इस दौर में जबकि हम राजा को खुश करने के लिये मातहतों का सामूहिक 'चारणगान', 'स्तुति' और प्रपंच से गुजर रहे हैं, राजा की आंख का सितारा बनने को बेताब देश के संतरियों के प्रोपेगेंडा की कहानियों को ही देश की तरक्की का पैमाना मान बैठे हैं, तब हल्का सा विरोध का स्वर भी लोकतंत्र के जिंदा होने का अहसास करवा जाता है। ऐसे विरोध के स्वर ही हैं, जो दुनिया पर यकीन बनाये रखने को कहते हैं। अब देखिये न कितनी बड़ी विडंबना है कि एक के बाद एक स्टेट के द्वारा विलेन बना दिये गये नागरिक कई हफ्ते और महीनों जेल में गुजारने के बाद बाइज्जत बरी हो रहे हैं, लेकिन यह सवाल गायब है कि ऐसा क्यों हो रहा है!
ये वो नागरिक हैं, जिन्हें मुल्क के लिये आतंकियों सरीखा खतरनाक बताया गया। हाल ही में रिहा किये गये अखिल गोगोई या फिर नताशा नरवाल या आसिफ तन्हा या सिर्फ देवांगना कलीता की ही बात नहीं है, यहां बात इन्हीं की तरह आरोपों में घिरे उन नागरिकों की भी है, जो अब भी जेलों में बंद हैं। अखिल के मामले में अब जबकि उन पर लगे आरोप तथ्यहीन निकले हैं, तब यह सवाल तो उठेंगे ही कि आखिर सत्ता किस तरह के भारत के निर्माण में जुटी हुई है।इन नागरिकों को बेवजह यूं ही निशाना न बनाया जाता, तब ऐसे नागरिक मुल्क के लिये शायद कुछ न कुछ बेहतर ही कर रहे होते। कम से कम ये नागरिक अपने आस-पास एक ऐसा समाज तो तैयार कर ही रहे होते, जो विरोध करने में न हिचके! जो जरूरी भी है.. लेकिन यह भी महज ख्यालभर ही है, असल में तो सरकार विरोध सुनने को राजी ही नहीं है।
ऐसा लगता है जैसे राजा को हरदम खुद को आलोचनाओं से बेपरवाह साबित करने की पड़ी रहती हो और उसके चाटुकारों को राजा को सबसे बेहतर बताने की सनक! शायद ऐसी ही परिस्थिति को देखकर बीते 28 जून को अभिनेता और फिल्म निर्माता कमल हासन ने ट्विटर पर कहा था कि लोगों को ‘आजादी और स्वतंत्रता’ के लिए आवाज उठानी चाहिए।
कमल हासन ने लिखा- ‘सिनेमा, मीडिया और साहित्यकार भारत के तीन प्रतिष्ठित बंदर होने का जोखिम नहीं उठा सकते. लोकतंत्र को चोट पहुंचाने और कमजोर करने के प्रयासों के खिलाफ एकमात्र दवा है, बुराई को देखना, सुनना और उसके खिलाफ बोलना।’ अब यही बात जब नागरिक वास्तविक जीवन में करते दिख रहे हैं, तब सरकार ही उनकी सबसे बड़ी दुश्मन बनकर खड़ी हो जा रही है। सारी ताकत इस बात को कुचलने में लगा दी जा रही है कि नागरिक सच ही न बोलने पाये, कोई विरोध ही ना रह जाये। कम से कम अखिल गोगोई के मामले को देखकर तो यही कहा जा सकता है।
अखिल गोगोई के मसले को एक वक्त के लिये राजनीतिक मानकर छोड़ भी दिया जाए, तब भी ऐसे सैकड़ों मामले इस वक्त ऐसे दिख रहे हैं, जहां सरकार विरोध के स्वरों को कुचलने के लिये आमादा नजर आ रही है। फिल्म जगत के एक बड़े वर्ग का भी हाल इन दिनों ऐसा ही है, मानों कह रहे हों- 'अब कहें तो कहें क्या...!'
असल में कमल हासन ने जिस खतरे की ओर इशारा किया था, वह कई फिल्मकारों को साक्षात दिखने लगा है। देश के कई जाने-माने फिल्मकारों ने एक अधिनियम में संसोधन को लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक असहमति के खतरे में पड़ने की आशंका जताई है। फिल्मकार विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, वेत्री मारन, फरहान अख्तर, शबाना आज़मी, मीरा नायर, हंसल मेहता, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, रोहिणी हट्टंगड़ी और पा रंजीत जैसी हस्तियों के हस्ताक्षर वाले एक पत्र में कहा गया है कि सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में संशोधन का सरकार का प्रस्ताव फिल्म बिरादरी के लिए एक और झटका है और इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक असहमति के खतरे में पड़ने की आशंका है। तीन हजार से अधिक हस्ताक्षरों वाले इस पत्र को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भेजा गया है। मंत्रालय ने आम लोगों को दो जुलाई तक मसौदा विधेयक पर अपने सुझाव देने के लिए कहा था।
केंद्र ने 18 जून को सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक 2021 के मसौदे पर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित की थीं, जिसमें फिल्म पायरेसी (चोरी) पर जेल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। इसके अलावा इसमें आयु आधारित प्रमाण पत्र दिए जाने और पहले से प्रमाणित फिल्म को शिकायतों की प्राप्ति के बाद पुन: प्रमाणन का आदेश देने के संबंध में केंद्र सरकार को सशक्त बनाने का प्रावधान है। प्रस्तावित बदलावों में फिल्मों को ‘अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शन’ की श्रेणी में प्रमाणित करने से संबंधित प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव है, ताकि मौजूदा ‘यू/ए’ श्रेणी को आयु के आधार पर और श्रेणियों में विभाजित किया जा सके।
अब जो पत्र देश के नामी फिल्ममेकर्स की ओर से भेजा गया है, उसमें कहा गया है कि प्रस्तावित संशोधन फिल्म निर्माताओं को सरकार के समक्ष शक्तिहीन कर देगा। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में नए संशोधनों का प्रस्ताव पेश कर फिल्म बिरादरी को एक और झटका दिया है। इसके तहत केंद्र सरकार के पास उन फिल्मों के प्रमाणीकरण को रद्द करने या वापस लेने की शक्ति होगी, जिन्हें सेंसर बोर्ड द्वारा पहले ही मंजूरी दी जा चुकी हो।
पत्र के अनुसार, ‘यह प्रावधान सेंसर बोर्ड और उच्चतम न्यायालय की संप्रभुता को कम करके देश में सिनेमा पर केंद्र सरकार को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करेगा, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक असहमति खतरे में पड़ने की आशंका है।’ इस बीच शुक्रवार को जाने माने फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने कहा कि सरकार की फिल्म प्रमाणन में कोई भूमिका नहीं है और सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में संशोधन के केंद्र के प्रस्ताव पर फिल्मकारों की चिंता ‘स्वाभाविक’ है।
पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में हिंदी के साथ-साथ मलयालम, तमिल, कन्नड़, असमिया और बंगाली सिनेमा के प्रमुख नाम भी शामिल हैं। इनमें राजीव रवि, वेणु, लिजो जोस पेलिमेरी, बालाजी थरनीथरन, त्यागराजन कुमारराजा, फौजिया फातिमा, जयतीर्थ बीवी, सुप्रियो सेन, सुमन मुखोपाध्याय और भास्कर हजारिका शामिल हैं। एकतारा कलेक्टिव और वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (डब्ल्यूसीसी) जैसे फिल्म संगठनों ने भी पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं।
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पत्र का खाका तैयार करने वालों में शामिल फिल्मकार प्रतीक वत्स ने कहा- ‘आप संस्थागत निकाय सीबीएफसी में विश्वास कम कर रहे हैं. फिल्म बिरादरी के लिए अपनी चिंताओं को उठाना और अपने सुझाव रखना महत्वपूर्ण है।’ बहरहाल सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव केंद्र द्वारा अप्रैल 2021 में फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण को भंग करने के दो महीने बाद आया है।
पत्र के अनुसार, फिल्म निर्माताओं ने यह भी मांग की है न्यायाधिकरण को फिर से बहाल किया जाए, क्योंकि यह फिल्म निर्माताओं के लिए सस्ती और सुलभ उपाय देता है। अब भला जब देश के नागरिक इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की 'प्रैक्टिस' करने के चलते जेलों में पहुंचा दिये गये हैं, तब इस संसोधन को लेकर सरकार कितनी गंभीरता से सोचती है, यह भी देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल तो भारत एक अघोषित पाबंदियों और कानूनों के दुरुपयोग करने वाला मुल्क ही ज्यादा नजर आ रहा है।
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