गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
26 जनवरी की उस सुबह जब हम गाजीपुर बॉर्डर में किसानों की रैली को कवर करने के लिए पहुंचे, घर से बाहर निकलते ही कुछ किलोमीटर पर देखते हैं कि गाजीपुर की ओर से आने-जाने वाली दिल्ली की सड़कों पर पुलिस ने बैरिकेड्स लगा दिए हैं। गाजीपुर के आस-पास के पूरे इलाके की सड़कों पर दिल्ली पुलिस का जबरदस्त पहरा बिठाया गया था। धरनास्थल के आस-पास के मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए थे। दिलशाद गार्डन के पास ऑटो ड्राइवर ने हमें उतार दिया। पैदल ही कई किलोमीटर चलकर पुलिस बैरिकेड्स पार कर हम किसी तरह से धरना स्थल पर पहुंच गए थे। पुलिस रास्ते में लोगों को रोककर पूछताछ कर रही थी। पूरी कोशिश की गई थी कि किसानों की ऐतिहासिक ट्रैक्टर परेड में लोग शामिल न हो सकें, लेकिन बात नहीं बन सकी।
मोदी सरकार पहले से ही किसान आंदोलन को लेकर खिसियाई हुई थी। दिल्ली की सरहद पर बैठने से पहले किसानों को पंजाब और खासकर हरियाणा में बेवजह के संघर्ष और फजीहतों से गुजरना पड़ा। मनोहर लाल खट्टर ने अपनी सरकार की पूरी ताकत किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने में लगा दी थी, लेकिन ये आंदोलन तो आगे चलकर कई मुकाम हासिल करने वाला था। ये वो वक्त था जब टीकरी, सिंघू और गाजीपुर बॉर्डर का असर देशभर के किसानों पर पड़ने लगा था और कई हिस्सों में किसान अपने-अपने इलाकों में राजमार्गों पर पंडाल डालकर धरने पर बैठ गए थे। खासकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड के तराई वाले हिस्से, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश के अलग-अलग इलाकों में किसान आंदोलन गति पकड़ रहा था। हालांकि तब तक गांवों में महापंचायतों के आयोजन का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था। खैर, सरकार की योजनाओं को धत्ता बताकर हजारों भारतीय उस रोज किसानों की ट्रैक्टर परेड का हिस्सा बनने के लिए चले आए थे, जिनमें हम भी शामिल थे।
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई के इलाकों से किसान रातभर में ही दसियों ट्रैक्टर लेकर रैली का हिस्सा बनने के लिए पहुंच गए थे। धरना स्थल किसी मेले में तब्दील हो गया था। तिरंगे में लिपटे हुए ट्रैक्टरों पर बच्चे-बूढ़े-महिलाएं-नौजवान जोश में नारे लगाते हुए सवार हो रहे थे। जगह-जगह पंडालों में आंदोलनकारियों के लिए सुबह का नाश्ता तैयार किया जा रहा था। भीड़ अपने-अपने ट्रैक्टर ढूंढ रही थी। गांवों से आए हुए किसान सुबह से ही अपने ट्रैक्टरों पर ही परेड के लिए तैयार हो रहे थे और जिन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि किसान अपने दालान में बैठकर तैयार हो रहे हों। फिर नौ बजे के आस-पास