मीडिया, राजनीति और भारत का मुसलमान!

Photo Credit: इस लेख में शामिल सभी तस्वीरें मशहूर फोटो जर्नलिस्ट विजय पांडे की हैं, जो कि उन्होंने अलग-अलग मौकों पर खींची हैं।

Opinionमीडिया, राजनीति और भारत का मुसलमान!

अबरार अली बेरी

अबरार अली बेरी 'राजस्थान मेघदूत' नाम से एक अखबार का प्रकाशन करते हैं। अबरार 1998 से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हुये हैं और साल 2009 में उन्होंने संपादन की जिम्मेदारियां ली। वो मूलत: राजस्थान के डीडवाना शहर के निवासी हैं।

21वीं सदी के मुसलमान ने न केवल हिंदुस्तान अपितु दुनिया के तमाम हिस्सों में अपने वजूद को बचाये रखने के लिए अपनी क्षमताओं से अधिक संघर्ष किया है, जो अनवरत जारी है। बावजूद इसके दुनिया के दूसरे सबसे बड़े मजहब-ए-इस्लाम के अनुयायी स्वयं के अस्तित्व को बचाये रखने में हाल फिलहाल तो नाकाम ही ज्यादा दिख रहे हैं। शिक्षा, रोजगार, राजनीति और व्यापार जैसे चारों महत्वपूर्ण पायदनों में इनकी गिनती न केवल नगण्य है, बल्कि चिंता के निशान से बहुत ज्यादा गहराई में धंसी हुई दिखती है। मुसलमान इससे हाल-फिलहाल उभरते भी नहीं दिख रहे। हम भारत की ही बात करें तो यहां मुस्लिम हाशिए पर खड़ा समुदाय ही नजर आता है।

भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जहां सभी धर्मो, पंथों और वर्गों के लोग निवास करते हैं। अब इस लोकतंत्र के भीतर झांके तब अल्प संख्यकों में मुसलमान इसकी आबादी में सबसे बड़ा वर्ग है, जो तकरीबन 14.2 फीसदी के हिसाब से 23 करोड़ के आसपास की जनसंख्या में विस्तार लेता है। अब मुस्लिमों का राजनीति में प्रतिनिधित्व देखें, तो वह बामुश्किलन 0.05% फीसदी भी नही है। यही हाल राजकीय सेवाओं का भी है, जहां इस समुदाय के कारिंदे चन्द हज़ारों में ही सिमट कर रह जाते हैं। यह आंकड़े भारत में मुस्लिमों के पिछड़ने की तस्वीर बनाते हैं। यह तस्वीर ऐसी क्यों बनी! आखिर मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों नजर आता है, जबकि राजनीतिक शोर में वही पिछले कई बरसों से सबसे ज्यादा निशाने पर हैं। इस बात से भी इतर कि आये दिन ट्विटर पर 'हिंदू घट रहे हैं' का झूठा शोर खड़ा कर दिया जाता है, जमीन पर कहानी कुछ और ही बयां करती है।  

असल में 20 वीं सदी के अंतिम दशक में इस राष्ट्र के मुसलमानों पर कुछ संकट के बादल राजनीतिक सरपरस्ती में छाने लगे, जो धीरे-धीरे एक पूरी कौम को अपनी अंधेरे आगोश और मायूसी के दलदल में समेटते चले गये। इसकी शुरुआत हुई दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क अमरीका के मुरूिलमों के खिलाफ तय प्रोपेगेंडा और दुनिया में संसाधनों की लूट को लेकर, जिसका असर हमारे भारत की राजनीति में भी पड़ा।

(इस लेख में शामिल सभी तस्वीरें मशहूर फोटो जर्नलिस्ट विजय पांडे की हैं, जो कि उन्होंने अलग-अलग मौकों पर खींची हैं।)

