हैजा, प्लेग और इन्फ्लुएंजा में डूबी काली रातें, सन्नाटा और मौत

महामारियों का साहित्य हैजा, प्लेग और इन्फ्लुएंजा में डूबी काली रातें, सन्नाटा और मौत

अजय शर्मा

महामारियां आती हैं और लोग एक आध्यात्मिक सवाल पूछने लगते हैं- भगवान ऐसा कैसे कर सकता है? मगर इसका जवाब किसी के पास नहीं होता. तब साहित्य पूरी तरह वर्तमान पर सिमट आता है. लिखे गए लफ़्ज़ ख़ुद से साक्षात्कार की तरह लगने लगते हैं. बेबसी की थीम्स उभरती हैं. अवसाद और निराशा दर्ज होती चलती है. और निष्ठुर हक़ीक़त ज़िंदगी को जकड़ लेती है.

हिंदुस्तान में हैजा सबसे पहले आया. नॉर्वेजियन लेखक हैनरिक वर्जेलैंड ने इस महामारी को यूरोप ले जाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को. तब इसे एशियाटिक कॉलेरा कहा गया था. हैनरिक का नाटक द इंडियन कॉलेरा (डेन इंडिस्के कॉलेरा) शायद किसी भारतीय महामारी पर पहली साहित्यिक कृति है.

बहुत से भारतीय साहित्यकारों ने प्लेग, इन्फ़्लुएंजा और हैजे के हाथों अपने परिजन खोए. कुछ ने इसका ज़िक्र अपने लेखन में किया है.

1898 में बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (1876-1938) की पत्नी और बेटे की मौत प्लेग से हुई थी. शरतचंद्र ने अपने उपन्यास श्रीकांत (1917-33) में प्लेग से फैली दहशत का कई बार ज़िक्र किया है. उनके किरदार श्रीकांत के मुँह से ही क्वारंटीन शब्द भी निकलता है.

ऐसे ही समय हठात एक दिन प्लेग ने शहर के बीच आकर अपना घूँघट खोल दिया और अपना काला मुँह बाहर निकाला. हाय रे! उसे समुद्र-पार रोक रखने के लिए किये गये लक्ष कोटि जन्तर-मन्तर और अधिकारियों की अधिक से अधिक निष्ठुर सावधानी, सब मुहूर्त-भर में एकबारगी धूल में मिल गयी! लोगों में बेहद आतंक छा गया. शहर के चौदह आने लोग या तो नौकरपेशा थे या फिर व्यापार-पेशा. इस कारण, उनको एकबारगी दूर भाग जाने का भी सुभीता नहीं था. वही दशा हुई जैसी किसी सब ओर से रुद्ध कमरे के बीच आतिशबाजी की छछूँदर छोड़ देने पर होती है. भय के मारे इस महल्ले के लोग स्त्री-पुत्रों का हाथ पकड़े, छोटी-छोटी गठरियाँ कन्धों पर लादे उस महल्ले को भागते थे और उस महल्ले के लोग ठीक उसी तरह इस महल्ले को भागते आते थे. मुँह से 'चूहा' शब्द निकला नहीं कि फिर खैर नहीं. वह मरा है या जीता, यह सुनने के पहले ही लोग भागना शुरू कर देते. मालूम होता था लोगों के प्राण मानो वृक्ष के फलों की तरह पकड़कर डण्ठलों में झूल रहे हैं, प्लेग की हवा लगते ही रात-भर में उनमें से कौन कब  'टप' से नीचे टपक पड़ेगा, इसका कोई निश्चय ही नहीं.

श्रीकांत ही नहीं, शरतचंद्र की कहानियों और उपन्यासों में महामारियां ग्रामीण जीवन के नेपथ्य में ही कहीं छिपी रहती हैं. उनके कई किरदार जैसे पल्लीसमाज (1916) में रमेश, पंडितमासव में ब्रिंदाबन मानो परोपकार के लिए ही जन्मे हैं. ये चरित्र महामारी पीड़ित गांव वालों को उससे मुक्ति दिलाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं, चाहे इसमें उनकी अपनी ज़िंदगी ही दांव पर क्यों न हो.