गाजीपुर बॉर्डर से ट्रैक्टर निकलना शुरू हुए। एक के पीछे एक निकलते ट्रैक्टर को राकेश टिकैत और आयोजन स्थल पर मौजूद बाकी किसान नेता हरी झंडी दिखा रहे थे। ऐसा शानदार व्यवस्थित आंदोलन मैंने पहले कभी नहीं देखा। इस आंदोलन की ही ताकत थी कि मुझे भारत के उत्तर में पड़ने वाले पौड़ी शहर के लोग तक इस आंदोलन में दिखे, जिन्हें देखकर मैं चीख पड़ा था। ये मेरे शहर के लोग थे और किसान आंदोलन में शिरकत करने के लिए खासतौर पर दिल्ली पहुंचे थे।
इस बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए एक किसान ने अपने ट्रैक्टर में मुझे और मेरे दोस्त को जगह दे दी थी। हमारे बाकी साथी, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी थे, उन्हें एक दूसरे ट्रैक्टर में जगह मिल गई थी। सारे लोग किसान परिवार से ही ताल्लुक रखने वाले थे। ये ट्रैक्टर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक मध्यम वर्गीय किसान का था। दोनों ट्रैक्टर पर तिरंगा और आंदोलनकारियों के झंड़े दोनों को लगाया गया था। वो वक्त भी आया जब हमारा ट्रैक्टर परेड में शामिल हो गया। दूसरा ट्रैक्टर, जिसमें महिलाओं को जगह मिली थी, वो हमारे ट्रैक्टर के साथ-साथ ही कुछ दूर तक चला और फिर गायब हो गया।
सड़कों पर जगह-जगह लोग फूल हाथों में लिए हुए खड़े थे। ये वो लोग थे, जो दिल्ली में अपनी किस्मत आजमाने तो पहुंचे थे, लेकिन अपनी जड़ों और खेतों से भी जिनका नाता था। लोग गुजरते ट्रैक्टरों पर बैठे हुए लोगों पर फूल बरसा रहे थे और बदले में उन्हें इंकलाब जिंदाबाद के नारों से उत्साहित करते किसानों का जवाबी अभिवादन मिलता। वो शानदार क्षण था, जो भारत में फिर शायद ही कभी देखने को मिले।
एक के बाद एक आयोजनों से किसानों ने सरकार की किरकिरी कर दी थी। इस रैली को देखने के लिए लोग बॉर्डर पर दिल्ली और देश के अलग-अलग हिस्सों से पहुंचे थे। इस रैली को लेकर सरकार के इरादे पहले से ही ठीक नहीं थे। ऐन रैली से एक शाम पहले दिल्ली पुलिस ने ट्रैक्टर परेड के लिए रूट्स तय किए थे। पूरी दिल्ली पुलिस को इस काम पर लगाया गया था। एक-एक चीज पहले से तय थी, शायद लाल किले पर हुआ 'इवेंट' भी! मैं इसे इवेंट इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि मोदी सरकार को इसी काम में महारथ हासिल है।
हम जिस ट्रैक्टर में सवार थे वो गाजियाबाद की सड़कों पर दौड़ रहा था। रास्ते में जगह-जगह बैरिकेडिंग कर किसानों की ट्रैक्टर परेड को नियंत्रित करने में पुलिस जुटी हुई थी, लेकिन दोपहर होते-होते चीजें बदल गई। खबरें आने लगी थी कि कुछ ट्रैक्टर परेड के तय रूट्स से इतर लाल किला पहुंच गए हैं। पहले तो हमें लगा कि दूसरा ट्रैक्टर जिसमें महिलाएं और बच्चे थे, परेड में ही कहीं चल रहा होगा। मैंने इस ओर खास ध्यान नहीं दिया। इतने बड़े आयोजनों में आपके साथ चलने वाले लोग कुछ देर के लिए दाएं-बाएं हो ही जाते हैं, लेकिन यहां मामला अलग था।