दक्षिणपंथी राजनीति के उभार ने भारत में मुस्लिमों को संदेह की रेखा के पार खड़ा कर दिया, जहां हर वक्त उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने ही वतन के प्रति प्यार को जब-तब जाहिर करते रहें, मानों भारतीयों के कान यह सुनने को लालायित हों कि 'नहीं-नहीं हम भी आप ही की तरह देशभक्त हैं!' आखिर क्यों यह अपेक्षा भारतीय मुसलमानों से की जाती है! क्या आपको घर में अपने मां या पिता को बार-बार यह जताने की जरूरत होती है कि 'हम तो आपसे बेपनाह मोहब्बत करते हैं!' शायद आपका जवाब ना होगा...! यह तय है कि हर कोई अपने परिजन से लगाव रखता है। इनमें वो बच्चे अपवाद की तरह होते हैं, जिनके अपने मां-बाप को आश्रम, सड़क या फिर किसी अनजान शहर में फेंक आने की कहानियां हम अक्सर 'बेरुखे' और 'पत्थर दिल' हेडलाइन के साथ हमें देखते-पढ़ते रहने के आदी हो चुके हैं। कुछ ऐसा ही अपराध का भी रिश्ता है, उसके लिये किसी कौम पर दबाव बनाना इतिहास में आखिर मूर्खता ही कहलाएगी।

यह भी पढ़ें : "मैं आने वाली पीढ़ी को डिजायनर कपड़े पहनने वाले मोदी की नहीं फटेहाल किसानों की कथा सुनाऊंगी!"

2014 के बाद से मुसलमानों के खिलाफ नफरत भरे अपराधों की कई घटनाएं सामने आई हैं। हमारे दौर का सबसे चर्चित शब्द 'लिंचिंग' भी इसी दौरान लोगों के बीच लोकप्रिय हुआ है और यह ऐसे ही नहीं है, बल्कि मुसलमानों को पीटकर मार डालने, ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर प्रचारित करने और इस पर पूरी बेशर्मी से जीत की खुशी मनाने की घटनाओं ने इसे हर जुबान पर चढ़ा दिया। लोगों पर बसों, ट्रेनों और हाइवे पर इसलिए हमले हुए, क्योंकि वो मुसलमान थे। लोगों को इसलिए मारा-पीटा गया कि कुछ लोगों को ये शक हो गया कि वो गाय का मांस ले जा रहे थे। यह डरावनी घटनाएं थी, जिसके खिलाफ हिन्दुस्तान के बड़े वर्ग ने अपना प्रतिरोध दर्ज करवाया। देश की राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन हुये और कई मंचों पर यह चर्चा का विषय बन गया।

आज हालात यह हैं कि भारत का दूसरा सबसे बड़ा वर्ग अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच मानों कोई अपराधी हो। राजनीति की बिसात पर चन्द स्वार्थी तत्वों के बिछाए जाल में यह वर्ग न केवल फंस कर उलझा हुआ है, बल्कि अपने वजूद की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस मोड़ पर आ खड़ा हुआ, जहां इसकी हर एक गतिविधि को बड़े जुर्म से जोड़ कर देखने के लिए बाकी समाज को अभिशप्त कर दिया गया। 20वीं सदी के अंतिम दशक में साम्प्रदायिक ताकतों ने जो बीज बोया था, वो अब पेड़ बन चुका है। वो बीज आज इतने कंटीले और जहरीले दरख्तों में तब्दील हो गए हैं, जिनके नीचे अब मुहब्बत और भाईचारे की घास और पौधों का पनपना मुश्किल हो चला है। इस काम में जितना जहर सियासत ने घोला उतने ही अनुपात में यह जहर मुख्यधारा की मीडिया ने भी घोला, जिसकी खबरों में किसी मुस्लित स्कॉलर से ज्यादा तवज्जो किसी सिरफिरे फतवा जारी करने वाले मौलाना को मिलती है। 

राजनीतिक प्रतिनिधित्व में तकरीबन नगण्य, लेकिन राजनीति में सबसे जरूरी हो चले इस वर्ग की हालत को इतना दयनीय कर दिया गया है कि आज़ादी के आठवें दशक में भी यह तबका रोटी, कपड़े के इंतजाम में ही फंसा हुआ है। जहां सिर्फ पेट भरने को ही कामयाबी का पैमाना मान लिया गया है। आज मुस्लिम समुदाय जहां भारत में सार्वजनिक जीवन में हाशिये पर ज्यादा खड़ा नजर आता है, इसके इतर इतिहास में झांके तो स्वाधीनता संग्राम में उसका अपना एक शानदार इतिहास बाहें फैलाए खड़ा नजर आता है, जिसमें शख्सियतों की भरमार रही है। हिंदुस्तान के मुसलमानों में जितनी विविधता देखने को मिलती है, वो किसी और देश के मुसलमानों में नहीं दिखती।

