पिछले कुछ सालों में जिस तेजी से सत्ता ने पत्रकारों को निशाना बनाया है और जिस तेजी से न्यूजरूम सांप्रदायिक होते चले गये हैं, वो अभूतपूर्व है। यह तथ्य भी अब ज्यादा छिपा हुआ नहीं है कि पत्रकारों पर हमले किस विचारधारा से प्रभावित होकर बढ़े हैं। मीडिया में बीते कुछ सालों में जिस ढंग से खबरों के चयन और प्रस्तुतीकरण का चलन बढ़ा है, उसने वैचारिक तौर पर स्वतंत्र और पेशेवर ढंग से काम करने वाले मीडियाकर्मियों के लिए कई किस्म के संकट खड़े किये हैं। इनमें पत्रकार की नौकरी छीन लेना सत्ता के लिए सबसे आसान काम है।
ऐसे ही एक पत्रकार है नवीन कुमार। नवीन आज तक से जुड़े हुये थे। अच्छी खासी नौकरी थी, वरिष्ठ मीडियाकर्मी थे, लेकिन सत्ता के खिलाफ आवाज उठाना भारी पड़ गया। नवीन को आज तक से बाहर का रास्ता दिखला दिया गया, लेकिन आवाजें भी भला कभी दबाई जा सकती हैं। नवीन ने एक यूट्यूब चैनल शुरू किया ‘आर्टिकल 19’ और जमीन पर लोगों क बीच उतर आये। हाल ही में नवीन ने बंगाल इलेक्शन पर कुछ अच्छी रिपोर्ट दर्शकों के लिए तैयार की हैं। अब जबकि नवीन को आज तक से निकाले हुए एक साल होने जा रहा है, तब उन्होंने अपनी बात को सोशल मीडिया के जरिए पाठकों के बीच रखा है। आगे नवीन के ही शब्दों में हम पूरी कहानी को सामने रख रहे हैं, जिससे पाठक यह समझ सकें कि भारत में पत्रकारिता कैसे दिन-ब-दिन मुश्किल और भयावह होती जा रही है। नवीन लिखते हैं...
प्यारे साथियों, आज पूरा एक साल हो गया। आज ही के दिन आज तक ने मुझे अचानक निकालने का फैसला सुनाया था। संस्थान के कई नामी चेहरों ने इसका जश्न मनाया था। यह घेरकर शिकार करने का जश्न था। इसके पहले मुझे पता ही नहीं था, कि लिखने से इतना फर्क पड़ता है। जिस कहानी के बाद ये फैसला लिया गया था वो 8 साल की उस आदिवासी बच्ची की कहानी थी जो लॉकडाउन के बाद तेलंगाना से पैदल 108 किलोमीटर के सफर पर निकल पड़ती है और अपने घर से 8 किलोमीटर पहले दम तोड़ देती है। आज तक की पत्रकारिता में यह आपराधिक था। कमाल ये कि मुझे निकालने की ड्राफ्टिंग के लिए उन्हें अपनी भारी भरकम लीगल टीम को लगाना पड़ा था।
कोविड के भयानक दौर में सरकार की बदइंतजामियों पर लिखना उन्हें पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के खिलाफ लगा था, क्योंकि ये सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को असहज करता था। मैं उनकी हिंदू-मुस्लिम पत्रकारिता के लिए अनफिट हूं, ये तो पता था लेकिन अरुण पुरी की कंपनी इंसानियत के बुनियादी उसूलों के भी खिलाफ है, इसका इलहाम नहीं था। हमेशा लगता था कि दंगापरस्तों और जातिवादियों से भरे न्यूजरूम में वो दो चार मिसफिट लोगों को तो बर्दाश्त कर ही लेंगे!