हिन्दुस्तान की राजनीति ने किसान आंदोलन को न केवल कुचलने बल्कि बदनाम करने के लिए दांव चल दिया था। गाजीपुर बॉर्डर से निकला हमारा दूसरा ट्रैक्टर आईटीओ के पास कहीं फंस गया था। गोली चलने और एक किसान के मारे जाने की खबर ने हमें हिला दिया। एकदम से चीजें बदल गई थी और तरह-तरह की अफवाहें सामने आने लगी थी। दिन होते-होते वो वीडियोज भी हम तक पहुंचने लगे थे, जिनमें कुछ जोशीले आंदोलनकारी लाल किले के गुंबदों पर चढ़ गए और उन्होंने वहां अपने-अपने झंड़े गाड़ दिए।
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पूरे देश के मीडिया ने इसे ऐसे दिखाना शुरू कर दिया था, मानों देश पर हमला हो गया हो! इधर अब भी हमारे साथी और बच्चे आईटीओ के पास ही फंसे हुए थे। माहौल तनावग्रस्त हो रहा था। इस बीच ऐसी भी खबरें हम तक आ रही थी कि आईटीओ से लौटते ट्रैक्टरों पर बीजेपी समर्थक लोग हमला कर रहे हैं और कई लोगों के साथ उन्होंने मारपीट की है। इस सूचना को सच मानने की हमारे पास कई वजहें थी। इससे पहले हम इन्हीं समर्थकों को दिल्ली दंगों के दौरान उत्पात मचाते हुए या फिर सीएए आंदोलन के दौरान मुस्लिमों को निशाना बनाते देख चुके थे। वो अपनी राजनीति के चक्कर में किसी का भी सिर फोड़ने पर उतारू रहने वाले लोगों का हुजूम होता। काफी देर तक हम अपने दोस्तों से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, लेकिन फोन नहीं लगा।
जिस तरह की सूचनाएं हमें मिल रही थी, वो डरावनी थी। पहली मर्तबा मुझे पुलिस को देखकर डर लग रहा था कि कहीं वो सत्ता के इशारे पर दमन के नए रास्तों को न खोल दे। हम उन तक कैसे पहुंचे! वो कहां होंगे और उन तक कैसे मदद पहुंचाई जाए। हम इसी को लेकर उधेड़बुन में थे। आईटीओ और गाजीपुर के आस-पास इंटरनेट सुविधाओं को रोक दिया गया था। मानो सब कुछ चरणबद्ध ढंग से हुआ हो। शाम गहरा रही थी, लेकिन हमारे पास अपने साथियों की कोई सूचना नहीं थी। गांवों से परेड में शामिल होने आए किसान जत्थों में लौटने लगे थे। यूपी की ओर लौटते किसान जत्थों में निकल रहे थे, ताकि वो सुरक्षित घर पहुंच सकें।
अचानक मेरा फोन घनघनाया और दूसरी ओर से आवाज आई - 'आईटीओ में फंस गए थे। वहां गोली चली है। अब हम लौट रहे हैं।' आखिरकार हमारे साथी लौट आए थे, लेकिन आंदोलन हारता हुआ दिखने लगा था। उस रोज कुछ भी हो सकता था। उस रोज भारत की राजनीति, उसकी कुटिलता और निकृष्टता से मेरा परिचय करीब से हुआ। वो अपने ही लोगों को सिर्फ इसलिए कुचलने पर आमादा थे, क्योंकि वो सत्ता में बैठे हुए थे और उन्होंने 'किसानों का भला' करने के लिए कानून बनाया था!
