रनी ने दिल्ली के जामिया मीलिया इस्लामिया से 'जेंडर स्टडीज' में मास्टर्स किया है। रनी देश के भीतर भीतर मची हुई उथल-पुथल पर आ रही अलग-अलग रिपोर्ट्स को करीब से देख रहे हैं और लगातार अलग-अलग मुद्दों को लेकर 'हिलांश' की खिड़की पर हाजिर होते रहेंगे।
भारत के नागरिक इस वक्त कई चुनौतियों से इकट्ठे जूझ रहे हैं। एक के बाद एक भारत के सामने अभी आगे भी चुनौतियों की इतनी लंबी फेहरिस्त है, कि लगातार असफल साबित हो रही मोदी सरकार शायद ही इनसे पार पा सके। मोदी सरकार ने भारतीयों को भयानक संकट में डालने की जो नींव डालनी शुरू की थी, उसके परिणाम विस्फोटक रूप से अब सामने आने लगे हैं। कोढ़ पर खाज ये कि मोदी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड चुनौतियों से निपटने के मामले में बेहद खस्ताहाल और लचर नजर रहा है, लिहाजा ये संकट देश को किस अंधेरे गर्त में डालेंगे, इसकी भी कल्पना नहीं की जा सकती है।
इस वक्त जबकि भारत कोरोना महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा है, देश की पहले खस्ताहाल चल रही अर्थव्यस्था बुरी तरह से लड़खड़ा गई है। मौजूदा दशक में भारतीय अर्थव्यस्था ने अपनी सबसे कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की है। चरमराई अर्थव्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों पर असंगत रूप से प्रभाव डाला है और देश के अधिकांश उपभोक्ता और गरीब नागरिकों के सामने एक बड़ा आर्थिक संकट खड़ा कर दिया है।
विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर हाल ही में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि भारत में गरीबों की संख्या (प्रति दिन 2 डॉलर या उससे भी कम में जीवनयापन करने वाले लोग) महामारी के दौरान 6 करोड़ से बढ़कर 13 करोड़ 40 लाख हो गई है। इसके सीधे से मायने यह हुए कि पिछले एक साल में ही करीब 7 करोड़ नये गरीब भारत में साामने आये हैं। कोरोना महामारी के दौरान इस संख्या में दोगुने से भी ज्यादा बढ़त दर्ज की गई है, जो कि सरकार के आर्थिक मोर्चे और महामारी प्रबंधन में लगातार फेल होने का संकेत है।
पिछले एक साल में लोगों के हाथ से काम-धंधे तेजी से निकल गये हैं, नतीजतन बेरोजगारी अपने विस्फोटक दौर में प्रवेश कर गई है। आंकडों पर गौर करें तो भारत 45 साल बाद 'सामूहिक गरीबी का देश' यानी कि गरीब देश कहलाने की स्थिति में आ पहुंचा है। सरकार भले ही भारत में गरीबी के आंकडों को लेकर मुंह फेर रही हो, लेकिन ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज तैयार हो गइ है।
महामारी के बाद गांव लौटने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, तो शहरी क्षेत्रों में भी काम का संकट बढ़ा है। बेरोजगारी की दर बढ़ने से बाजार के हालत भी खराब हो गये हैं। खपत और खर्च में लगातार आ रही कमी ने अर्थव्यवस्था की हालत को बुरी तरह से पस्त कर दिया है। इधर विकास पर सार्वजनिक खर्च भी एकदम से स्थिर हो गया है, जिसने इस संकट को बढ़ाने का ही काम किया है।
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गांवों में रहने वाले भारतीय, जिनमें कि अधिकतर असंघठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर हैं, उनके हाथों में लंबे वक्त से काम ही नहीं है। खासकर, पिछले एक साल में भारत का असंगठित क्षेत्र जिस तेजी से कमजोर होता चला गया है, वो आगे बड़ी चुनौतियों का संकेत दे रहा है। बता दें कि भारत ने 1970 के दशक के बाद से गरीबी में गिरावट दर्ज करनी शुरू की थी। 70 के बाद वाले दशकों में भारत ने नागरिकों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने की योजनाओं पर काम करना शुरू किया था, नतीजतन एक बड़ी आबादी की जेब में पैसा आया था। खासकर 90 के दशक के बाद जब भारत ने अपना बाजार विदेशी पूंजी के लिये खोलना शुरू किया, उस वक्त मिडिल क्लास की संख्या में इजाफा हुआ था, लेकिन अब हालत फिर से तेजी से बदल रहे हैं।
गरीबों की संख्या में हो रही वृद्धि साफ इशारा करती है कि मिडिल क्लास के हाथ से तेजी से पैसा निकल रहा है और वो वापस गरीबी की गर्त की ओर मुड़ने लगा है।
भारत सरकार की ही रिपोर्ट कहती है कि आजादी के बाद पहले तीन दशकों तक गरीबी में वृद्धि हुई थी। ये 1951 से 1974 का दौर था, जब कुल जनसंख्या में गरीबों की आबादी 47 से बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई थी। इसके बाद की सरकारों ने गरीबी निवारण की योजनाओं पर काम करना शुरू किया और कुछ देर के लिये ही सही एक बड़ा तबका इससे बाहर निकलने में कामयाब रहा था। नतीजतन हाल के वर्षों में भारत गरीबी में कमी की उच्चतम दर वाला देश बनकर उभरा था।
