हिमांशु जोशी पत्रकारिता शोध छात्र हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।
पिछले कुछ वक्त से भारत में बोलना, सुनना और समझना संकट में ही घिरा हुआ ज्यादा नजर आ रहा है। साल 2017 में 'लंकेश पत्रिका' की एडिटर गौरी लंकेश की सिर्फ इसलिए गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, क्योंकि उनकी बातें दक्षिणपंथ के पैरोकारों को नागवार लग रही थी। ऐसा ही गोविंद पानसारे के साथ हुआ, क्योंकि वो दक्षिणपंथ के द्वारा फैलाए जा रहे अंधविश्वास को जोरदार ढंग से खारिज कर रहे थे और ऐसा ही स्टैन स्वामी के साथ भी हुआ, जिनकी पिछले दिनों जेल में ही लंबी बीमारी और ठीक उपचार न मिल पाने के चलते मौत हो गई थी। भारतीय फ़ोटो पत्रकार मरहूम दानिश सिद्दीकी को अफगानिस्तान में एक रिपोर्टिंग के दौरान बेरहमी से उस वक्त मार दिया गया, जब वह दुनिया को अफगानिस्तान का हाल बता रहे थे।
श्याम मीरा सिंह को सबसे तेज़ बताने वाले मीडिया हाउस 'इंडिया टुडे ग्रुप' ने पिछले दिनों सिर्फ इसलिए निकाल दिया क्योंकि श्याम ने बेहद तल्खी से प्रधानमंत्री की न केवल आलोचना की बल्कि अपने बयान पर कायम रहे। श्याम ने सोशल मीडिया पर 'लोकतांत्रिक देश' के प्रधानमंत्री के खिलाफ़ लिख मारा था। इस बीच खुलकर लिख-बोल रहे मीडिया घरानों पर पड़ रहे ताबड़तोड़ छापों की बात भी अब आम है। पत्रकारों की जासूसी भी इस संकट में एक नया अध्याय जोड़ चुकी है, तब ऐसे में भारत में पत्रकारिता का आज और कल संकट में ही ज्यादा नजर आता है। इस संकटकाल के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? जनता, सरकार या खुद पत्रकार... असल में इन तीनों से ही मिलकर मौजूदा पत्रकारिता शेप लेती है, जिसकी डोर उन कारोबारियों के हाथ में है, जिन्हें सिर्फ मुनाफा चाहिए।
डिबेट्स, जिनकी जरूरत सिर्फ नेताओं को है!
इधर जब देश में जनपक्षधर पत्रकारों की शामत आई हुई है, तब देश के बड़े-बड़े टीवी चैनल अलग-अलग धर्मों के खरीदे हुए लोगों को बुलाकर ऐसी डिबेट का आयोजन करवा रहे हैं, जो भारत हित में तो बिल्कुल भी उचित नहीं कही जा सकती। मुद्दों को धर्म की आड़ में छिपाकर सरकारों की नाकामी को असल में ढका जा रहा है और यह सब हम खुलेआम टीवी पर देखने के लिए अभिशप्त हैं। टीवी या फिर मुख्यधारा के अखबारों पर नजर डालें, तब पत्रकारिता जन का नहीं, बल्कि विशेष धर्म का पक्ष लेती हुई दिखती है। आपने कभी सुदर्शन न्यूज चैनल देखा है, जो खुलेआम हिंदुओं के नाम पर भड़काऊ प्रोग्राम्स परोसता है या फिर जी न्यूज! आपको यह सब ठीक लगता है, तब पत्रकारिता के स्तर का आंकलन करना ज्यादा आसान है! आप बारीकी से अपने टीवी कार्यक्रमों को देखेंगे, तब आपको साफ दिखने लगेगा कि असल में टीवी डिबेट्स किसके हित में हैं। वो कहीं से भी आम लोगों के हित में तो कतई नहीं हैं..