अजब बात है न जिन लोगों ने मोदी को बेतरतीब, बिना सोचे-समझे दिल खोलकर वोट दिए थे, वही शख्स अब उन्हें सड़क पर बिठाकर नए-नए तरीकों से यातनाएं दे रहा था! ये यातनाएं इस लंबे आंदोलन के दौरान कभी बिजली-पानी बंद कर दी गई, तो कभी धरना स्थलों पर बीजेपी कार्यकर्ताओं और नेताओं के द्वारा विरोध के नाम पर उपद्रव मचाकर। ये यतानाएं दिल्ली तक ही नहीं सिमटी रही, बल्कि हरियाणा और उत्तरप्रदेश से तो ऐसे-ऐसे मामले सामने आए, जिसने साफ कर दिया कि बीजेपी की टॉप लीडरशिप सिर्फ अपनी 'सनक' के लिए लोगों का जीवन दांव पर लगा रही है। वहां बैठे किसानों की स्वीकारोक्ति - 'मोदी को वोट देना हमारी बेवकूफी थी!' इस बात का इशारा थी कि अब वो दोबारा कम से कम बीजेपी के झांसे में निकट भविष्य में तो नहीं आने वाले।
भारतीय मीडिया जो कि पिछले लंबे समय से मोदी के प्रभाव में है, वो रात होते-होते आंदोलन को बदनाम करने के लिए मैदान में आ चुका था। सुबह का उत्साह शाम होते-होते मायूसी में बदल गया था। भारत के गरीब किसान इस घटना से आहत नजर आ रहे थे और किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि अब आंदोलन का क्या भविष्य होगा! इस बीच दसियों दफा किसान आंदोलन में हाजिरी लगवा चुकने के चलते कई आंदोलनकारियों के चेहरे मेरे लिए परिचित जैसे हो गए थे। वो वहीं नजर आते... सोमवार, मंगलवार, बुधवार और फिर अगले सोमवार! रुद्रपुर से आया हुआ वो बूढ़ा किसान मैंने वहीं मंच के पास कई दफा देखा। लंबी तैयारियों के साथ किसान आंदोलन में शामिल होने आए उस बूढ़े किसान को पक्का यकीन था कि एक दिन वो जीत जाएंगे और ऐसा ही हुआ भी, लेकिन इस बीच 600 से ज्यादा लोग गुजर गए। ये आंदोलन इतना लंबा खिंचता चला गया कि नाउम्मीद होकर इसमें शामिल 33 किसानों के खुदकुशी की। इस आंदोलन को लेकर जब भविष्य में शोध होगा, तब शायद इन 33 किसानों की मनोस्थिति पर भी बात होगी कि कैसे सरकार ने अपने ही नागरिकों को आत्महत्या की दिशा में धकेला।
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हम गाजियाबाद में तय रूट पर थे, लेकिन हमारे साथ चल रहा दूसरा ट्रैक्टर आईटीओ पहुंच गया था! ये कैसे संभव हुआ होगा? परेड में शामिल हुए लोग समझ गए थे कि पुलिस ने बड़ी चालाकी से कुछ देर के लिए लाल किले की ओर जाने वाले बैरिकेड्स खोल दिए, नतीजतन कुछ लोग लाल किले पहुंच गए, जहां पहले से मौजूद दीप सिंधू और उसके साथियों ने लोगों को उकसाया और भीड़ लाल किले में दाखिल होती चली गई। ये इजी एक्सेस था, जो जाहिर है कि दिया गया! इस घटना के तुरंत बाद 158 किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया और सैकड़ों लोगों पर मुकदमे दायर किए गए।
अपने आप में इतिहास की नई इबारत लिख रहे किसान आंदोलन को लेकर तब बेहद नकारात्मक माहौल बन गया था और किसान आंदोलन के समर्थकों में मायूसी पसर गई थी। सबने मान लिया था कि अब आंदोलन को खत्म ही समझिए। दिल्ली पुलिस ने तीनों बॉर्डर पर फोर्स बढ़ा दी थी। एक्टिविस्ट और पत्रकारों को इस बीच निशाना बनाया जा रहा था और फिर वो शाम भी आई जब गाजीपुर बॉर्डर पर बिजली-पानी और इंटरनेट की सप्लाई बंद कर दी गई। आंदोलन कई कदम पीछे हट गया था। सरकार कामयाब हो ही रही थी, लेकिन फिर 28 जनवरी की वो शाम आई जब अतिउत्साह में पहले तो बीजेपी विधायक नंद किशोर गुर्जर ने गाजीपुर बॉर्डर पर अपने समर्थकों के साथ हमला बोल दिया और फिर बाकी रही-सही कसर प्रशासन की उस हरकत ने कर दी, जब वो धरने पर बैठे राकेश टिकैत को जबरन उठाने के लिए पहुंचे।