शरतचंद्र के किरदार संक्रामक बीमारियों की वजह देवी-देवताओं को मानते हैं, जो लोगों पर प्लेग, चेचक और इन्फ़्लुएंज़ा का कहर बरपा रहे हैं. पर कोई ताज्जुब भी नहीं. कलकत्ता उन दिनों ब्रिटिश भारत की प्रशासनिक राजधानी थी. जब प्लेग फैली तो बंगाल के कुलीन वर्ग और ब्रिटिश परिवारों को सबसे पहले और बेहतर मेडिकल सेवाएं मिलीं. ग़रीब हमेशा की तरह आख़िरी छोर पर थे. उनका भरोसा भगवान ही था. इसलिए मरने वाले भी वही ज़्यादा थे.

रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1941) इस बात से वाकिफ़ थे. उनका एक उपन्यास है चतुरंग (1916). बेहद जटिल और पर्तदार. इसके चार प्रमुख किरदार हैं - सचीश, श्रीबिलाश, दामिनी और जगमोहन. उपन्यास 19वीं सदी के आख़िरी सालों की कहानी बयान करता है, जब 1898-99 में कलकत्ता में प्लेग फैली थी. सचीश के अंकल जगमोहन अपने घर को ग़रीब प्लेग रोगियों के इलाज के लिए अस्पताल में बदल देते हैं. मगर इलाज के दौरान ख़ुद इस बीमारी की चपेट में आकर मर जाते हैं.

उत्तर भारत के ग्रामीण अंचल के चितेरे फणीश्वरनाथ रेणु (1921-1977) ने 1944 में मलेरिया और हैजा से पीड़ित एक गांव की कहानी लिखी - पहलवान की ढोलक. बेबसी का रेखाचित्र है यह कहानी. बेहद उदास और हॉन्टिग. कहानी की पृष्ठभूमि 19वीं सदी के आख़िरी बरसों का भारत है.

पूर्वांचल के एक गांव में बेहद दिलदार और संवेदनशील पहलवान रहता है- लुट्टन सिंह. बचपन से ही शरीर से बलिष्ठ. एक दंगल के दौरान वह अपने प्रतिद्वंद्वी को हराकर ज़मींदार का दिल जीत लेता है. ज़मींदार उसे अपने यहां रख लेता है. मगर जिस दिन ज़मींदार की मृत्यु होती है, पहलवान के सिर से संरक्षण की छाया भी उठ जाती है. वह गांव लौटता है तो गांव वाले उसे अपना लेते हैं. मगर तभी गांव में हैजा फैल जाता है. एक तरफ़ हैजा रोज़ गांव के लोगों को लाशों में बदल रहा है, तो दूसरी ओर क्रूर समय को चुनौती देती पहलवान की ढोलक की थाप गांव वालों को ढाढस बंधाती है. ढोलक पहलवान के लिए शायद ताबीज़ की तरह थी. दंगल के दिनों में उसने उसकी थाप पर न जाने कितनों को चित किया था. तो क्या वह हैजे की शक्ल में आई मौत को चित कर सकता था?

रात्रि की विभीषिका को सिर्फ़ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी. पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गांव के अर्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी. बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आंखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था. स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी. अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश-गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आंख मूंदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे.

जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था-'बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ!''

'चटाक चट् धा,चटाक चट् धा...'-सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान. बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था-''मारो बहादुर!''

प्रात:काल उसने देखा- उसके दोनों बच्चे जमीन पर निस्पंद पड़े हैं. दोनों पेट के बल पड़े हुए थे. एक ने दांत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी. एक लंबी सांस लेकर पहलवान ने मुस्कराने की चेष्टा की थी-''दोनों बहादुर गिर पड़े!'' 

एक रात ढोलक की आवाज़ थम गई. गांव वालों को ताज्जुब हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है. मगर पहलवान को हैजा नहीं ले गया था.

