंत्र को सुरक्षित और सफल रखने के लिए उन्होंने ऐसे मज़बूत लोकतांत्रिक संस्थानों को जन्म दिया जो संवैधानिक ढांचे का अभिन्न अंग थे और वही आम जन की भलाई की सबसे बड़ी गारंटी भी थे। इधर वो संस्थाएं भी कमजोर कर दी गई।
यह नेताओं की योग्यता, कुटिलता और विवेक पर निर्भर था कि वो भारतीय कॉमन मैन का कितना और कैसा दोहन करें। 2014 से पहले तक अमूमन नेता एक प्रॉक्सी लोकतंत्र गढ़कर अपनी मनमर्ज़ी चलाते रहे और असली लोकतांत्रिक संस्थाओं को ज़िंदा रहने की अनुमति दी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस प्रॉक्सी लोकतंत्र को ही लोकतंत्र घोषित कर दिया है।
चुनावों के ज़रिए सत्ता में आने वाले नेतृत्व ने कमोबेश यह ज़िम्मेदारी निभाई कि वो 'प्लूरेलिटी' और 'इन्क्लूसिविटी' की समर्थक लोकतांत्रिक संस्थाओं के साए तले अपनी सत्ता चलाएं। 2014 में जिस सरकार ने सत्ता संभाली, उसे पता था कि भारतीय लोकतंत्र की जान इन तोतों में ही बसती है और उसे वो अल्पसंख्यक उदारवादी बिल्कुल पसंद नहीं थे, जिन्होंने इन संस्थाओं के ज़रिए भारत में लोकतंत्र की उत्तरजीविता सुनिश्चित की थी। उसका विश्वास केवल इकहरे बहुसंख्य हिंदूवादी ढांचे में है, फिर चाहे इसके लिए अल्पसंख्य समाजों को पूरी तरह खारिज ही क्यों न करना पड़े। मोदी सरकार इस काम में इसलिए भी समर्थ है, क्योंकि वह अभूतपूर्व बहुसंख्य बहुमत के साथ सत्ता में आई है और किसी भी तरह के अल्पसंख्य असंतोष का दमन करने में सक्षम है। ...और वो असल में यही कर रही है। वह बहुसंख्य हिंदू कॉमन मैन को अल्पसंख्य समाजों के ख़िलाफ़ लगभग पूरी तरह लामबंद करने में कामयाब रही।
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संवैधानिक स्तर पर मोदी सरकार ने पहले योजना आयोग से शुरुआत की। फिर पिछले सात साल में एक-एक करके लोकतंत्र के हर स्तंभ की जडें इतनी कमज़ोर कर दी गई कि लोकतंत्र का ढांचा आराम से एक धक्के में गिराया जा सके। ..और वह आख़िरी धक्का क्या है? वह है- संविधान में परिवर्तन!
नरेंद्र मोदी की सरकार वर्ण व्यवस्था के तीन सवर्ण पायों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) पर खड़ी बहुसंख्य, हिंदुत्ववादी और प्रतिगामी सोच वाली परंपरावादी रूढ़ सत्ता है। जिसका भरोसा उन पुस्तकों में है, जो स्मृतियों, पुराणों पर आधारित जीवन को आदर्श जीवन मानती हैं। इस सत्ता का वैचारिक सत्व उपनिषदों के दर्शन से नहीं आता। इस मामले में भी वह सेलेक्टिव है। उसे सब कुछ भारतीय मंज़ूर नहीं। स्मृतियां और पुराण ‘महान स्वर्ण युग’ का भरोसा दिलाते हैं, और यह नैरेटिव मोदी सरकार को अपनी प्रासंगिकता के लिए सूट करता है।