जिहादियों के खिलाफ लठ लेकर सड़क पर उतरे दिल्ली के हिंदू,
— Sudarshan News (@SudarshanNewsTV) June 20, 2021
किया जिहादियों के आर्थिक बहिष्कार का एलान
सुदर्शन लंबे समय से करता रहा है #दंगाइयों_का_आर्थिक_बहिष्कार का आह्वान pic.twitter.com/RWlfw08CJx
प्रोटेस्ट अंगेस्ट हेट
हाल ही में सुदर्शन न्यूज ने एक भड़काऊ खबर प्रकाशित की। ट्विटर पर इसकी हेडलाइन थी 'जिहादियों के खिलाफ लट्ठ लेकर सड़क पर उतरे दिल्ली के हिंदू, किया जिहादियों के आर्थिक बहिष्कार का एलान'। जंतर-मंतर पर ऐसी खबरों का तुरंत असर भी दिखता है और एक विशेष धर्म के खिलाफ़ नारे लगाते हुए कुछ गुंडे सड़कों पर उतर जाते हैं। मुख्य समाचार पत्रों और टीवी चैनलों से यह ख़बर गायब रहती है और खुद दिल्ली इससे अनजान है। दिल्ली के बाशिंदे इस नफरत के एजेंडे का ट्रेलर पिछले साल दिल्ली दंगों के दौरान देख चुके हैं। स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले पत्रकार श्याम मीरा सिंह ने दिल्ली में इस नफ़रत फैलाने वाले एजेंडे का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया, जिसमें उन्हें बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी साथ मिला। 'प्रोटेस्ट अंगेस्ट हेट' मुहिम इसी का नतीजा थी।
इस video में पता चल जाएगा आज जंतर मंतर पर क्या हुआ. दिल्ली पुलिस का क्या व्यवहार रहा.#Protest_against_Hate pic.twitter.com/tgUoFMsjpz
— Shyam Meera Singh (@ShyamMeeraSingh) August 10, 2021
कमी कहां रह गई!
लोकतंत्र को जिंदा रखने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। आप दुनिया के किसी भी खुशहाल देश की मीडिया के बारे में टटोलें, आप पाएंगे कि मीडिया उन मुल्कों में कितनी ताकतवर और जनपक्षधर है। भारत के मामले में कमज़ोर मीडिया के पीछे कमी लोकतंत्र की नीति बनाने वालों में नहीं, बल्कि कमी पत्रकारिता को बिजनेस घरानो के हाथों में सौंपने के साथ ही पैदा होती चली गई।
ठीक एक दशक पहले हम स्वर्ग की सीढ़ियां ढूंढ रहे थे, गणेश को दूध पिला रहे थे या फिर नागलोक के रहस्यों से पर्दा उठाने में मशगूल थे। ये वो दौर था, जब भारत की पत्रकारिता 'कबाड़' पैदा कर रही थी, न कि विचार। ठीक एक दशक बाद हमारा मुख्यधारा का मीडिया 'हिंदू खतरे में है' के स्लोगन तले रोज नफरत की आग उगल रहा है और एक ऐसी सरकार के कसीदे पढ़ने में मशगूल नजर आ रहा है, जो तकरीबन हर मोर्चे पर असफल है। इन्होंने सरकार को आलोचना से परे पूजा घरों में स्थापित कर दिया है। इसका नुकसान भारत लंबे वक्त तक उठाने जा रहा है? लेकिन भारतीय पत्रकारिता का 'आज' इस सबसे बेखबर बस तेी से उस रथ को दौड़ा रहा है, जो कभी भी खाई में गिर सकता है।
मीडिया मालिकों की मजबूरी या अथाह पैसों की भूख!