वैश्विक बहुआयामी गरीबी (GBM) ने अपने सूचकांक में बताया था कि अकेले 2006 से 2016 तक ही भारत में 27 करोड़ 10 लाख लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल आये थे, लेकिन इसके बाद केन्द्र की मोदी सरकार के कार्यकाल में इस सुधार को तगड़ा झटका लगा और 2020 आते-आते इसके परिणाम भयानक रूप से सामने दिखने लगे। साल 2020 में भारत में सबसे अधिक वैश्विक गरीबी वृद्धि दर्ज की गई है, जो कि कहीं से भी सुकूनदायक खबर नहीं है। ये आंकड़े आगे आने वाले संकट की ओर भी इशारा कर रहे हैं।
चौंकाने वाली बात यह है कि भारत सरकार ने इस सबसे बेपरवाह होकर साल 2011 से ही गरीबों की गिनती के कोई आंकडे रिकॉर्ड में नहीं रखे हैं। 2020 में आई इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट 'आईएलओ मॉनीटर सेकेंड एडीशन: कोविड-19 एंड दि वर्ल्ड ऑफ वर्क' कहती है कि भारत में कोविड की पहली लहर और लॉकडाउन ने कुल 40 करोड़ लोगों को भयानक गरीबी में झोंक दिया। इसका मतलब था कि भारत में इन लोगों की आय 1 डॉलर से भी कम हो गई थी। ऐसे में देखें तो साल 2021 में यह संख्या भी काफी पीछे छूट सकती है। कारोबार को लगे लगातार झटकों से उद्यमियों की स्थिति भी गड़बड़ा गई है, जिससे नये रोजगार पैदा होना फिलवक्त मुश्किल है।
बता दें कि पिछले साल जब भारत में लॉकडाउन लगा था तब अप्रैल 2020 में बेरोजगारी दर अपने अधिकतम स्तर 23 फीसदी पर पहुंच गई थी। करीब 4 महीनों तक भारत में कारोबार की स्थितियां बेहद खराब रही थी। धीरे-धीरे लॉकडाउन हटने से इन स्थितियों में सुधार होना शुरू ही हुआ था कि कोरोनो की दूसरी लहर ने पहले से पस्त पड़ी हुई भारत की अर्थव्यवस्था को जमीन पर औंधे मुंह गिरा दिया।
विशेषज्ञ लगातार भारत की कमजोर पड़ती अर्थव्यवस्था को लेकर चेता रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड-19 की दूसरी लहर भारत की जीडीपी में गिरावट का काम कर रही है। खासकर ग्रामीण इलाकों में लोग अपनी बचत का बड़ा हिस्सा बढ़ते चिकित्सा बिलों पर खर्च कर रहे हैं, जिससे बाजार के और अधिक चरमराने के संकेत हैं। इसके अलावा, यदि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति बिगड़ती है, तब जून में खरीफ बुवाई के मौसम के दौरान श्रमिकों का संकट भी खड़ा हो सकता है। यह आपूर्ति की कमी और मूल्य वृद्धि को ट्रिगर कर सकता है और पहले से गिरती हुई ग्रामीण मजदूरी के साथ मिलकर ये कारण हड़कंप की स्थितियां पैदा कर सकते हैं।
रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत के कुल कार्यबल का 80% से अधिक हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, इसमें से एक तिहाई कैज़ुअल मजदूर हैं। अनुमान है कि महामारी के चलते शहरी क्षेत्र के लाखों लोग भी गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। प्यू सेंटर ने आंकड़ों के अध्ययन से बताया है कि मध्यम वर्ग भी एक तिहाई सिकुड़ कर रह गया है। कुल मिलाकर हर भौगालिक क्षेत्र के लाखों भारतीय या तो गरीब हो गए हैं, या गरीब हैं, या गरीब बनने की कगार पर आ पहुंचे हैं।
स्थितियां इतनी विकराल हो गई हैं कि कई हिस्सों में लोगों ने अपने खाने में तक कटौती कर ली है और सिर्फ उन्हीं चीजों पर व्यय कर रहे हैं, जो कि सस्ता है। इधर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी योजनाएं भी बेदम नजर आ रही हैं। ये योजना रोजगार की जितनी मांग है, उसकी पूर्ति करने में सक्षम ही नहीं हैं। ऐसे में बेरोजगारी का यह संकट आगे और कितना मुंह खोलेगा, अभी आंकलन करना मुश्किल है।
हाल ही में ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स ने भी साल 2021 के लिये भारत के जीडीपी विकासदर के पूर्वानुमान को संशोधित करते हुए 11.8 प्रतिशत से 10.2 प्रतिशत पर रहने की बात कही है। इसके पीछे वजह देश पर बढ़ते स्वास्थ्य बोझ, लड़खड़ाती वैक्सीनेशन दर और भारत सरकार की रणनीतिक कमजोरी को बताया गया है।
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बहरहाल, केन्द्र सरकार योजनाबद्ध ढंग से काम करती तो भारत को इस बड़े संकट में धकेलने से बचा जा सकता था, लेकिन सरकार केवल जुमलों में ही उलझी ज्यादा नजर आई। तमाम आंकड़े तेजी से भारत में बढ़ते गरीबों की संख्या की ओर ही इशारे कर रहे हैं। भारत जैसा मुल्क इस दबाव से कितने वक्त में बाहर निकल सकेगा, फिलवक्त यह कहना चुनौतीपूर्ण है। कुल मिलकार सीधे-सरल शब्दों में कहें तो भारत सरकार के कमजोर प्रबंधन का खामियाजा करोड़ों नागरिकों को भुगतने के लिये तैयार रहना चाहिये।
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