भारत में ख़तरनाक महामारियों की श्रेणी में हैजा शायद तीसरे स्थान पर रहा- प्लेग और चेचक के बाद. बंगाल से शुरू हुआ हैजा 1820 तक पूरे भारत में फैल चुका था. 1817 से 1860 तक भारत में क़रीब डेढ़ करोड़ लोग हैजे से मरे जबकि 1865 से 1917 तक सवा दो करोड़ लोग और मारे गए.

उड़िया के मशहूर लेखक फ़कीर मोहन सेनापति (1843-1918) की कहानी रेबाती भी हैजे की पृष्ठभूमि पर है. रेबाती 10 साल की एक बच्ची की दास्तां है, जो पढ़ना चाहती है. वह भजन भी गाती है. रेबाती का पिता श्यामाबंधु बच्ची को पढ़ाना चाहता है और उसे गांव के स्कूल भेजने का फ़ैसला करता है पर श्यामाबंधु की मां ही उसके ख़िलाफ़ हो जाती है. तभी कटक से पढ़कर आया एक ग़रीब लड़का बासु रेबाती को पढ़ाना शुरू करता है. दोनों के बीच प्रेम के अंकुर फूटते हैं, पर इसी दौरान गांव में हैजा फैल जाता है. हैजे से रेबाती के माता-पिता की मौत हो जाती है और गांव का ज़मींदार परिवार की मदद से हाथ खींच लेता है. रेबाती की दादी लगातार उसे ताने देती है कि उसकी पढ़ाई की वजह से हैजे की गाज गिरी. अंतत: बासु भी हैजे की भेंट चढ़ जाता है और एक दिन रेबाती भी. सिर्फ़ दादी बचती है, अपने तानों के साथ.

सेनापति की कहानी दिखाती है कि कैसे औरतों के ख़िलाफ़ खड़ा समाज, महामारियों के लिए भी उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर कुटिलता से मौक़े का इस्तेमाल कर लेता है.

19वीं सदी के आख़िरी चार साल उत्तर भारत में लोगों के लिए बेहद मुश्किल भरे साल थे. उधर सदी बदल रही थी और इधर कई इलाक़ों में ब्यूबोनिक प्लेग महामारी की शक्ल में उतर आई थी. मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल इसी समय काल पर आधारित है. प्लेग के दौरान लोगों को घर छोड़ना पड़ता था. घर और उसके सामान में आग लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया जाता था ताकि प्लेग के कीटाणु न बचें.

कहानी इलाहाबाद के एक ज़मींदार की पत्नी के प्लेग की चपेट में आने की है, जिसे मरा हुआ जान वह नौकरों के हवाले छोड़ता है और बेटे के साथ दूसरे गांव चला जाता है. नौकरों को कुछ रुपए देकर वह पत्नी के दाह-संस्कार की ज़िम्मेदारी दे गया था. मगर नौकर दाह संस्कार के पैसे बचाने के लिए ज़मींदार की पत्नी को गंगा में बहा देते हैं. उसे होश आता है और वह बहती हुई उसी गांव पहुँच जाती है, जहां ज़मींदार बेटे के साथ रह रहा है. यहां गांव वाले और उसका पति उसे चुड़ैल समझ बैठते हैं.