इससे ठीक पहले एक इंटरव्यू में राकेश टिकैत आंदोलन को बिखरता देख रो पड़े और ये वीडियो वायरल होते ही पूरी कहानी बदल गई। शामली, बडौत और मुजफ्फरनगर के इलाकों से रातों-रात किसान अपने-अपने ट्रैक्टर दनदनाते हुए गाजीपुर पहुंचने लगे। सरकार को किसानों के जत्थों के रात में ही गाजीपुर, टीकरी और सिंघु बॉर्डर की ओर निकलने के इनपुट्स मिल चुके थे और रास्तों से बैरिकेड्स को हटाया जाने लगा। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने किसान आंदोलन को कुचलने की कई नाकाम कोशिशें की, लेकिन किसान मोर्चे पर आ चुके थे। इस घटना ने किसान आंदोलन को वापस खड़ा कर दिया था। बाजी एकदम से 180 डिग्री पर पलट गई थी और अब सरकार कई कदम पीछे जा चुकी थी।
इस एक घटना ने किसान आंदोलन को इतना बड़ा कर दिया कि सरकार की दोबारा हिम्मत ही नहीं हुई कि वो धरने पर बैठे किसानों पर बल प्रयोग कर सके! अब चीजें सरकार के हाथ से निकलकर जनता के हाथ में आ चुकी थी और आंदोलनकारी किसानों की मायूसी सत्ता को खुलेआम चैलेंज करने में बदल गई। आज किसान आंदोलन को एक साल पूरा हो गया है, तब मीडिया की बौखलाहट भी चरम पर नजर आ रही है। इस आंदोलन और किसानों की मांगों को लेकर गंभीर चर्चा करने के बजाय लगातार अब भी टीवी चैनल ये साबित करने में जुटे हैं कि दिल्ली में 'नकली' किसान बैठे हुए हैं और उन्होंने लोगों की मुसीबतें बढ़ाई हुई हैं। गोदी मीडिया की हालत वाकई हास्यास्पद है और ऐसी जगहों पर काम कर रहे पेशेवर लोगों पर तरस आता है। इस एक साल में किसान आंदोलन ने कई उपलब्धियां अपने नाम दर्ज की हैं।
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इस किसान आंदोलन की बदौलत ही हरियाणा और पंजाब के किसानों की सालों पुरानी पानी की लड़ाई किनारे चली गई। इस आंदोलन की बदौलत ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुस्लिम साथ आकर खड़े हो गए। ये आंदोलन की ताकत ही है कि आज गोदी मीडिया बेदम नजर आता है और उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा और इससे भी बढ़कर पूरे भारत को आज ये यकीन हो पाया है कि बीजेपी के किले को न केवल भेदा जा सकता है, बल्कि बिखेर कर हवा में भी उड़ाया जा सकता है। किसान आंदोलन ने देश के बाकी आंदोलनकारियों को भी ताकत दी है। एक ऐसे दौर में किसान बीजेपी से टकरा गए, जब वो अभेद्य नजर आ रहे थे।
हालांकि, अब पूरी ताकत लगाने के बावजूद सरकार किसानों के सामने लाचार खड़ी है। किसानों ने न केवल अपनी ताकत दिखलाई, बल्कि सरेआम दुनिया के सामने साज-सज्जा-तस्वीरों में खोए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को झूठा भी साबित कर दिया। कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद नरेंद्र मोदी ने सोचा होगा कि किसान उनके जयकारे लगाकर अपने घरों को वापस निकल पड़ेंगे, लेकिन उन्होंने वहीं बैठकर ये बता दिया कि 'जनाब हमें आपकी लफ्फाजी और जुमलों पर जरा भी यकीन नहीं!' ये किसान आंदोलन की ही उपलब्धि है कि एक के बाद एक अब राज्यों से बीजेपी को झोले-बोरे-थैले उठाने का वक्त करीब आ गया है और इसका असर उत्तर प्रदेश में तो साफ दिख रहा है।
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