आज ‘आज तक’ खुद मरकज बना हुआ है। जमात से बहुत बड़ा। मुसलमानों को देशद्रोही बताने वाले उसके कई चेहरे बीमारी के विस्तार के सूत्रधार बन चुके हैं, लेकिन वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति। सालभर बाद देश के हालात पहले से कहीं ज्यादा भयावह हैं। अस्पतालों की हालत पहले से ज्यादा बुरी है। सड़कों पर जारी हृदयविदारक मौतें सरकार के मुकम्मल तौर पर नाकाम हो जाने का ऐलान कर रहे हैं, लेकिन टीवी चैनलों ने इसकी तरफ से आंखें मूंद रखी हैं।
वो सुप्रीम कमांडर पर सवाल उठाने में कांप रहे हैं। यह पूरी इंसानियत के साथ अपराध है। इसकी कोई माफी नहीं हो सकती। टीवी पत्रकारिता का जब इतिहास लिखा जाएगा, तो आज के संपादकों और मालिकों को अपराधियों की तरह दर्ज किया जाएगा। लोग उनसे नफरत करेंगे। एक आका को बचाने में वो मानवता के गिद्ध में तब्दील होते चले गए।
एक ताकतवर माध्यम कैसे कमजोर लोगों के हाथ में पड़कर, जनता के खिलाफ खड़ा हो जाता है इसका जारी उदाहरण है आज का टीवी। मरना तो सबको है, लेकिन जिन्हें अमर बनाने के लिए वो मानवता को रौंदे जाने का तमाशा देख रहे हैं, ये बात याद रखी जाएगी। दर्ज की जाएगी। ये केवल ‘आज तक’ या ‘जी न्यूज’ या ‘रिपब्लिक टीवी’ का मामला नहीं है। इनके बुनियादी आचरणों में कोई अंतर नही। लाशों के बीच आका के लिए सोहर गाने के लिए होड़ मची हुई है।
मैं शुक्रगुजार हूं कि ‘आज तक’ ने मुझे निकालकर मेरे मन से अनिश्चितता के डर को निकाल फेंका। यह एक ऐसी मुक्ति थी जिसने मुझे मानवता का अपराधी होने से बचा लिया। इस एक साल में जिंदगी, पत्रकारिता और सत्ता के दस्तूर को बहुत करीब से जानने का मौका मिला। लगता है इतना कुछ था करने को, सोचने को, देखने को, पढ़ने को। मैने ये सब लालाओं की खुशी पर न्योछावर कर दिया था।
कई बार असहमत होने का अधिकार बचाने के लिए आपको बीसियों साल की सफलताएं 20 सेकंड में छोड़ देनी पड़ती हैं। ये वही दिन था। मैने कभी नही सोचा था मैं टेलीविजन में नहीं रहूंगा। आप इसे मेरा गुरूर कहें या आत्मविश्वास, लेकिन जिस पल ‘आज तक’ ने चिट्ठी भेजकर मेरी ईमेल आईडी ब्लॉक की, मैं समझ गया था कठिन फैसले की घड़ी आ गई।
पता नही क्यों उस दिन भी डर बिल्कुल नहीं लगा था। कुछ लोगों पर दया आई थी, क्योंकि जिन्हें मैं नियंता समझ रहा था वो कठपुतली के सिवाय कुछ नहीं थे। पता चला कि व्यक्तिगत संबंधों और सदाचार को भी वो कॉरपोरेट हितों के लिए होम कर देते हैं।
मैंने ‘आज तक’ के अनैतिक और झूठे आरोपों के विरोध में और पत्रकारिता के बचाव में लगभग 80 पन्ने की एक चिट्ठी भेजी थी। उस चिट्ठी में मैंने बाबा साहेब, नेहरू, गांधी, जेफरसन समेत कई विद्वानों के उद्धरण दिए थे। उसका जवाब न आना था न आया, लेकिन मुझे लगता है कि उसे अब बहस के केंद्र में लाया जाना चाहिए। दुनिया से पारदर्शिता की उम्मीद पालने वालों की करतूतें छिपी क्यों रहें, बहुत कुछ है लिखने को। ...और लिखा जाएगा। इसमें कई ऐसे चेहरे भी आयेंगे जो आज देवता बने हुए हैं, लेकिन वो पूरे माध्यम को ही भ्रष्ट बना देने के गुनहगार हैं। पिछले कुछ दिनों से बीमार हूं। स्वस्थ होने के बाद सिलसिलेवार तरीके से बातचीत के दायरे को बड़ा किया जाएगा।
अंत में सिर्फ इतना कि जब मौत का डर निकलता जा रहा है तो व्यक्तियों और संस्थानों का डर निकाल दीजिए। मनुष्यता के पक्ष में यही आपका योगदान होगा। यहां पाश याद आते हैं...
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता है चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, सवाल नाचता है
सवाल के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब बन्दूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वाले की
याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी
इंकलाब जिंदाबाद! ये उनकी पोस्ट का आखिरी शब्द था। नवीन किन नामों को लेकर खुलासे करेंगे, इससे ज्यादा जरूरी इस वक्त मीडिया के पूरे चरित्र को समझना हो जाता है। ये पोस्ट मीडिया में पसरी हुई जितनी भयानक वैचारिक गंदगी की ओर इशारे करती है, उतना ही उन चुनौतियों को बता रही है जो आज पत्रकारों के सामने है। भारत में प्रेस फ्रीडम का हाल पहले से बदत्तर हुआ है, ऐसे में मीडियाकर्मियों का सामने निकलकर आना और मीडिया के भीतर चल रहे गुत्थमगुत्था पर अपनी बात रखना, निसंदेह एक अच्छी पहल है।
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