पिछले 1,400 सालों में हिंदुस्तान के मुसलमानों ने संगीत, खान-पान, शायरी, कला, मुहब्बत और इबादत का साझा इतिहास बनाया और जिया है। इस्लामिक उम्मत दुनिया के सारे मुसलमानों को एक बताता है। यानी इसके मानने वाले सब एक हैं, लेकिन, भारतीय मुसलमान जिस तरह आपस में बंटे हुए हैं, वो इस्लाम के इस बुनियादी उसूल को ही नकारता है।

हिंदुस्तान में मुसलमान, सुन्नी, शिया, बोहरा, अहमदिया और न जाने कितने फिरकों में बंटे हुए हैं और यह भारत की ही खूबसूरती हो सकती है। बावजूद इसके शिक्षा, राजकीय सेवा और इंडस्ट्रीज के मामले में यह कहीं नज़र नहीं आते और यही इनकी बदहाल जिंदगी की सबसे बड़ी वजह भी बनता चला गया। राजनीतिक नुमाइंदगी का नगण्य होना और बहसों के नाम पर सिर्फ 'तुम साबित तो करो' की सोच मुस्लिमों को पीछे धकेलता चला गया। 135 करोड़ की आबादी वाले भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी आज 75 सालों बाद भी दोयम दर्जे के साथ दयनीय स्थिति में गुजर बसर को मजबूर है, तो इसकी राजनीतिक वजहें तो होंगी ही ना!

यह भी पढ़ें : इतिहास के पन्नों पर नई इबारत लिखते 'किसान आंदोलन' की जड़ें कितनी गहरी हैं!

सरकारों ने मुस्लिमों की दशा को सुधारने के लिये क्या प्रयास किये! इस सवाल के जवाब में हमें याद आती है सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशें, लेकिन इस कमेटी की सिफारिशों को किस हद तक लागू किया गया, यह भी किसी से छिपा नहीं है। 2005 में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को देखने के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर के नेतृत्व में 2006 की रिपोर्ट में कहा गया कि अल्पसंख्यक समुदाय के पास बेहतर आजीविका के साधन नहीं हैं। मुसलमानों के हालात में कितना बदलाव आया इसके अध्ययन के लिए 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने कुंडू कमेटी का गठन किया और जब इस कमेटी की रिपोर्ट सामने आई तो नतीजे और भी बुरे निकले। कुंडू कमेटी ने पाया कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से भारतीय मुसलमानों के जमीनी हालात में जरा भी बेहतरी नहीं आई थी।

मुस्लिम समाज के विकास और सुरक्षा को लेकर कुंडू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में जो कहा था, वो आज सच बनकर तनकर हर मुस्लिम के सामने खड़ा नजर आता है। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट के अंत में लिखा था- 'मुस्लिम अल्पसंख्यकों का विकास उनकी सुरक्षा की बुनियाद पर होना चाहिए। हमें उन्हें यकीन दिलवाने के लिए उस राष्ट्रीय राजनैतिक वादे पर अमल करना चाहिए, जो बनावटी ध्रुवीकरण को ख़त्म करने की बात करता है।' अफसोस आज भारत में मुस्लिम इसी सच से रूबरू हो रहे हैं।

बिना मुस्लिमों की सरकार
असल में भारतीय मुसलमानों के लिए सबसे तगड़ा झटका राजनीतिक तौर पर उनके वोटों की अहमियत का खत्म हो जाना है। 2014 में बीजेपी एक भी मुस्लिम सांसद के बगैर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई और इसने यह संदेश दिया कि मुस्लिमों की भागीदारी के बिना भी भारत पर शासन किया जा सकता है। भारत में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी पार्टी को बहुमत मिला हो, और उसका एक भी मुस्लिम लोकसभा सांसद न हो। 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 4 प्रतिशत मुस्लिम सांसद चुने गए। मुसलमानों की मौजूदा आबादी 14.2 फीसदी के अनुपात में ये लोकसभा में मुसलमानों की अब तक की सबसे कम नुमाइंदगी है, जो चिंता का सबब भी बनी है।

बाबारी विध्वंश के बहाने निशाने पर मुस्लिम
6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद बदले हालातों ने यदि सबसे ज्यादा किसी कौम का नुकसान किया तो वह मुसलमान ही हैं। ...और इससे देश को क्या हासिल हुआ, ये हुक्मरान ही बेहतर जानते हैं। आम हिन्दुस्तानी तो आज भी रोटी-कपड़ा-मकान के सवालों में ही ज्यादा उलझा हुआ है।

