40 कोरोना संक्रमितों के लिये केवल 9 मेडिकल किट, फाॅर्मासिस्ट ने झगड़े के ड़र से किसी को नहीं दी दवाएं!

Ground Zero40 कोरोना संक्रमितों के लिये केवल 9 मेडिकल किट, फाॅर्मासिस्ट ने झगड़े के ड़र से किसी को नहीं दी दवाएं!

गौरव नौड़ियाल

गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।  

उत्तराखंड से छपने वाले अखबारों पर आप नजर मारेंगे तो आपको मीडिया में सारी व्यवस्थाएं चाक चौबंद नजर आएंगी। कहीं मुख्यमंत्री अस्पतालों का उद्घाटन करते हुये सुर्खियां बटोर रहे होंगे, कहीं वो कोविड की अदृश्य तीसरी लहर के लिए मजबूत तैयारी के हवाई तीर छोड़ते हुये मिल जाएंगे, कहीं उनके मंत्रियों के अव्यवस्थाओं पर गुस्सा दिखाने वाली हेडलाइन तनी होंगी, लेकिन जमीन पर हालात बदत्तर हैं। ऐसा लग रहा है कि इस छोटे से पहाड़ी राज्य में लोगों को गांवों में मरने के लिये छोड़ दिया गया है। अस्पतालों की हालत खस्ताहाल है और कागजों में कंटेनमेंट बना दिये गए गांवों में हर एक शख्स की जिंदगी कोरोना संक्रमितों के साथ ही उठते-बैठते कट रही है। राज्य के पर्वतीय जिलों में कोरोना से बड़े पैमाने पर गांव के गांव संक्रमित हो रहे हैं, लेकिन महामरी के खिलाफ लड़ाई कागजों में जारी है।

ऐसे ही हम जब कागजों में कंटेनमेंट जोन घोषित किये गये पौड़ी जिले के कोट ब्लाॅक में पड़ने वाले पैडुल गांव पहुंचे, तो यहां हमें सब कुछ सामान्य दिनों की ही तरह नजर आया। गांव के बाहर ही खेतों में लड़के क्रिकेट खेल रहे थे और वो इस बात से बेपरवाह लग रहे थे कि उनका गांव कोरोना संक्रमित मरीजों से भरा हुआ है। हैरानी की बात यह थी कि इन लड़कों के साथ एक कोरोना पाॅजिटव लड़का भी था, जो बिना मास्क गांव के बाकी लोगों के साथ ही क्रिकेट खेल रहा था।

इस पर जब मैंने अपने साथ चल रहे ग्राम प्रधान के पति से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है, तो उन्होंने सवालिया लहजे में जवाब दिया- ‘हम कैसे लोगों को समझाएं कि यह खतरनाक हो सकता है। बीमारी आज गांव में आई है, लेकिन हमें यहीं इसी गांव में हमेशा साथ में ही रहना है। जब किसी से हम कह भी रहे हैं कि कुछ दिनों के लिये अपने घरों में ही अलग-थलग रहो, तो वो आश्चर्य जताते हैं कि उन्हें खांसी-जुकाम जैसे कोई लक्षण ही नहीं हैं, तो फिर वो घर पर क्यों कैद हो जाएं? अब आप ही बताइये कि गांव में लोगों से हम क्या कहें!’

हम आगे गांव की ओर बढ़ गये। गांव में मैंने लोगों से यह जानने की कोशिश कि आखिर को कोविड गाइडलाइन को फाॅलो क्यों नहीं कर रहे हैं! इस पर ग्रामीणों का कहना था कि अगर वो घर पर ही बैठ जाएंगे तब उनके जानवरों और खेतों की देखभाल कौन करेगा! यह व्यावहारिक दिक्कत है जो कमोबेस पहाड़ के हर गांव में नजर आ रही है। ग्रामीणों का कहना है कि खेतों को छोड़कर घर पर बैठ भी जाएं, तब भी जानवरों के लिये चारे का इंतजाम करने तो बाहर निकलना ही होता है। उत्तराखंड के गांवों की बुनावट और बसावट जिस तरह की है, उसे देखते हुये व्यावहारिक तौर पर कंटेनमेंट जैसा शब्द बेमानी ही लगता है। ये ऐसे ही है जैसे आपको आंकड़ों में बता दिया जाता है कि इस साल तो सूखे से कोई फसल तबाह ही नहीं हुई, जबकि असलियत में तबाही बहुत ज्यादा होती है।