भारत की बदहाल हो चुकी पत्रकारिता के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए! उन सरकारों को जिन्होंने मीडिया को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया या उन मालिकों को जिन्हें जनपक्षधरता के बजाय बिजनेस सर्वोपरि दिखा। निसंदेह दोनों ही जिम्मेदार हैं। मीडिया हाउसेस के बीच एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिद्वंदिता और अथाह पैसों की हवस ने पूंजिपतियों के ताकतवर संस्थानों को जनता के खिलाफ ही खड़ा कर दिया है। अब वो जनता के सवाल नहीं, सरकार की कमियों को ढंकने में अग्रसर नजर आते हैं। वो उस उन्मादी विचार के साथ खड़े नजर आते हैं, जिसमें आम भारतीय सड़क पर छिला हुआ गिरा नजर आता है।
स्वतंत्र मीडिया की चुनौतियां
बड़े-बड़े कॉरपोरेट जब मीडिया बिजनेस में सरकार के साथ खड़े होकर करोड़ों-अरबों रुपयों के वारे-न्यारे कर रहे हैं, तब सैकड़ों समाचारों चैनलों और पत्रों के लिए खुद को जीवित रखना भी मुश्किल हो गया है। कोरोना ने स्वतंत्र मीडिया के सामने नए संकट पैदा कर दिए हैं। इध्बस बीच जार भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ है और निजी विज्ञापनों का कारोबार मंदा पड़ गया है। ऐसे में स्वतंत्र मीडिया या तो डोनशन पर चल रहे हैं या फिर वो भी धीरे-धीरे सरकार पर निर्भर होते जा रहे हैं। ऐसे में आप अनुमान लगाइए कि आपको मिलने वाली खबरें कैसी और किसके हित की होंगी!
जो दिखाया वह ही सच है!
हाल ही में मीराबाई चानू के सम्मान समारोह में मीराबाई से बड़ी तस्वीर प्रधानमंत्री की लगी नजर आती है। नीरज चोपड़ा से बातचीत करते हुए विजेता खिलाड़ी से ज्यादा प्रधानमंत्री ही बोलते हुए दिखते हैं। ओलंपिक का हर पदक मोदी के नए भारत के लिए किए गए 'प्रयासों' से आया है, ऐसा प्रचारित करने में सरकार उस वक्त नहीं हिचकती, जब उस पर सबसे ज्यादा गंभीर और संगीन आरोप लग रहे हैं। मानो व्यवस्थाओं के अभाव में भी पदक लाने वाले खिलाड़ियों का नाममात्र का ही योगदान है, बाकी सब मोदी का करिश्मा है! ऐसा क्यों है! हमारे आस-पास सिर्फ एक ही आदमी की छवि क्यों गढ़ी जा रही है?
असल में हम पीआर के दौर में जी रहे हैं और जैसा हमें परोसा जा रहा है, हम उसी के आधार पर अपनी धारणाएं तय कर रहे हैं... ऐसा लग रहा है कि इस बड़े से भीड़-भाड़ वाले मुल्क ने सालों पहले सोचना बंद कर दिया है और एक ऐसे शख्स के हाथों में अपना भविष्य सौंपकर सोने चला गया है, जो कपड़े बदलने और झूठ को दम भरकर सच बता देने से भी नहीं हिचकता। मसलन, रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी बेरोज़गारी का बढ़ना सरकार की नीतियों की वजह से नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोरोना से हुई मौतों के लिए भी सरकार जिम्मेदार नहीं है। हम झूठ सुनने के आदी अघाए भारतीय न जाने किस चमत्कार की उम्मीद में हैं!