बाबारी विध्वंश के बाद 2002 के गुजरात दंगों ने न केवल मुस्लिम समुदाय के न्याय की उम्मीदों को धूमिल किया, बल्कि उन्हें दहशत की काल कोठरियों में कैद कर लिया। सदियों से सौहार्द और भाईचारे के प्रतीक रहे मुसलमानों को एक अपराधी के रूप में प्रदर्शित करने का काम इस घटना ने जिस तेजी से भारत में किया, उससे पहले वो देखने को नहीं मिली। दशकों तक मुस्लिम समुदाय के वोट से राजनीतिक फसलें तो काटी गई, लेकिन उनकी दशा सुधारने के लिये सरकारी स्तर पर जमीनें कार्यक्रमों को अभाव ही देखने को मिला। नतीजा देश का मुसलमान हर दृष्टि से कमज़ोर होता गया। व्यवस्थागत ढंग से कमजोर, लाचार व बेबस हो चुके जिस्मों पर साम्प्रदायिक ताकतों के एक के बाद एक होते प्रहारों ने मानों इस समुदाय की कमर ही तोड़ कर रख दी हो।

21 वीं सदी के दूसरे दशक के प्रारम्भ में साम्प्रदायिक ताकतों ने जो धुर्वीकरण का खेल खेला, उसने इस कौम को न केवल अलग—थलग पटक दिया, बल्कि रोटी और कपड़े के संघर्ष को सिर्फ रोटी पर लाकर छोड़ दिया। मुसलमानों में गरीबी, पूरे देश के औसत से ज़्यादा है। मुस्लिम समाज की आमदनी, खर्च और खपत की बात करें, तो वो दलितों, आदिवासियों के बाद नीचे से तीसरे नंबर पर खड़े नजर आते हैं। जब सरकारी नौकरियों में धर्म के आधार पर हिस्सेदारी का आंकड़ा जानने की कोशिश की गई, तो मोदी सरकार ने इस आंकड़े को देने से ही मना कर दिया। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरियों में कितने मुसलमान हैं, लेकिन कुंडू कमेटी का मानना है कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की तादाद चार फीसदी से ज्यादा नहीं है।

भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के साथ ही 2012 के आस-पास सोशल मीडिया पर मुस्लिम समुदाय को एक विलेन के रूप में खड़ा करना शुरू किया गया और ऐसी भ्रामक सूचनाओं का जाल पूरे भारत में फैलाया गया कि आम भारतीय इस वर्ग से ही कतराने लगे। नतीजतन मुल्क के भाईचारे और सौहार्द को भी इसके चलते गहरा धक्का लगा है, यह कहना गलत नहीं होगा। 2014 के आस-पास पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगे इसी की ताकीद करते हैं। हालांकि, इधर किसान आंदोलन ने वापस जाटों और मुस्लिमों के बीच पुल का काम किया है, लेकिन इसकी मजबूती भी उत्तरप्रदेश में आने वाले चुनावों में ही तय हो सकेगी।

यह भी पढ़ें : तिरंगे से 'तौलिये' तक गर्व से शर्म की कहानी का नाम है पहलवान सुशील कुमार

दक्षिणपंथी राजनीति का उभार और मुस्लिम 
उत्तर से दक्षिण भारत तक बसे मुस्लिम भाषा, खान-पान और पहनावे को लेकर अलग-अलग लाइफस्टाइल को अपनाते हैं। हालांकि, इधर राजनीतिक तौर पर जैसे-जैसे दक्षिणपंथी ताकतें हावी होती चली गई, हिंदुस्तान के मुसलमान ने अपनी विविधताओं वाली पहचान को जड़ से उखाड़ कर, उसकी जगह अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम एकता वाली पहचान को अपनाना शुरू कर दिया। आज वो भी हिजाब, दाढ़ी, टोपी, नमाज, मदरसों और जिहाद वाली पहचान के करीब जा रहे हैं। ये मुसलमानों के एक जैसे होने की छवि हमें हर जगह दिखाई दे रही है। ये बदलता माहौल उस राजनीति का काम आसान करता है, जो तुलना के खेल में उलझाकर अपना उल्लू सीधा करती है।