ग्राम्‍य स्त्रियों ने दूर ही से घटना देखकर हाहाकार मचाया और कहने लगीं, "अरे, नवल जी को चुड़ैल ने पकड़ लिया! चलियो! दौड़ियो! बचाइयो! अरे, यह क्‍या अनर्थ हुआ! हम लोग क्‍या जानती थीं कि वह डाइन वाटिका में आ बैठी है. नहीं तो नवलजी को क्‍यों उधर जाने देतीं." इसी तरह सब दूर ही से कौआ-रोर मचा रही थीं, परंतु डर के मारे कोई निकट नहीं जाती थी. इतने ही में विभवसिंह और उनके साथ जो गाँव के आदमी टहलने गए थे, वापस आ गये. यह कोलाहल देखकर उनको बड़ा आश्‍चर्य हुआ. उस दासी के मुँह से वृत्तान्‍त सुनकर ठाकुर साहब ने कहा, "मुझे प्रेत योनि में तो विश्‍वास नहीं है। पर ईश्‍वर की अद्भुत माया है. शायद सच ही हो." यह कहकर और झट बँगले में से तमंचा लेकर वह उसी नारंगी के पेड़ की ओर झपटे, जहाँ नवलसिंह को चुड़ैल पकड़े हुए थी और गाँववाले भी लाठी ताने उसी ओर दौड़े. पिता को आते देखकर लड़के ने चाहा कि अपनी माता के हाथों से अपने को छुड़ाकर और दौड़कर अपने पिता से शुभ संदेश कहे, लेकिन उसकी माता उसे नहीं छोड़ती थी. ठाकुर साहब ने दूर ही से यह हाथापाई देखकर समझा कि अवश्‍य चुड़ैल उसे जोर से पकड़े है और ललकारकर कहा, "बेटा, घबराओ मत, मैं आया." जब पास पहुँचे, उन्‍होंने चाहा कि चुड़ैल को गोली मारकर गिरा दें, पर लड़के ने चिल्‍ला के कहा, "इन्‍हें मारो मत, मारो मत, माता है माता." ठाकुर साहब को उस घबराहट में लड़के की बात समझ में नहीं आयी और चूँकि वह पिस्‍तौल तान चुके थे, उन्‍होंने फायर कर ही दिया.

प्लेग के डर और शक की मन:स्थिति का उदाहरण है यह कहानी. ज़मींदार ही नहीं डॉक्टर ने भी प्लेग के डर से मरीज़ को पास जाकर देखने की ज़हमत नहीं उठाई और उसे मृत घोषित कर दिया.

सितंबर 1896 से मई 1897 के बीच बॉम्बे के म्यूनिसिपल हॉस्पिटल में प्लेग के मामलों में 61.5 फ़ीसदी की मृत्यु दर रिकॉर्ड की गई. ब्यूबोनिक प्लेग के दौरान अंग्रेज़ अफ़सरों ने लोगों को एक दूसरे से दूर रखने (सोशल डिस्टेंसिंग) और बीमारी का प्रसार रोकने के लिए क्वारंटीन शैल्टर बनाए थे. मगर लोगों में प्लेग के बजाय इनका ख़ौफ़ ज़्यादा था. 

राजिंदर सिंह बेदी (1915-1984) की कहानी क्वारंटीन असल में क्वारंटीन पर ही टिप्पणी है. कहानी का मुख्य पात्र डॉक्टर बख़्शी बताता है कि प्लेग से लोग इतने ख़ौफ़ज़दा नहीं थे जितने क्वारंटीन से. डर इतना ज़्यादा था कि हैल्थवर्कर्स भी मरीज़ों के पास नहीं जाते थे. ऐसे में एक दलित और नवदीक्षित ईसाई विलियम भागू प्लेग से बीमार लोगों की दिन रात सेवा करता है और मरने पर उनकी लाशें कंधे पर उठाकर क्रियाकर्म के लिए ले जाता है. कहानी उन ख़ौफ़नाक दिनों का दस्तावेज़ है, जब प्लेग से मरने वालों का एक ही अंतिम संस्कार था- पैट्रोल छिड़ककर लाशों को जला देना. इसी दौरान भागू उस शख़्स को लाशों के ढेर से निकाल लाता है, जो अभी ज़िंदा था.

“बाबूजी इससे ज़्यादा और क्या बात हो सकती है... आज एक मरीज़ जो बीमारी के ख़ौफ़ से बेहोश हो गया था, उसे मुर्दा समझ कर किसी ने लाशों के ढेरों में जा डाला. जब पेट्रोल छिड़का गया और आग ने सबको अपनी लपेट में ले लिया, तो मैंने उसे शोलों में हाथ पाँव मारते देखा. मैंने कूद कर उसे उठा लिया. बाबूजी! वो बहुत बुरी तरह झुलसा गया था… उसे बचाते हुए मेरा दायाँ बाज़ू बिल्कुल जल गया है.”