पैडुल गांव में 14 लोग संक्रमित हैं, लेकिन उनका हाल-चाल पूछने के लिये नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पिछले कई सालों से ना ही कोई डाॅक्टर है और ना ही प्रशासन ने महामारी को देखते हुये ही पैडुल और उसके आस-पास के गांवों के लिये कोई ठोस कार्ययोजना ही तैयार की है, जिससे कोरोना पॉजिटव मामलों में बढ़ोत्तरी होकर हालात बेकाबू ना हों। इसके इतर कागजों में आपको इस गांव में सब कुछ चाक चौबंद ही नजर आएगा। स्थिति यह है कि पैडुल और उसके आस-पास ही बसे हुए अन्य गांवों में 40 लोग कोरोना पाॅजिटिव हैं, लेकिन उन्हें कोई मेडिकल किट अब तक उपलब्ध नहीं करवाई गई है। ये उस मौत के कुएं की तरह है, जहां आपको धकेल तो दिया गया है, लेकिन इससे जिंदा बच निकलने की कला आपको खुद ही आनी चाहिये।

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27 अप्रैल से बुखार आने शुरू हुये, 13 मई को हुई जांच 
पैडुल गांव के शैलेन्द्र सिंह नेगी ने बताया कि उनके गांव में 24 अप्रैल को एक शादी हुई थी, जिसमें बाहरी राज्यों से भी लोग शामिल होने आये थे। इसके बाद से गांव में स्थितियां बिगड़नी शुरू हुई। उन्होंने कहा- ‘27-28 अप्रैल से गांव में लोगों को बुखार आना शुरू हुआ था। हमने कई दफा स्वास्थ्य महकमे के लोगों से जांच करने के लिये कहा, लेकिन वह लोग नहीं आये। इसके बाद हमने एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता की मदद से पौड़ी में अखबारों के दफ्तर में खबर पहुंचवाई, जिसके बाद 13 मई को स्वास्थ्य विभाग के लोग आरटीपीसीआर टेस्ट करने के लिये गांव में आए। तकरीबन 6 दिनों के बाद 19 मई को पता चला कि गांव में 14 लोग संक्रमित हैं। इस बीच संक्रमित अपने काम से या फिर मजदूरी की तलाश में आस-पास के इलाकों में आते-जाते रहे।’

 

उत्तराखंड से छपने वाले अखबारों पर आप नजर मारेंगे तो आपको मीडिया में सारी व्यवस्थाएं चाक चौबंद नजर आएंगी। बड़े पैमाने पर गांव के गांव संक्रमित हो रहे हैं, लेकिन महामरी के खिलाफ लड़ाई कागजों में जारी है।

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— Hilansh (@Hilansh1) May 27, 2021

 

पैडुल गांव की आबादी तकरीबन 250 है। स्वास्थ्य महकमा शुरुआत में ही जांच करने आता तो यह संख्या काफी ज्यादा हो सकती थी। शैलेन्द्र बताते हैं कि इस बीच कई लोग खुद ही ठीक हो गये। उन्होंने कहा- ‘हमारे गांव के 51 लोगों ने ही टेस्ट करवाया और बाकी लोगों ने जांच करवाने से ही इनकार कर दिया। गांव के पास जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बसंतपुर है, उन्होंने गांव वालों को पैरासिटामोल के पत्ते थमा दिये थे। इसके बाद स्वास्थ्य महकमे का कोई कर्मचारी यहां सुध लेने भी नहीं आया।’ गांव में रहने वाले अधिकतर लोग खेती और मजदूरी कर आजीविका कमाने वाले लोग हैं। गांव में किसी की तबयित ज्यादा खराब हो जाती है तो उसे 42 किमी दूर पहाड़ी रास्ते पर सफर करते हुए जिला चिकित्सालय पौड़ी पहुंचाया जाता है।