साम्प्रदायिक बातें जो अब राष्ट्रवादी हो गई
मीडिया की एक थ्योरी है, जिसे हम 'कल्टीवेशन थ्योरी' कहते हैं। इसमें जो लोगों को दिखाया जाता है, वह उसे ही सच मानने लगते हैं। मुझे अलग-अलग धर्मों के अपने दो दोस्त याद आते हैं, दोनों पिछले कुछ समय से एक-दूसरे धर्मों के प्रति नफ़रत भरे पोस्ट करने लगे, मेरे उनकी इस नफरत का कारण पूछने पर दोनों के एक ही जवाब थे, यूट्यूब पर देखे गई वीडियो। जो चीजें पहले सिर्फ सोशल मीडिया पर थी, अब उतनी ही खतरनाक चीजें टीवी के जरिए आम हो गई हैं। ये खतरनाक बात ही है कि हमने सुदर्शन और जी न्यूज जैसे चैनलों को स्वीकार किया हुआ है। वो आराम से अपना कारोबार कर रहे हैं, जबकि इसके नतीजे भयावह हैं।
कहां खड़े हैं हम
सूचना की स्वतंत्रता के लिए रक्षक पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय एनजीओ 'रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर' के अनुसार वर्ष 2021 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की 180 देशों के लिस्ट में छोटा सा मुल्क नॉर्वे पहले नंबर पर है, तो 'विश्वगुरू' भारत का नंबर यहां 142 है।
मीडिया से असली मुद्दे नदारद
असल में होना यह चाहिए था कि जब पाठक अपनी समस्याओं के लिए मीडिया का मुंह ताकें तब बिकी हुई मीडिया न मिले। टूटी सड़कों, बेरोजगारी, अक्सर गायब रहने वाली बिजली के मुद्दे मीडिया मजबूती के साथ उठाए, पर हो क्या रहा है! मुद्दों के बजाय मुख्यधारा की मीडिया राजनीतिक पार्टियों के प्रचार से पटी हुई है। बेरोज़गारी जैसे आंकड़े बाहर न आएं इस डर से 'वित्त मंत्रालय' ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों को बगैर अप्वाइंटमेंट के अंदर आने से मना कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि इसका कोई खास विरोध भी नहीं हुआ है।
बहुत से बड़े अखबार असल मुद्दों को छापने से कतराने लगे हैं। गिने-चुने वेब पोर्टल्स और अख़बारों को छोड़ दें तो एक बड़ी मशीनरी सरकार के सामने नतमस्तक नजर आती है। समाचारों के नाम पर उन मसलों को बड़ा बना दिया जाता है, जिनका महत्व ही नहीं है। रिया चक्रवर्ती का केस हो या फिर कोरोना के शुरुआती दौर में मुस्लिमों को निशाना बनाने की घटनाएं, भारत का मीडिया बेशर्म ही ज्यादा नजर आया है।
फेक न्यूज़ है बड़ी समस्या
महान बनने की सनक ने तानाशाहों के हाथों इस दुनिया में कई दफा कत्लेआम मचाया है। किसी खास कौम या धर्म के नाम पर कत्लेआम का इतिहास हमारे सामने है, बावजूद इसके बार-बार दुनिया उसी दोराहे पर खड़ी नजर आती है। ..और तानाशाह इसके लिए क्या करते हैं? वो झूठी अफवाहें उड़वाते हैं.. ऐसी सूचनाओं को फैलने देते हैं, जो उनके कामों से जनता का ध्यान हटा दें और जनता ऐसे मुद्दों पर लड़-खपे, जिनका खुशहाली के लिए कोई महत्व नहीं। ऐसा ही हिटलर भी अपने प्रचार मंत्री गोएबल्स के साथ मिलकर कर चुका है। गोएबल्स ने झूठी खबरों का ऐसा संसार बुना कि नाजी अपने सोचने-समझने की क्ष्मता तक भुला बैठे और हिटलर की महत्वकांक्षा को पूरा करने में जुट गए। एक सनकी नेता की सोच ने लाखों यहूदियों पर कहर ढा दिया था। भारत में फिलहाल यही काम सुदर्शन न्यूज जैसे चैनल खुलेआम कर रहे हैं। नस्लवाद हो या फिर रंगभेद सब एक ही सोच का परिणाम होते हैं, और वह है खुद के महान होने की सनक।
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से बहती अज्ञान की गंगा!