मैंने भागू का बाज़ू देखा. उस पर ज़र्द-ज़र्द चर्बी नज़र आ रही थी. मैं उसे देखते हुए लरज़ उठा. मैंने पूछा, “क्या वो आदमी बच गया है फिर...?”

“बाबूजी... वो कोई बहुत शरीफ़ आदमी था, जिसकी नेकी और शरीफ़ी (शराफ़त) से दुनिया कोई फ़ायदा न उठा सकी, इतने दर्द-ओ-कर्ब की हालत में उसने अपना झुलसा हुआ चेहरा ऊपर उठाया और अपनी मरियल सी निगाह मेरी निगाह में डालते हुए उसने मेरा शुक्रिया अदा किया.”

“और बाबूजी...” भागू ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा, “उसके कुछ अर्से बाद वो इतना तड़पा, इतना तड़पा कि आज तक मैंने किसी मरीज़ को इस तरह जान तोड़ते नहीं देखा होगा... उसके बाद वो मर गया. कितना अच्छा होता जो मैं उसे उसी वक़्त जल जाने देता. उसे बचाकर मैंने उसे मज़ीद दुख सहने के लिए ज़िंदा रखा और फिर वो बचा भी नहीं. अब उन ही जले हुए बाज़ुवों से मैं फिर उसे उसी ढेर में फेंक आया हूँ...”

इसके बाद भागू कुछ बोल न सका. दर्द की टीसों के दरमियान उसने रुकते-रुकते कहा, “आप जानते हैं... वो किस बीमारी... से मरा? प्लेग से नहीं... कोन्टीन से... कोन्टीन से!”

अस्तित्व के संकट से जूझते इंसान की कशमकश की तस्वीर है यह कहानी. धर्मों-जातियों में बुरी तरह बँटे और छूआछूत से जूझते भारतीय समाज में सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारंटीन के नियम लागू करवाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था. तब ब्रिटिश सरकार 1897 में एपिडेमिक डिसीज़ एक्ट लेकर आई, ताकि लोगों का इलाज कराने में आसानी हो. वही एक्ट आज भी लागू है.

प्लेग ने ही हिंदी के व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई (1924-1995) की माँ को उनसे छीन लिया था. तब परसाई आठवीं कक्षा में थे. साहित्यकार कमलेश्वर ने 'गर्दिश के दिन' नामक संग्रह में उनका संस्मरण छापा है. 1936-37 में कभी परसाई की मां प्लेग की चपेट में आ गई थीं. हालांकि उनके क़स्बे के लोग अपने घर-बार छोड़कर खुले स्थानों पर रहने चले गए थे पर उनके पिता और भाई बहन मां की वजह से गांव में ही टिके रहे.

भांय-भांय करते पूरे आसपास में हमारे घर ही चहल पहल थी. काली रातें. इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील. मुझे इन कदीलों से डर लगता था. कुत्ते तक बस्ती छोड़ गए थे. रात के सन्नाटे में हमारी आवाज़ें हमें ही डरावनी लगती थीं. रात को मरणासन्न मां के सामने हम लोग आरती गाते- जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट पल में दूर करे. गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, मां बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते. रोज़ का यह नियम था. फिर रात को पिताजी, चाचा और दो-एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते. ऐसे भयकारी, त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर मां की मृत्यु हो गई. कोलाहल और विलाप शुरू हो गया. कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गए और योगदान देने लगे.

पांच भाई-बहनों में मां की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था. प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं. जिस आतंक, निश्चय, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिए बहुत पता चाहिए. यह भी कि पिता के सिवा हम टूटे नहीं थे. वह टूट गए थे. वह इसके बाद भी 5-6 साल जिए, लेकिन लगातार बीमार, हताश निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुए. धंधा ठप्प. जमा पूंजी खाने लगे. मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी. समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं. बीमारी की हालत में उन्होंने एक बहन की शादी कर दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह. मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है. पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे.