राजनीति के शीर्ष से गायब हैं मुस्लिम
भारत के 15 राज्यों जिनमें असम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, ओडिशा, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड शामिल हैं, यहां की सरकारों में कोई भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। इसके इतर दस अन्य राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश और दिल्ली में एक-एक मुस्लिम मंत्री है।

​चरणबद्ध छंटनी का दौर और प्रगतिशील अखबारों का मुखौटा
सोशल मीडिया के बेसिरपैर की बहसों को जब मेनस्ट्रीम मीडिया ने लपका, तब भी विरोध की जगह खामोशी के स्वर ही सुनाई दिये। सत्ता और मीडिया के गठजोड़ ने इस खेल को खेलते वक़्त यह भी ध्यान रखा कि अपने संस्थानों में 'निष्पक्ष' और 'निर्भय' पत्रकारों के साथ-साथ, अल्प संख्यक समुदाय से आने वाले पत्रकारों को भी किनारे लगा दिया जाए। केवल छंटनी ही शुरू नहीं हुई, बल्कि ऐसे इंतजाम भी किये गये कि वो स्वतंत्र रूप से भी कहीं काम न कर सकें। इस कारगुजारी में टीवी ही नहीं अखबारों ने भी बड़ी भूमिका अदा की और ग्रामीण स्तर पर तैनात अल्प संख्यक समुदाय के संवाददाताओं को टारगेट करने की खबरें आम होती चली गई।

यह भी पढ़ें : वो आये थे नस्ल सुधारने...!

सोशल मीडिया ने दी ताकत
इधर जब मुख्यधारा का मीडिया 'हिंदू बनाम मुस्लिम' की प्रायोजित बहसों में उलझा हुआ नजर आ रहा था, 2016 के बाद सोशल मीडिया के जरिये एक दूसरी तस्वीर बननी शुरू हुई, जिसमें मुस्लिमों की भूमिका पर कुछ सार्थक बहसें होनी शुरू हुई। धीरे-धीरे सोशल मीडिया से निकलकर ये बहसें वेबसाइट्स, यूट्यूब चैनल्स के साथ ही स्वतंत्र रूप से काम कर रहे छोटे प्रिंट संसाधनों में दिखना शुरू हुई और गलत को गलत कहने की हिम्मत जुटती हुई नजर आई। इस बीच सीएए और एनआरसी को लेकर मचे भूचाल ने फिर मुस्लिम समुदाय को संशय और घबराहट के बीच फंसाना शुरू ही किया था कि इस मुहिम ने उदासी का दौर खत्म कर दिया।

भारत के प्रगतिशील लोगों का एक बड़ा तबका उस वक्त मुस्लिम समुदाय की लड़ाई का हिस्सा बन गया, जब ऐसा लग रहा था कि दक्षिणपंथी राजनीति अब अपने खेल को बड़ा करने को आतुर है। विरोध के स्वरों से भारत हिल गया और हर जगह से वो तस्वीरें आने लगी, जिसकी उम्मीद अल्पसंख्यकों ने शायद ही पिछले कुछ सालों में की हो। ये लड़ाई अब साफ तौर पर दो धड़ों में बंटी हुई नजर आ रही है। एक ओर उग्र हिंदुत्व और दूसरी ओर शेष भारत।

यह भी पढ़ें : 'जिस इलाके से हम गुजर रहे थे, वो अपराध के लिए बदनाम है!'

अब तो मीडिया की ही हालत खराब है!
खैर, अब जबकि मीडिया में काम कर रहे निष्पक्ष पत्रकार ही आये दिन निशाने पर रहते हैं, तब भयानक स्थितियों से गुजर रहे अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले पत्रकारों की क्या हालत होगी, यह महसूस किया जा सकता है। अब जबकि मीडिया पर ही अंकुश लगाने की घटनाएं रोज आम सुनाई दे रही हैं, तब अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम पत्रकारों की दशा कैसे होगी यह ​गंभीर अध्ययन का विषय है। इतने बड़े मुल्क में जहां जम्हूरियत का डंका बजाया जाता है, वहां फटेहाल, राजनीतिक तौर पर उपेक्षित अल्प समुदाय के बारे में बात ही ना हो, ऐसा कैसे मुमकिन होगा! ये स्वस्थ लोकतंत्र की प्रगति में कांटों का तार बिछाने जैसा होगा, जहां इतिहास में सिर्फ बुजदिली दर्ज की जाएगी। 

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols