मीडिया या बाजारू इश्‍तहारों का ग्लोबल-ग्राम

Tamashaमीडिया या बाजारू इश्‍तहारों का ग्लोबल-ग्राम

कुमार मुकुल

कुमार मुकुल कवि हैं, लेखक हैं और लंबे समय से पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया में सक्रिय हैं। मीडिया से उनका पुराना नाता है। हिलांश पर मुकुल कभी-कभार आ जाया करेंगे, अपने लेखों के जरिए पाठकों के बीच...

सोशल मीडिया की आम आदमी तक पहुंच ने मीडिया के पारंपरिक स्‍वरूप को पूरी तरह नष्‍ट कर दिया है। इससे एक ओर जहां यह अपनी पहुंच में सर्वव्‍यापी हो गया है, वहीं व्‍यक्तिगत महत्‍वाकांक्षाओं के लिए एक आसान टूल में भी बदलता चला गया है। सोशल मीडिया समाज में विघटन और हिंसा के कारोबार को पोश रहा है। इसे कहना जितना आसान है, इसे समझना उतना ही मुश्किल और महीन है।

अलग-अलग सोर्सेज के हवाले से मिले डेटा को अगर स्टड़ी करें तो हैरतनाक तथ्य नजर आते हैं। साल 2015 में भारत में एक्टिव सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या तकरीबन 14 करोड़ के आस-पास थी। साल 2020 में ये बाजार बढ़कर तकरीबन 37 करोड यूजर्स का हो गया। इनमें भी अधिकतर भारतीय फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म पर मौजूद हैं। हालांकि, भारत सरकार के एक फैसले के बाद डांस बाइट जैसी बड़ी कंपनी समेत कई चीनी कंपनियों को अपना कारोबार समेटकर लौटना पड़ा है। टिक टॉक जैसा पॉपुलर ब्रांड डांस बाइट का ही एक प्रोडक्ट था।

अब जबकि टिक टॉक अपना भारत में कारोबार समेट चुका है, तब इसके यूजर्स किसके पास लौटेंगे ये समझना बेहद आसान है। फेसबुक में पिछले दिनों जियो की हिस्सेदारी की खबर इस मसले को और साफ कर देती है। बाकी रहा इन कंपनियों के बंद होने के बाद नौकरियां जाने का सवाल, तो वो बहुत से नौकरी खो चुके लोगों के साथ ही एकाकार होकर दफ्न हो गया है।

रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों के टेकक्षेत्र में उतरने का सीधा सा मतलब है कि भारत से प्रतिद्वंदियों को या तो हटना होगा या उन्हें अपने कारोबार में भारतीय उद्योगपतियों को हिस्सेदारी देनी होगी। ये कारोबारी कौन होंगे, ये भी साफ है। इतने बड़े कदम के पीछे आपको यदि छोटे लाभ ही दिखते हैं, तब आपको निश्चित तौर पर तेजी से बदलते ग्लोबल-ग्राम के बाजार को समझने के लिए रिसर्च शुरू कर देनी चाहिए।

2023 तक भारत में एक्टिव सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या 44 करोड़ के जादुई आंकड़े को पार कर देगी। यानी कि तीन साल में 7 करोड़ नए ग्राहकों की आमद। 44 करोड़ ग्राहकों पर कौन नजर नहीं मारना चाहेगा! दुनिया का हर व्यापारी लालायित है और इसके लिए लोकतंत्र को तोड़ने मरोड़ने या खत्म कर देने से भी किसको परहेज होना चाहिए!

टेक इंडस्ट्री ने दुनिया को ग्लोबल-ग्राम में तो बदल दिया, पर विडंबना यह है कि इस ग्लोबल-ग्राम में 'वसुधैव कुटंबकम' जैसी कोई भावना नहीं है, बल्कि यह बाजार के बैनरों की प्रतिद्वंद्विता का 'ग्लोबलग्राम' जरूर बन गया है। मुख्यधारा के मीडिया में खबरें डिजिटल मीडिया के विभिन्‍न प्‍लेटफार्मों और उसके तथाकथित सेलिब्रेटीज के प्रचारभर तक सीमित होती जा रही हैं। इसे सोशल मीडिया की ताकत कह लीजिए, पहुंच या फिर भारत से मीडिया के गायब हो जाने की कहानी। आप इसे जो चाहें कह सकते हैं।  

मीडिया को सोशल मीडिया ने कैसे प्रभावित किया है इसका हालिया नमूना अभी दिखा है। हाल ही में एक खबर सामने आई कि लॉस एंजिल्‍स में 63 वें ग्रैमी अवॉर्ड्स के दौरान एक सेलिब्रेटी ने भारत में लंबे अरसे से चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन को जाहिर करता हुआ एक मास्‍क पहन हुआ था।

हैरानी की बात यह है कि मुख्यधारा की मीडिया से असल किसान आंदोलन की खबर जो कि बहुत पहले गायब करवा दी गई की जगह चर्चा का विषय सेलिब्रिटी का 'आई सपोर्ट फॉर्मर्स' लिखा मास्क बन गया। कायदे से किसानों की लड़ाई में मीडिया को खड़ा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो खुलकर सरकार के लिए ही बैटिंग करते हुए नजर आ रहे हैं। असल में मीडिया में हिस्सेदारी किन समूहों की है, यही चीजों को तय कर देता है।

मीडिया के नतमस्तक होने का लाभ सीधे सोशल मीडिया को मिल रहा है। ऐसे में सोशल‍ मीडिया पर किसान आंदोलन की खबर ढूंढता कोई ग्रामीण युवक लॉस एंजिल्‍स के सेलिब्रेटी और टिक-टॉक और मास्‍क की नयी कंपनी तक पहुंचा दिया जाता है। इससे एक ओर जहां गांव के किसी गरीब युवा के कुछ पैसे कट जाते हैं तो दूसरी ओर किसी सेलिब्रेटी की जेब भरने वाले कुछ फॉलोवर बढ जाते हैं। होता बस इतना ही है, इसका असल आंदोलन पर कोई खास असर पड़ता हो ये दिखता नजर नहीं आ रहा। ये भारतीयों का दुर्भाग्य है कि वो एक मजबूत मीडिया खड़ा नहीं कर सके। भारत जैसे देश में जहां चेतना का स्तर उठने में ही अभी समय के कई पहिए घूमने हैं, वहां सोशल मीडिया ने राजनीतिक हिंसा और दुष्प्रचार में भी कई रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। बाजार की होड़, समाज को दिशाहीन कर रही है। 

एक पुराना लोकप्रिय गाना है- 'रिश्‍ते नाते प्‍यार वफा सब बातें हैं बातों का क्‍या ...'। अब इस गाने की तर्ज पर आप गा सकते हैं ... 'खबरें हैं खबरों का क्‍या' ... आज की खबरों पर नजर मारें तो इनमें दिखाने के लिए सब कुछ है, लेकिन असल में वो मिथ्या में लिपटी हुई चदरिया से ज्यादा कुछ नहीं। इन खबरों का देश-दुनिया पर कोई परिवर्तनकारी असर नहीं पड़ रहा, अलबत्ता बड़े संकट छिपाकर एक पूरे देश को गर्त में धकेल दिया गया है।

किसान आंदोलन को ही देखें तो इसका प्रचार तो पूरी दुनिया में हो गया, पर इस आंदोलन के हक में कुछ हुआ... क्‍या ऐसा जिसका श्रेय इस मीडिया को दिया जा सके। नहीं ना! इस आंदोलन का इतने लंबे समय तक चलने का इतिहास जरूर बन गया, पर आंदोलन के वर्तमान पर इसका कोई असर पड़ा क्‍या? हां, लेकिन इस आंदोलन ने सोशल मीडिया के बाजार को गर्म कर दिया। एक मुद्दा जो हर दिन करोड़ों भारतीयों को सीधी रेखा के दोनों ओर खड़ा कर रहा है, वो सोशल मीडिया के हाथ लग गया। इसी तरह दुनिया में उठने वाली हर आवाज और हर आंदोलन को बस बाजार के एक टूल के रूप में इस्‍तेमाल किया जाने लगा है और हम हैं कि बाजार में दिख जाने को ही अपनी जीत समझ लेते हैं।

अब लोग जो खबर पढना पसंद कर रहे हैं, उसी आधार पर खबर बन रही है ये भ्रम भी तेजी से मीडियाकर्मियों के बीच फैलाया गया। असल में आपको वही पढ़ाया और दिखाया जा रहा है, जो वो परोसना चाहते हैं। हाल ही में एक फिल्म आई 'सोशल डिलेमा', जो सोशल मीडिया के हाथों नियंत्रित होते नागरिकों की मनोदशा को बताती है। इस फिल्म को देख लेने के बाद आपको समझ आने लगेगा कि सोशल मीडिया ने ताकतवर लोगों को वो जादुई हथियार थमा दिया है, जो लंबे वक्त तक शासन को सुचारू रखने में मददगार रहेगा।

इधर किसी दबी सूचना को विशाल जनमत तक ले जाने का उद्देश्‍य भी आज खत्‍म सा हो गया है। अगर भारत की कोई खबर लंदन या अमेरिका तक पहुंचा दी जा रही है, तो इसमें परिवर्तन लाने की कोई सदाकांक्षा नहीं है, बल्कि इसका लक्ष्‍य मात्र वहां के भारतीय जन समूह के बाजार तक पहुंच बनाना है। ...और ये सूचनाएं कितनी तथ्यपरक होती हैं, इसका मखौल अखबार और टीवी खुद पूरी ईमानदारी से रोज उड़ा रहे हैं।

किसान आंदोलन पर भले ही ब्रिटेन की संसद में सवाल उठ जाएं, पर हिन्दुस्तान की जमीन पर उस मुकाबले का कोई असर होता नहीं दिखता। उल्टा मीडिया सरकार के लिए ढाल की तरह काम कर रही है। एक दौर था जब मीडिया जनता की तलवार की तरह काम करती थी और शासक पर लगाम कसती थी। धीरे-धीरे बेहद सधे हुए ढंग से भारतीय मीडिया ने लोगों को सेंसेशन की लत लगाई जो अब खतरनाक स्तर पर है। इसमें सोशल मीडिया ने तड़के का काम किया है। आए दिन हिंसक मुद्दों के ट्रेंड सड़ चुके समाज का अलार्म हैं। मीडिया के एजेंडे में अब किसी भी किस्‍म का बदलाव नहीं है, सिवाय सत्ता की सहूलियत के हिसाब से खबरें परोस देने के। समाज के लिए कोई प्रतिबद्धता शेष नजर नहीं आती और सच पंच सितारा होटलों में लंच ब्रेक के बाद सिल्वर फॉइल में लपेटकर कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। 

एक दौर में हम लोग कोर्स में एक कहानी पढते थे ‘अखबार में नाम’। इस कहानी का नायक अखबार में नाम छपाने के लिए तमाम उटपटांग हरकतें किया करता था। यही हाल आज मीडिया का है। पहले जो काम लोग मीडिया में जगह के लिए करते थे, अब वही काम चर्चा में रहने के लिए तमाम मीडियाकर कर रहे हैं। रेटिंग और व्‍यूअरशिप अब खरीदी बेची जाने लगी है। हर आम खास मौके पर चिल्‍ल-पों करना वे अपना जन्‍मसिद्ध अधिकार समझ रहे। रेटिंग के धंधे की कलई पिछले दिनों में जितनी दफा खुली है, उतने में तो सरकार खुद संज्ञान लेकर कमिटि​ गठित कर सच सामने लेकर आती, लेकिन क्या मजाल जो अपने ही खिलाड़ी को ऑउट कर दिया जाए।

इस लत के शिकार सिर्फ राजनेता या सेलिब्रिटी नहीं बल्कि आम कर्मचारी-अधिकारी भी बन गए हैं, जो अपना चेहरा ‘अब तक छप्‍पन’ के नायक में देखते हैं। गांधी और बुद्ध के इस देश में अंगुलिमाल और गोडसे के लिए जगह बनाते लोग नजर आते हैं।

एंटिल‍िया केस को ही ले लीजिए। इसके आरोपी मुंबई के पुलिस अधिकारी को लेकर एनआइए अधिकारियों को कहना है कि इस घटना में सचिन वाझे का हाथ है। इससे पहले सचिन वझे एनकाउंटर स्‍पेशिलिस्‍ट के तौर पर चर्चित थे और एक कस्‍टोडियल डेथ के मामले में सोलह साल से सस्‍पेंड चल रहे थे। पिछले साल सस्‍पेंशन खत्‍म होने के बाद हीरो की तरह मीडिया में चर्चा की भूख ने वाझे को एंटीलिया जैसी साजिश को अंजाम देने को प्रेरित किया। 

सोशल मीडिया ने इस भूख को बढ़ाने का काम किया है। चमक और शोहरत की भूख ताकतवरों को मीडिया के कैमरों के सामने लेकर आ रही है, तो आम जनता ग्लोबलग्राम के महीन जाल में उलझा दी गई है। खबरें अब कारोबारी हथियार भर हैं।

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