इसी आत्मकथ्य में परसाई यह भी बताते हैं कि हालांकि मुश्किलें बहुत थीं. मगर उन्होंने बेफ़िक्री के साथ जीना सीख लिया था. ग़रीबी और उदासी से लड़ने के लिए उन्होंने नियम बनाया- ‘‘जो होना होगा, होगा, क्या होगा? ठीक ही होगा.’’

प्लेग की तरह ख़तरनाक एक और महामारी थी - इन्फ़्लुएंज़ा, जो 20वीं सदी की शुरुआत में आया और सवा से डेढ़ करोड़ लोगों की जान लेकर गई. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (1900-1967) की कहानी वीभत्स 1917-18 की इसी इन्फ़्लुएंज़ा महामारी के इर्दगिर्द लिखी गई. लोग इन्फ़्लुएंज़ा से मरे परिजनों के अंतिम संस्कार में घबराने लगे थे. ऐसी लाशों को ठिकाने लगाने के लिए मज़दूर ढूंढे जाते थे.

‘वीभत्स’ का किरदार सुमेरा बेहद कृपण और दबंग इंसान है. वह अंतिम संस्कार के लिए तैयार है, पर दोगुनी क़ीमत पर. पेशे से गाड़ीवान सुमेरा के लिए महामारी एक अवसर है, मोटी कमाई का. अपनी बीवी को बच्चे के साथ मायके भेज वह मुर्दे ढोना शुरू करता है. हर मुर्दे के एवज़ में वह दो रुपए लेता है. लगातार आठ दिन तक बैलगाड़ी पर मुर्दे ढो-ढोकर वह 97 रुपए कमा लेता है. उसे उम्मीद है कि वह जल्द ही 100 रुपए पूरे कर लेगा. मगर उसकी तक़दीर साथ नहीं देती.

तीन दिन बाद सुमेरा के घर से भयानक बदबू चारों ओर फैलने लगी. पास-पड़ोसियों का सांस लेना दुश्‍वार हो गया. लाचार उस दिन दो-एक पड़ोसियों ने पहले तो दरवाजे पर से उसे पुकारा, मगर कोई उत्तर न पा वे घर में घुस गए. उफ़! भीतर तो नारकीय दुर्गंध का राज्‍य था!

क्षण-भर बाद कपड़े से नाक दबाए, पड़ोसियों ने कोठरी में सुमेरा की फूली और सड़ी लाश देखी. उसका पेट तो भयानक फूलकर विदीर्ण हो गया था, अँतड़ियाँ बाहर झाँक रही थीं. दाहिना हाथ उसका कमर और थैली पर था, जिसमें मुर्दों की ढोआई के पच्‍चहत्तर और बाईस- कुल सत्तानबे रुपये थे.

सुमेरा के चरित्र के ज़रिए उग्र ने इंसानी लालच और महामारी के बीच संबंध को सामने रखा है.

हिंदी के मशहूर साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1896-1961) ने अपने मित्र कुल्ली भाट के नाम पर लिखे संस्मरण में इन्फ़्लुएंज़ा का ज़िक्र किया है, जिसने उनकी पत्नी की जान ले ली थी.

तार आया- 'तुम्हारी स्त्री सख़्त बीमार है, अंतिम मुलाकात के लिए आओ. मेरी उम्र तब बाईस साल थी. स्त्री का प्यार उसी समय मालूम दिया जब वह स्त्रीत्व छोड़ने को थी. अख़बारों से मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी. गंगा के किनारे आकर प्रत्यक्ष की. गंगा में लाशों का ही जैसे प्रवाह हो. ससुराल जाने पर मालूम हुआ, स्त्री गुजर चुकी है, दादाज़ाद बड़े भाई देखने के लिए आकर बीमार होकर घर गए हैं. मैं दूसरे ही दिन घर के लिए रवाना हुआ. जाते हुए रास्ते मे देखा मेरे दादाज़ाद बड़े भाई साहब की लाश जा रही है. रास्ते में चक्कर आ गया. सिर पकड़कर बैठ गया.