(पौड़ी जिले के कोट ब्लॉक का पैडुल गांव)

इस मामले को लेकर जब हमने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बसंतपुर के फार्मासिस्ट अजय प्रकाश से बात की तो जवाब हैरतनाक था। उन्होंने कहा- ‘पैडुल में 14, छैतुड में 20 और बीडिंग गांव में 5 लोग संक्रमित हैं। अस्पताल में मेरे पास 9 मेडिकल किट हैं, लेकिन मैंने किसी को भी किट नहीं दी है। मैं पैडुल गांव गया था, लेकिन वहां 14 लोग संक्रमित थे और ऐसे में मैं 9 लोगों को ही किट दे देता तो 5 लोग बाकी रह जाते। इससे झगड़े की स्थिति पैदा हो जाती।’ इस प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर आस-पास के तकरीबन 17 गांव निर्भर हैं, जिनमें करीब 40 लोग संक्रमित हैं। ये आंकड़ा तब है, जबकि ग्रामीण इलाकों में जांच की स्थिति दयनीय है।

फार्मासिस्ट से जब हमने जानना चाहा कि क्या उन्होंने मेडिकल किट के लिये अपने उच्च अधिकारियों को सूचना दी है तो उनका कहना था कि उन्होंने एक सप्ताह पहले ही 100 मेडिकल किट की मांग के साथ ही ऑक्सीजन सिलेंडर, मास्क, सेनिटाइजर और अन्य जरूरी सामान की सूची भेजी थी, लेकिन 27 मई तक भी उनके पास इसमें से कुछ भी सामान नहीं पहुंचा था।

ये हैरान करने वाली बात थी कि महामारी के दौरान भी ना फार्मासिस्ट ने गंभीरता दिखाई और ना स्वास्थ्य महकमे के उच्च अधिकारियों ने ही अपनी ओर से इलाके के बाकी गांवों में जांच की रफ्तार को बढ़ाना जरूरी समझा। ग्रामीणों की मानें तो 2003 के बाद से ही स्वास्थ्य केन्द्र फार्मासिस्ट के भरोसे चल रहा है। यह स्थिति अकेले बसंतपुर स्वास्थ्य केन्द्र की ही नहीं है, बल्कि पहाड़ों के अधिकांश हिस्सों में स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल है। आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि स्वास्थ्य महकमे ने जब चिन्हित सक्रमितों का इलाज ही कोरोना प्रोटोकाॅल के तहत करने की नहीं सोची, तब आस-पास के गांव में महकमे के लोग मुहिम चलाकर जांच करेंगे, यह सोचना ही बेमानी है। ये केवल लचर स्वास्थ्य सेवाओं का ही मामला नहीं है, बल्कि कामचोरी और लापरवाही का नतीजा भी है, जिसके गुनहगार सीधे तौर पर स्वास्थ्य महकमे के कर्मी हैं। राजस्व प्रशासन के दस्तावेजों में गांव कंटेनमेंट जोन घोषित है, लेकिन इसी कंटेनमेंट जोन में संक्रमित आजाद और बेखौफ हैं!