भारत के कॉमन मैन ने न केवल एक बार बल्कि दो-दो बार पूर्ण और अभूतपूर्व बहुमत के साथ मोदी सरकार में भरोसा जताया और इस तरह उसे भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं को अंदर से तोड़ने और बदलने की छूट दी। चूंकि लोकतंत्र के प्रति बहुसंख्य कॉमन मैन बेपरवाह है और भारत के लोकतांत्रिक संस्थान इस बहुसंख्य रूढ़िवादी हिंदू आम जन के भरोसे नहीं हैं, इसलिए लगभग निरंकुश सत्ता होकर भी मोदी सरकार अपने मक़सद में नाकाम रही है। मोदी सरकार बहुसंख्य रूढ़िवादी हिंदू कॉमन मैन में से कुछ को इन संस्थानों की सर्वोच्च कुर्सियां देने में सफल ज़रूर रही, जिन्होंने तालिबान की तरह इन संस्थानों के चरित्र पर हथौड़े चलाए, पर इससे ज़्यादा वो कुछ नहीं कर पाये।
भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं का चेहरा तो बदला है, पर उसकी मांस-मज्जा का मूलभूत चरित्र वही है। उनके चरित्र में बदलाव के लिए कुछ बेहद क्रांतिकारी करने की ज़रूरत होगी। भारत के आम जन के चरित्र की एक और बुनियादी और ऐतिहासिक ख़ासियत रही है- किसी भी दबाव, हालात, पीड़ा को चापलूसी भरे ढंग से क़ुबूल कर लेना। फिर चाहे विदेशी आक्रमण हुये हों, महामारियां हों, ब्रितानी सत्ता के कमरतोड़ और निर्मम अत्याचार हों, आज़ाद भारत में हुए युद्ध हों, नसबंदी जैसे सत्ता के फ़रमान हों, इमरजेंसी के काले महीने हों या फिर कुछ और वो कुबूल करते हुये ही अपना इतिहास लिखते रहे।
भारत का बहुसंख्य आम जन इन हालात के ख़िलाफ मज़बूती से खड़ा नहीं हुआ। न तो इस बहुसंख्य, रूढ़िवादी हिंदू कॉमन मैन ने कभी ख़ुद आंदोलन किए हैं या सत्ताएं पलटने में दिलचस्पी दिखाई है, न वह स्वभाव से विद्रोही है। अगर सिर पर ही आ पड़े तो वह सिर्फ़ लीपापोती की अप्रोच रखता रहा है। इसके उलट इसी कॉमन मैन ने कुछ ऐसे आंदोलनों में हिस्सा लिया है, जो उसकी प्लूरलिटी विरोधी सांप्रदायिक संकीर्णता को दिखाता है, मसलन आरक्षण के विरोध में आंदोलन। उसकी दिलचस्पी हमेशा उन आंदोलनों में रही है, जो उसे उसके पौराणिक ‘महान स्वर्ण युग’ में ले जाने का वायदा करते हैं, मसलन राम मंदिर आंदोलन। ‘महान स्वर्ण युग’ का लॉलीपॉप थमाकर भारतीय कॉमन मैन की स्वत: स्फूर्ति का कमाल कई दफा दिख चुका है।
किसी भी तरह के सामाजिक समावेश (जैसे दलित, महिला और समलैंगिक) और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने वाले आंदोलन (जैसे मूलभूत सुविधाएं, इन्फ्रास्ट्रक्चर या पर्यावरण आंदोलन) में भागीदारी न करने का एक प्रत्यक्ष लाभ तो इस बहुसंख्य रूढ़िवादी हिंदू कॉमन मैन को यह हुआ है कि उसका सामाजिक ईक्वीलिब्रियम (संतुलन) बना रहा। दूसरे, तमाम चोटों और नुक़सान के बावजूद इस रवैये ने किसी ऐसी लहर को जन्म नहीं दिया, जो उसके भविष्य पर असर डाल पाती। यह बहुसंख्य रूढ़िवादी हिंदू कॉमन मैन हर नुक़सान सहकर भी अपने 'ईक्वीलिब्रियम' में लौटना चाहता है। इसकी वजह है, बहुसंख्य रूढ़िवादी हिंदू कॉमन मैन की अपनी जेनेरेशनल (पीढ़ीगत) निरंतरता बनाए रखने में दिलचस्पी, जिसका पुराण और स्मृतियां समर्थन करते हैं।