घर जाने पर भाभी बीमार पड़ी दिखीं. पूछा, "तुम्हारे दादा को कितनी दूर ले गए होंगे" मैं चुप हो गया. उनके चार लड़के और एक दूध-पीती लड़की थी. उस समय बड़ा लड़का मेरे साथ रहता था, बंगाल में पढ़ता था. घर में चाचाजी अभिभावक थे. भाई साहब की लाश निकलने के साथ चाचा जी भी बीमार पड़े. मुझे देखकर कहा, "तू यहां क्यों आया."

पारिवारिक स्नेह का वह दृश्य कितना करुण और हृदयद्रावक था क्या कहूं? स्त्री और दादा के वियोग के बाद हृदय पत्थर हो गया. रस का लेश न था. मैंने कहा, "आप अच्छे हो जायें, तो सबको लेकर बंगाल चलूं."

उतनी उम्र के बाद यह मेरा सेवा का पहला वक़्त था. तब से अब तक किसी न किसी रूप से फ़ुरसत नहीं मिली. दादा के गुज़रने के तीसरे दिन भाभी गुज़रीं. उनकी दूध पीती लड़की बीमार थी. रात को उसे साथ लेकर सोया. बिल्ली रात भर आफ़त किए रही. सुबह उसके प्राण निकल गए. नदी के किनारे उसे ले जाकर गाड़ा. फिर चाचाजी ने प्रयाण किया. गाड़ी गंगा तक जैसे लाश ही ढोती रही. भाभी ने तीन लड़के बीमार पड़े. किसी तरह सेवा सुश्रूषा से अच्छे हुए. इस समय का अनुभव जीवन का विचित्र अनुभव है. देखते-देखते घर साफ़ हो गया. जितने उपार्जन और काम करने वाले आदमी थे, साफ़ हो गए. चार बड़के दादा के दो मेरे. दादा के सबसे बड़े लड़के की उम्र 15 साल, मेरी सबसे छोटी लड़की साल भर की. चारों ओर अंधेरा नज़र आता था.

प्लेग, इन्फ़्लुएंज़ा और हैजा के अलावा जिस महामारी ने सबसे ज़्यादा लोगों की जान ली, वह थी चेचक. चेचक की जन्मभूमि यूं तो तीसरी सदी ईसापूर्व के मिस्र को माना जाता है, पर दुनिया से विदा होने से पहले इसने भारतीय उपमहाद्वीप पर बड़ा कहर बरपाया था.

मलयाली उपन्यासकार जॉर्ज वर्गीज़ कक्कानादन (1935-2011) अपने उपन्यास वसूरी (1968) में चेचक फैलने के दौरान गांव वालों की प्रतिक्रिया दर्ज करते हैं. उपन्यास की एक चरित्र एलेकुट्टी बेहोशी में बोलती है, "अगर हम सबको मरना ही है तो हम सब कुछ आनंद क्यों न उठा लें?"

चेचक का उल्लेख बंकिमचंद्र (1838-1894) के उपन्यास आनंदमठ में भी है, जो पदचिह्न नाम के पूरे गांव को खाली कर देती है. मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) के उपन्यासों में भी महामारियों का ज़िक्र है पर वो कहानियों का मुख्य प्लॉट नहीं हैं.

कोविड-19 से गुज़रते हुए ये कहानियां पढ़ना किसी गुज़रे हुए अतीत या दूरस्थ भविष्य से होकर गुज़रने जैसा नहीं लगता. बल्कि ये कहानियां उस अतीत के वर्तमान पर केंद्रित हैं, जो कभी बेहद सघन था. सब कुछ बस यहीं और अभी था, जैसे आज.

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