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जागरुकता की कमी और लापरवाही बनी मुसीबत
गांवों में जागरुकता की कमी भी चिंता का विषय है। जिन गांवों में स्वास्थ्य विभाग की टीम जांच के लिये पहुंच भी जा रही है, वहां कई लोग इस ड़र से जांच के लिये आगे ही नहीं आ रहे हैं, कि कहीं उन्हें पाॅजिटिव निकलने के बाद क्वारंटीन न कर दिया जाए।

शादियां बनी कोरोना विस्फोट की वजहें
कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में जब भारत के मैदानी इलाकों में लोग तेजी से आ रहे थे, उस वक्त राज्य सरकार ने लचर स्वास्थ्य सेवाओं वाले पहाड़ों की बसावट को बचाने के लिये पुख्ता इंतजाम नहीं किये। पहले उत्तराखंड में सरकार मुखिया के बदलने के खेल में उलझी रही और फिर बची-खुची कसर नये मुखिया ने निकाल दी। तीरथ सिंह रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही अपनी प्राथमिकता में कुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं पर फूल बरसाना रखा, ना कि कोरोना की दूसरी मारक लहर से गांवों को महफूज रखने की तैयारियों पर जोर दिया गया। इधर इस बीच शादियों पर भी शुरुआत में कोई नियंत्रण नहीं रखा गया, जिससे कोरोना तेजी से दूरस्थ गांवों तक भी पहुंच गया।

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ग्राम प्रधानों को झेलना पड़ रहा है विरोध
कोट ब्लॉक के ही डडोगी गांव में भी कोरोना संक्रमित मरीज हैं और यह गांव भी 30 मई तक सरकारी दस्तावेज में माइक्रो कंटेनमेंट जोन है। 170 लोगों की जनसंख्या वाले इस गांव में 25 लोगों के सैंपल लिये गये थे जबकि एक शख्स का सैंपल पास के ही गांव पल्ला में लिया गया। 17 मई को जांच रिपोर्ट आई, जिसमें 21 लोग संक्रमित पाए गए। फिलहाल सभी संक्रमित लोगों की स्थिति ठीक है।

(पौड़ी जिले के कोट ब्लॉक के डडोगी गांव में जांच के लिये सैंपल कलेक्ट करती स्वास्थ्य महकमे की टीम।)

इस संबध में डडोगी के ग्राम प्रधान नवीन बिष्ट ने हमें बताया कि उनके गांव में भी असल दिक्कतें ग्रामीणों में जागरुकता की कमी की ही आ रही है। वो कहते हैं कि सरकार को कोरोना से रोकथाम के लिये होम आइसोलेशन के बजाय पिछले साल की ही तरह सख्त विकल्पों पर सोचना चाहिए था और संक्रमितों को संस्थागत क्वारंटीन में ही रखने के ठोस फैसले लेने चाहिये थे। इसके पीछे वो ग्रामीणों की लापरवाह रवैये को वजह बताते हैं। उन्होंने कहा- 'पिछले साल हम लोगों ने गांव वालों की खूब गालियां खाई, लेकिन बावजूद इसके स्थितियां काबू में थी। सरकार की गाइडलाइन के चलते संक्रमण का खतरा पिछली दफा पूरे गांव में नहीं था। इस दफा स्थितियां विकट हैं। संक्रमित लोग बिना मास्क ही गांव में घूम रहे हैं। हर वक्त पहरा बिठाना संभव नहीं है, जो कि दूसरों के लिये खतरनाक हो सकता है। लोगों को 12-14 दिन अलग रहने के लिये हम यदि कह भी रहे हैं तो वह उल्टा हमें ही अपनी दिक्कतों के लिये जिम्मेदार बता रहे हैं।'

बहरहाल, सरकार एक ओर तीसरी लहर से लड़ने के लिये तैयारियों का दम-खम भर रही है, लेकिन दूसरी ओर पैडुल जैसे गांव भी हमारे सामने हैं, जहां ना मरीज को महामारी की गंभीरता का अंदेशा है, ना महकमे को चिंता और ना ही पहाड़ों से दूर दसियों किलोमीटर दूर देहरादून में बैठी पहाड़ियों की सरकार को ही सुध है। हैरानी की बात यह है कि ये गांव मौजूदा और पूर्व दोनों ही मुख्यमंत्रियों के गृह जनपद का है।

जारी है...

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