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दो बार से भारत पर शासन कर रही सत्ता ने इस मन:स्थिति का भी भरपूर लाभ उठाया। नतीजतन बहुसंख्य अनुदारवादी हिंदू कॉमन मैन का चरित्र उघड़कर सामने आ गया। पहले दूसरी सत्ताएं इस कॉमन मैन की इस मन:स्थिति को सीधे अपील नहीं करती थीं, तो वह दबा-ढंका रहता था या सुषुप्तावस्था में रहता था। इसके बावजूद यह बहुसंख्य कॉमन मैन शर्मसार नहीं, क्योंकि सत्ता उसके चरित्र का महिमामंडन करती है। अनजाने ही सही पर कोरोना वायरस ने मोदी सरकार के सत्ता चरित्र को गंभीर चुनौती दी है, जिसका कारण है अपनी अदूरदर्शी और अवैज्ञानिक सोच के चलते वायरस की अनदेखी।
इसे सिर्फ़ बेख़बरी और असावधानी नहीं कह सकते, बल्कि सत्ता की अवैज्ञानिक और रूढ़िवादी समझ ने जानबूझकर भारतीय कॉमन मैन को तबाही (चुनावी रैलियों, कुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों, पंचायत चुनावों) की ओर धकेला, जिन्होंने वायरस के प्रसार में मदद की। वो भूल गये या उन्हें सत्ता ने भुला दिया कि वायरस को पलने के लिए सिर्फ़ एक अदद जिस्म चाहिए। उसकी नज़र में अमीर और ग़रीब का कोई फ़र्क नहीं। आम बहुसंख्य भारतीय इस बार भी वही पुरानी परीक्षा दे रहा है, जो वह हमेशा से हर संकट के दौरान देता रहा है- 'किसी भी हालात को ख़ामोशी से क़ुबूल कर लेना, अपनी दुर्दशा को अपना भाग्य मानकर उसे स्वीकार करना और उस ईक्वीलिब्रियम को स्थापित करने की कोशिश करना, जिसका वह आदी है।
अब सत्ता पक्ष अपनी प्रचार मशीनरी झोंककर पूरी तरह से नेस्तनाबूद विपक्ष के बरअक्स इसी का लाभ लेकर एक काल्पनिक विपक्ष गढ़ रहा है, ताकि उसे इस वायरस के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सके, ताकि वह उस बहुसंख्य हिंदू आम जन का ग़ुस्सा शांत कर सके जिसने उसे दो बार अभूतपूर्व वोट देकर कुर्सी पर विराजमान कराया। शायद हमेशा की तरह इस बार भी सत्ता अपनी कुटिल योजना में सफल रहेगी। भारतीय कॉमन मैन सत्ता से नाराज़ तो है, पर इतना भी नहीं कि वह अपने उस बड़े सपने (हिंदू राष्ट्र और रामराज्य) को बिसरा दे, जो मोदी के नेतृत्व ने उसे दिखाया है।
इस बहुसंख्य कॉमन मैन का निजी तौर पर चाहे जो हो, वह मोदी को कहीं छोड़कर जाने वाला नहीं। वह सरकार से सपना ख़रीद चुका है और यह स्वप्न उसके निजी जीवन-मरण से कहीं ऊपर है। भारत के बहुसंख्य हिंदू कॉमन मैन को भरोसा है कि उसकी आने वाली पीढ़ियां हिंदू राष्ट्र का स्वप्न साकार होता देखने के लिए ज़िंदा रहेंगी। हिंदू पुराण और स्मृतियां जीवन की निरंतरता का ही तो उसे विश्वास दिलाते हैं! वैसे भी शरीर तो मिट्टी है, एक दिन मिट्टी में मिलना ही है... फिर क्यों मगजमारी करनी! कॉमन मैन घिसटते हुए उस सपने को जियेगा, लेकिन अपनी बेहतरी के लिये खड़ा उठेगा, मुझे इसकी दूर-दूर तक भी धुंधली तस्वीर नजर नहीं आती।
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