टीवी बहसों या फिर व्हाट्सएप पर इतिहास का ज्ञान बांचना अब आम है। ऐसी-ऐसी सूचनाएं तैर रही हैं, जिनका न सिर है न पैर। तथ्यों को तो भूल ही जाइए, मुद्दों को भी हिंदू-मुस्लिम बना दिया गया है। इस व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में क्या कुछ नहीं बिक रहा है! वहां कोरोना का हर सम्भव इलाज है, तो नेहरू-गांधी क्यों बुरे थे, इसका भी प्रचार पिछले कई सालों से बदस्तूर जारी है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में नीतियों की चर्चा नहीं होती, क्योंकि उससे तो मौजूदा सरकार आगे ही नहीं निकल पाएगी, लिहाजा वहां चरित्र पर बात होती है। इंदिरा के नाम के आगे नेहरू क्यों नहीं लगता, इस साजिश का खुलासा होता है।
व्हाट्सएप यूनिवर्सटी की प्रचार सामग्री में कोई ये नहीं पूछता कि मौजूदा प्रधानमंत्री होने के नाते मोदी प्रेस कांन्फ्रेंस क्यों नहीं करते! वहां कोई ये नहीं पूछता कि मोदी के भारत में नौजवान-बेरोजगार आखिर करें तो करें क्या! वहां कोई ये नहीं पूछता कि आखिर उन किसानों का क्या दोष है, जिन्हें सुनने के बजाय सड़क पर बिठा दिया गया है! वहां कोई ये नहीं जानना चाहता कि मोदी की असफल कार्यशैली के चलते लाखों लोग बेवजह कोरोना काल में मारे गए! क्या ये एक अच्छे लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के काम ऐसे ही होने चाहिए? असल में सूचना के आदान-प्रदान का सबसे निजी माध्यम भी अब राजनीतिक हथियार की तरह काम में लाया जा रहा है, जिसके आगे यह सोचने की कोई जहमत नहीं उठा रहा कि हम अपने इतिहास को झुठला कर अपने वर्तमान को स्याह कर रहे हैं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने भारतीयों को इंदिरा के प्रेम किस्से, इंदिरा के 'बेवकूफ' नाती की कहानियों से भी आगे ले जाकर 60 साल पीछे जाकर नेहरू की सिगरेट और महिलाओं के साथ खुशदिल तस्वीरों तक उलझाकर रख दिया है। ये कितना भयावह है न...
जेल का भय
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के खिलाफ़ लिखने भर से ही लोगों को जेल में डाल दिया गया है। क्या सामाजिक कार्यकर्ता, क्या पत्रकार और क्या छात्र... जहां सरकार का विरोध बढ़ रहा है, आवाज उठाने वालों की चौखट पर पुलिस मंडराना शुरू कर दे रही है। झूठे मुकदमें लादकर आवाज उठाने वालों को ही अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है। पत्रकारिता की स्वतंत्रता और पत्रकारों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था 'कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट' की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1992-2021 के बीच भारत के 53 पत्रकारों की जान गई और वर्ष 2020 में ही चार पत्रकारों को जेल डाल दिया गया था।
...और अंत में
मीडिया की दुरुस्ती के लिए जरूरी है कि जनता अपने मीडिया का चुनाव खुद करे, न कि सरकार प्रायोजित मीडिया घरानों से उम्मीद पाले। सामान्य सी बात है कि किसी उद्योगपति का न्यूज चैनल बस्तर में बैठे हुए किसी आदिवासी का भला क्यों सोचेगा, इसके बजाय वो आपको बताएगा कि कैसे उस आदिवासी को वहां से उजाड़कर सरकार खदान का रास्ता साफ कर सकती है। बहरहाल, भारतीय मीडिया की मौजूदा दशा को देखकर तो यही लगता है कि आजादी की अभी एक लंबी लड़ाई लड़ी जानी बाकी है।
Leave your comment